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चतुर कम्युनिस्ट, भयभीत कांग्रेसचंदन मित्रासंपादक, द पायनियरकभी सुना है आपने कि कुत्ता दुम को नहीं बल्कि दुम ही कुत्ते को हिलाती हो? ऐसा मामला अगर कहीं हुआ है तो यकीनन वह संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार का ही होगा। दरअसल, सन् “60 के आखिरी दौर में पश्चिम बंगाल में भी ऐसा ही एक घटनाक्रम देखने को मिला था, जब सन् 1967 में पहली बार कांग्रेस सत्ता से बेदखल हुई थी और माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने गांधीवादी अजय मुखर्जी को आगे बढ़ाया था।मुखर्जी ने “बांग्ला कांग्रेस” स्थापित करने के लिए प्रदेश कांग्रेस के विरुद्ध विद्रोह का झंडा बुलंद किया था। कांग्रेस विरोधी गठबंधन में सबसे बड़ा दल होने के बावजूद माकपा ने एक बड़े त्याग का प्रदर्शन किया। पूर्व विपक्षी नेता ज्योति बसु ने स्वेच्छा से उपमुख्यमंत्री पद को स्वीकारते हुए मुख्यमंत्री की कुर्सी अजय मुखर्जी के लिए छोड़ दी। पर माकपा ने पूरी समझदारी दिखाते हुए पुलिस और सामान्य प्रशासन वाला गृह विभाग हथिया लिया था।इंदिरा गांधी ने नौ महीने के बाद इस सरकार को बर्खास्त कर दिया और सभी प्रकार के कम्युनिस्ट विरोधी गठबंधनों को खड़ा करने की पूरी कोशिश की। पर ऐसी कोई भी कोशिश सिरे नहीं चढ़ सकी। इसके बाद सन् 1969 में विधानसभा चुनाव हुए और आशा के अनुरूप “षड्यंत्रों के शिकार” कांग्रेस विरोधी गठबंधन की जोरदार बहुमत के साथ सत्ता में वापसी हुई। एक बार फिर ज्योति बसु ने अपने दल की खासी बढ़ी हुई ताकत के बावजूद उपमुख्यमंत्री की कुर्सी ही संभाली। पर कुछ सप्ताह बाद ही माकपा ने अपनी शक्तिशाली समन्वय समिति के साथ ट्रेड यूनियनों के नाम पर सभी सरकारी कर्मचारियों को उसके झंडे तले लाने के लिए पूरे जोश के साथ अभियान शुरू किया। यहां तक कि पुलिस को भी यूनियनों के रूप में संगठित होने की अनुमति दे दी गई।माकपा ने हरेक सरकारी प्रतिष्ठान में सुनियोजित ढंग से घुसपैठ की और पुलिस तथा बाबुओं के अलावा स्कूल- कालेज के शिक्षकों पर खासतौर पर ध्यान केंद्रित किया। यहां तक कि माकपा ने मुख्यमंत्री को खुलेआम इस कदर अपमानित किया कि मुख्यमंत्री ने वामपंथियों के विरुद्ध धरने पर बैठते हुए कहा, “मेरी सरकार एक बर्बर सरकार है।” स्वाभाविक रूप से अजय मुखर्जी के सरकार से बाहर होते ही गठबंधन टूट गया। पर तब तक माकपा का व्यवस्था पर पूर्ण वर्चस्व स्थापित हो चुका था। आखिरकार इंदिरा गांधी ने पश्चिम बंगाल को कम्युनिस्ट निरंकुशता से बचाने के लिए शक्तिशाली सिद्धार्थ शंकर राय को भेजा और राय अपने पांच साल के कार्यकाल में माकपा को पीछे ढकेलने में कामयाब रहे।हालांकि सन् 1977 में आपातकाल विरोधी वातावरण में वामपंथी पूरे बहुमत के साथ बंगाल की सत्ता पर काबिज हुए और इसमें कोई दो राय नहीं कि इसके लिए उन्हें पिछले पांच वर्षों से पुलिस और प्रशासन में भीतर ही भीतर मौजूद रहे अपने तत्वों से पूरी मदद मिली। अजय मुखर्जी को इतिहास के पन्नों में हाशिए पर पहुंचा दिया गया और माक्र्सवादियों ने अपने बूते पर बहुमत पाने के बावजूद सीधे शासन करने की बजाय वाम मोर्चे के जरिए सरकार चलाने पर जोर दिया। एक बार कुर्सी पर बैठने के बाद उन्हें हटाने वाला कोई नहीं था (सन् 2001 में बसु ने स्वेच्छा से पद छोड़ा)। और अब उनकी पार्टी लगातार सातवीं बार सत्ता में आने के लिए तैयार है।प्रदेश में कांग्रेस अपने ही केंद्रीय मंत्री की पिटाई को लेकर व्यस्त है जबकि ममता बनर्जी की गलतियों ने उनकी पार्टी का तेजी से बिखराव सुनिश्चित कर दिया है, हालांकि वह कम्युनिस्ट अधिनायकवाद को गंभीर चुनौती देने वाली एकमात्र उम्मीद थीं। सोनिया गांधी और उनके सलाहकारों को पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्टों द्वारा कांग्रेस के सफाए के इतिहास को देखना चाहिए। माकपा कोलकाता के प्रयोग को दिल्ली में दोहराने का पुरजोर प्रयास कर रही है। एक ओर प्रधानमंत्री अपने मंत्रियों के प्रदर्शन के पोथे तैयार कर रहे हैं और सोनिया गांधी के पसंदीदा झोलाछाप दरबारी आम आदमी को राहत पहुंचाने में सरकार की विफलता का आकलन कर रहे हैं, तो दूसरी ओर माकपा अपनी दया पर टिकी सरकार के कंधों पर सवार है। दोनों हाथों में लड्डू रखने की कम्युनिस्टों की क्षमता देखिए। केंद्रीय मंत्रिमंडल में इसके ऐसे कांग्रेसी प्रशंसक हैं। जो खुलेआम गोपालन भवन को सलाम करते हैं। एक कांग्रेसी तो कम्युनिस्ट साप्ताहिक अखबार पीपुल्स डेमोक्रेसी, जो नियमित अंतराल से ऐसे व्यक्तियों की सूची छापता रहता है जिन्हें वह हटाना चाहता है, की इच्छानुसार बली के बकरे तलाशता है। माकपा संप्रग सरकार की गरीब विरोधी नीतियों के खिलाफ गरजती है और सुधारों पर अवरोध लगाती है तो वहीं लालू यादव और उनके कट्टर दुश्मन मुलायम सिंह के साथ भी प्यार की पींगें बढ़ाती है। जबकि कुछ साल पहले समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष ने उत्तर प्रदेश विधानसभा में वामपंथियों की बची-खुची उपस्थिति को भी समाप्त कर दिया था। पर वामपंथी चुनिंदा बातें ही याद रखते हैं।तमिलनाडु में द्रमुक तीसरे मोर्चे का भीना-भीना विचार उछाल रही है जो बिना माकपा की सहमति के अस्तित्व में नहीं आ सकता। वामपंथियों का नियमित रूप से जयललिता के साथ भी तालमेल रहा है और अगर एक बार फिर चुनावी मैदान में उनका सितारा बुलंद होता है (जैसा कि अभी उपचुनावों के नतीजों से लगता है) तो वामपंथियों को जयललिता के साथ हाथ मिलाने से कोई गुरेज नहीं होगा। वामपंथियों द्वारा कड़ी आलोचना के बावजूद कांग्रेसी नेताओं की चापलूसी भरी जबान सुननी चाहिए। पिछले दिनों पत्रकारों के साथ बातचीत में सोनिया गांधी भी माकपा द्वारा उनकी सरकार के अपमान की बात पर चुप्पी साध गईं, जब माकपा ने संप्रग सरकार की पहली वर्षगांठ के समारोह में शामिल होने से साफ इनकार कर दिया था। पिछले साल इसी महीने में सरकार के सत्ता संभालने से पहले वामपंथी नेताओं के तीखे बयानों के कारण शेयर बाजार में एक दिन के भीतर ही सबसे ज्यादा गिरावट दर्ज की गई थी। उसके तत्काल बाद भाकपा के एक नेता ने कहा था, भाड़ में जाए विनिवेश मंत्रालय। और वास्तव में, एक सप्ताह बाद ऐसा ही हुआ। मानव संसाधन विकास मंत्री के रूप में अर्जुन सिंह का पूरा समय माक्र्सवादियों के लिए काम की तलाश करना रह गया है जबकि उनकी अपनी पार्टी के कार्यकर्ता उपकृत होने की बाट ही जोहते रहे हैं। माकपा की बयानबाजी दिन-प्रतिदिन तेज तो हो रही है पर यह साफ है कि वह सरकार नहीं गिराएगी। उसे ऐसा करने की जरूरत भी क्या है जब कांग्रेस स्वयं ही भयभीत है?अचानक वामपंथी दिल्ली में मीडिया की आंखों के भी तारे बन गए हैं। लोकसभा में उनकी ताकत 62 सांसदों की है जो कि सदन की कुल सदस्यता का मात्र नौ प्रतिशत है। माकपा ने स्वयं को सरकार की तारणहार और उसके विपक्ष की भूमिका में बखूबी ढाल लिया है। सत्ता में बने रहने के लिए माकपा पर कांग्रेस की दयनीय निर्भरता के चलते सरकार और राजनीति दोनों पर वामपंथियों का नियंत्रण उस समय तक उत्तरोत्तर बढ़ेगा जब तक यह सरकार केंद्र में बनी रहेगी। अगले साल केरल और पश्चिम बंगाल में होने वाले विधानसभा चुनावों में सत्ता में लौटने पर वामपंथियों की पकड़ और मजबूत होगी।NEWS
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