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गवाक्ष

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May 6, 2005, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 06 May 2005 00:00:00

क्या सचमुच जुम्मन मियां की प्रतीक्षा करती है नदी?शिव ओम अम्बरशिव ओम अम्बरमेरा नगर पवित्र भागीरथी के तट पर स्थित है। इधर अखबारों में छपी एक खबर ने ध्यान आकृष्ट किया। वर्षों से एक साधु बाबा गंगा किनारे कुटी डालकर रहते हैं। कभी कहीं कुछ आपत्तिजनक लगता है तो अपनी आवाज बुलन्द करते हैं, आपत्ति दर्ज कराते हैं। गंगा में मछलियों के आखेट पर पाबन्दी है। किन्तु पिछले कुछ दिनों से एक वर्ग विशेष के लोग मुख्य घाट पर सुबह से शाम तक मत्स्य – आखेट में लगे रहते हैं! वहां स्नान करने वाले सात्विक जनों की संवेदनाओं का उन्हें कोई ख्याल नहीं है, मात्र अपनी स्वादेन्द्रिय की चिन्ता है। ज्यादातर स्नानार्थी शान्तिप्रिय और सहिष्णु हैं और उनकी सहिष्णुता अन्तत: कातरता और कायरता की पर्यायवाची सिद्ध होती है। किन्तु यह साधु बाबा अचानक उग्र हो उठते हैं और मत्स्य- आखेटकों को अकेले ही खदेड़ते रहते हैं! एक दिन आखेटकों की पूरी भीड़ बाबा के सामने है। अचानक एक देसी कट्टे से गोली चलती है और एक व्यक्ति की बांह को छील जाती है। भीड़ द्वारा यह आरोप लगाया जाता है कि यह कार्य बाबा ने किया है। बाबा कहते रहते हैं कि उनके पास कोई अस्त्र नहीं है किन्तु वह पुलिस जो आखेटकों के खिलाफ कभी सक्रिय नहीं हुई अचानक हरकत में आ जाती है और बाबा को गिरफ्तार कर लिया जाता है। गंगा तट से उठने वाली एक सात्विक आक्रोश भरी हुंकार अब खामोश है और तथाकथित धर्मप्राणों की आंखों के सामने अबाध गति से मत्स्य-आखेट चल रहा है, पुलिस उचित अन्तराल पर मिलती रहने वाली अपनी भेंट से सन्तुष्ट है और वर्ग-विशेष के यहां नित्यप्रति स्वादिष्ट भोजन बन रहा है।इस घटना की सामान्यता (न जाने कितनी नदियों के कितने ही घाटों पर ऐसी कथा थोड़े-से परिवर्तित रूप में चल रही है) को मैं साहित्य की सभा में रखी गई कुछ रचनाओं के सन्दर्भ से जोड़ता हूं तो चित्त बेचैन हो उठता है। भोपाल के भारत-भवन की कवि-भारती के त्रि-दिवसीय आयोजन की चर्चा इसी स्तम्भ में पहले हो चुकी है, एक बात और उल्लिखित करने का मन है। इसी आयोजन के तीसरे दिन की अन्तिम सभा में दो विशेष नाट प्रस्तुतियां दिल्ली से आये कलाकारों ने “अन्तरंग” के मंच को दीं- मिर्जा गालिब के कुछ खतों का महत्वपूर्ण वाचन तथा समकालीन कविता के कुछ अंशों की अभिनयपूर्ण प्रस्तुति। ये कविताएं पर्यावरण से सम्बन्धित थीं और अधिकांश कविताओं में उसके प्रदूषण से होने वाले खतरों के प्रति सचेत किया गया था। कभी नदी के माध्यम से तो कभी वृक्ष के माध्यम से प्रकृति के द्वारा अनुभव की जा रही त्रासदी को रुपायित करने की प्रभावी चेष्टा की गई थी।अभिव्यक्ति-मुद्राएंरहें नजदीक लेकिन मन में अपने दूरियां रक्खें,यही संक्षिप्त परिचय है हमारे अन्तरंगों का।कभी तुम खोलकर के देख लेना आस्तीनों को,तुम्हें मिल जायेगा डेरा वहां काले भुजंगों का।-कुमार शिवसलीका भी नहीं इनको गले से मिलने का,हमारे पुरखों के लड़ने में भी करीना था।ये क्या गिरा है अभी टूटकर निगाहों से,जहर था, अश्क था, पानी था या पसीना था।-प्रेम भंडारीसाहिल पे लाई और सफीने डुबो दिये,यूं जिन्दगी ने हमको हंसाया कि रो दिये।-शमीम जयपुरीकिन्तु मेरी स्मृति में बार-बार एक खास कविता उंगली में गड़ी गहरी फांस की तरह तपकती रही है और मेरे नगर के गंगा तट पर घटी घटना के बाद से वह निरन्तर एक जलते प्रश्न की तरह मेरी आंखों के सामने है। इस कविता के रूपायन हेतु मंच पर जुम्मन मियां को प्रस्तुत किया गया था। वह मंच पर जब मछली मारने की अपनी बंसी के साथ दर्शकों के सामने थे, नेपथ्य से गूंजती हुई कविता उनके व्यक्तित्व का प्रशस्ति-गान कर रही थी। कविता से यह ध्वनित हो रहा था कि नदी का कोई नाम नहीं है, वह एक अनाम नदी है। जुम्मन मियां प्रतिदिन अपनी बंसी लेकर नदी में मछली मारने आते हैं, चारा लगाकर बंसी को जल में डुबाते हैं और बड़े धैर्य से मछली फंसने की प्रतीक्षा करते हैं। कविता उद्भावना करती है कि ध्यानस्थ मुद्रा में बैठे जुम्मन मियां मानो नदी के नामकरण की चिन्ता में निमग्न हैं। इस कविता की अन्तिम पंक्तियों में कहा जाता है कि नदी प्रतिदिन प्रात:काल जुम्मन मियां की प्रतीक्षा करती है।भारत-भवन में समकालीन कविता की इस प्रतिनिधि प्रस्तुति को देखने के बाद से मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि हमारा तथाकथित आधुनिक जनवादी नव्य साहित्य आखिर पक्षधर किसका है? मछली का या उसके आखेटक का? हमारे इस कवि की कविता में नदी को प्रात:काल स्नानार्थियों का इन्तजार नहीं है, वह प्रतीक्षा कर रही है जुम्मन मियां की। मुझे लगता है कि इस कविता में चित्रित नदी मछली को आटे की गोलियां खिलाने वाले मूर्खों को देखकर तो उपेक्षा से हंसती ही होगी।लेकिन मुझे अपने चित्त में नदी के अधिदेवता की आवाज सुनाई देती है- नहीं, यह कविता गलत है, यह चित्रण विषाक्त है। मैं किसी हिंसक आखेटक का इन्तजार नहीं कर सकती। मेरा व्यक्तित्व शुभाशीषों का संवाहक है, मूल्यों का विदाहक नहीं। अत: अब अन्त में मैं कहता हूं- हे विभ्रमित कवि। नदी के माध्यम से तुम अपनी हिंसा-वृत्ति को जायज ठहराने की कुचेष्टा कर रहे हो, तुम्हें धिक्कार है!तलपटपिछले दिनों अमरीका में कैलिफोर्निया की जेल में बंद एक सिख कैदी को पगड़ी पहनने की अनुमति नहीं दी गई। मामले ने तूल पकड़ लिया। इसे पांथिक अधिकार का उल्लंघन मानते हुए “द अमरीकन सिविल लिबर्टीज यूनियन” ने जेल अधिकारियों पर मुकदमा दायर किया है। हरपाल सिंह चीमा नामक यह सिख कैदी पगड़ी पहनने से रोकने को अपना अपमान मानता है।(दैनिक जागरण, 21 मई, 2005)NEWS

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