बिहार चुनाव के बाद
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बिहार चुनाव के बाद

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Apr 12, 2005, 12:00 am IST
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दिंनाक: 12 Apr 2005 00:00:00

न घर की, न घाट की कांग्रेसटी.वी.आर. शेनायसंशय हो तो मन की सुनो! कांग्रेस ने बिहार में यह सीख भुला दी और चुनाव परिणामों ने उसकी दुर्गति की झलक दिखा दी। भाजपा के साथ इसकी तुलना करके देखें तो कांग्रेस- जो जनवरी 1990 तक बिहार विधानसभा में पूर्ण बहुमत प्राप्त थी- का पतन साफ दिखाई देने लगेगा। विधानसभा में भाजपा की अब 55 सीटें हैं जबकि कांग्रेस 55 चुनाव क्षेत्रों में अपने उम्मीदवार नहीं उतार सकी। और पार्टी को वास्तव में जितनी सीटें मिली हैं वह संख्या बताकर अब मैं उसे और शर्मिन्दा नहीं करूंगा, यह दो अंक का आंकड़ा भी नहीं छू सकी है। पतन की यह कथा लगभग एक साल पहले लिखी गई थी। यह जानकर कि बिहार विधानसभा चुनाव आने वाले हैं, कांग्रेस ने बिहार की रपट पर चर्चा की। निष्कर्ष नितांत साफ था: बिहार में लालू समर्थक वोटों से ज्यादा लालू विरोधी वोट हैं। अगर चुनावी लड़ाई ध्रुवीय आधार पर संचालित हो तो राजद के सत्ता में लौटने के आसार बहुत धुंधले ही हैं। और यही हश्र उस दल का भी होगा जो इतना मूर्ख होगा कि लालू यादव के समर्थक के रूप में दिखाई देगा।कांग्रेस की समस्या यही थी कि वह खुलेआम लालू यादव को दूर छिटक देना गवारा नहीं कर सकती थी। उनके लोकसभा में 24 सांसद हैं, अगर वाम मोर्चे और समाजवादी पार्टी को भी उनके साथ जोड़ दें तो कांग्रेस उनकी दया पर ही आश्रित रहेगी। खुलकर लालू से अलग जाने से बचते हुए और साथ ही बिहार में अपने खोए जनाधार को संभालने के लिए कांग्रेस को रामविलास पासवान का प्रयोग करने की बात सूझी। यह एक सीधी-साधी व्यवस्था थी, पासवान हर जगह राजद से लड़ेंगे लेकिन कहीं भी कांग्रेस का विरोध नहीं करेंगे। जीत के लिए यह व्यवस्था बहुत ठोस दिखाई थी। लालू यादव का कद भी छोटा हो जाएगा और राजग पटना में सत्ता तक नहीं पहुंच पाएगी। चुनाव के नतीजों ने कांग्रेस का सारा गणित उलटा कर दिया। लालू यादव पटखनी खा गए मगर कांग्रेस उनके इतने निकट खड़ी देखी गई कि राजद के साथ उसका भी बंटाधार हो गया। राजग, जो 9 माह पहले के लोकसभा नतीजों को देखते हुए सिमट जानी चाहिए थी, ने अपनी ताकत बढ़ा ली। पासवान थोड़ी लाज बजा पाए, जिनके 29 विधायकों ने राजग के खिलाफ संतुलन को थोड़ा डगमगाया।पासवान थोड़ी दुविधा में रहे। वह पार्टी के संचालक नहीं थे बल्कि उन व्यक्तियों के अस्थायी मुखिया थे जिनमें एक ही बात साझा थी कि वे सब लालू यादव के विरुद्ध थे। (उनमें से अनेक भूमिहार थे यानी उस जाति के जो लालू यादव की कट्टर विरोधी है।) बाकी तो अब इतिहास है। लालू यादव ने राष्ट्रपति शासन का दबाव डाला ताकि पासवान का अपमान हो और नीतीश पटना में सरकार न बना पाएं। वाममोर्चे को भी लालू यादव के समर्थन में उतरते देख कांग्रेस के पास हामी भरने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। इससे अनजाने ही बिहार के उन मतदाताओं के मन में कांग्रेस की राजद के और निकट जाने की छवि बनी जो राजद प्रमुख और उनके परिवार के खिलाफ थे। बहरहाल, इससे कांग्रेस की असली मुश्किल दूर नहीं हुई कि वह कैसे उन राज्यों में अपनी गति सुधारे जहां उसकी हालत जर्जर हो चली है। उ.प्र. देश का सबसे बड़ा राज्य है, वहां कांग्रेस लगभग समाप्त है। महाराष्ट्र भारत का दूसरा सबसे बड़ा राज्य है, वहां कांग्रेसी मुख्यमंत्री शरद पवार की दया पर टिका है। प. बंगाल और आंध्र प्रदेश दोनों लोकसभा में 42-42 सांसद भेजते हैं, बंगाल में तो 1977 से ही कांग्रेस सत्ता से बाहर है और आंध्र में एक दशक तक भूली-बिसरी रहने के बाद हाल में ही सत्ता में लौटी है। 39 लोकसभा सीटों वाले तमिलनाडु में 1967 के बाद से ही कांग्रेस का मुख्यमंत्री नहीं रहा है। राजस्थान और मध्य प्रदेश में भाजपा है और उड़ीसा में बीजद-भाजपा गठबंधन का दूसरा कार्यकाल चल रहा है। कर्नाटक में कांग्रेसी मुख्यमंत्री है पर देवेगौड़ा के कारण उसकी दशा महाराष्ट्र के उसके सहयोगी से भी बदतर है। केरल में सन् 2006 में कांग्रेस हारने को पूरी तरह तैयार है।जरा भारत के नक्शे पर नजर दौड़ाएं। उन राज्यों को ढूंढें जो लोकसभा में कम से कम 20 सांसद भेजते हैं। उनमें से कितने राज्यों में कांग्रेस अपने बूते सरकार बना पाने की स्थिति में है? इस सवाल के जवाब में सोनिया गांधी ने कहा था कि सहयोगियों को साथ जोड़ेंगे। लेकिन कांग्रेस को तो गठबंधन का पहला सबक भी अभी पता नहीं है कि अपने सहयोगियों को कमजोर करके आप अपनी ताकत नहीं बढ़ा सकते। कांग्रेस ने चतुराई दिखाते हुए लालू यादव को कमजोर करके खोया आधार पाने की कोशिश की। ऐसा करते हुए इसने लालू विरोधी ताकतों के मन में यह बात बैठा दी कि मुक्ति केवल राजग के जरिए मिल सकती है। आज कांग्रेस न घर की है, न घाट की। यह ऐसे सहयोगियों के बीच फंसी है जिन्हें न छोड़ सकती है, न गले लगा सकती है। सहयोगियों को कमजोर करके अपनी ताकत बढ़ाने के चक्कर में इसने बिहार नीतीश कुमार के हाथों सौंप दिया है। इसमें शक नहीं है कि नए मुख्यमंत्री निवास में गुलदस्तों का बाढ़ लग गई होगी। क्या नीतीश को उनमें से कुछ गुलदस्ते उस महिला यानी सोनिया गांधी को नहीं भेज देने चाहिए जिसके कारण यह सब संभव हुआ है?(24.11.2005)NEWS

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