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हिन्दूभूमि

by
Apr 9, 2005, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 09 Apr 2005 00:00:00

बौद्ध दर्शन का सारसुरेश सोनीसुरेश सोनीअति कामोमपभोग तथा शरीर पीड़न की दो अतियों पर न जाते हुए उपर्युक्त मध्यम मार्ग आष्टांगिक मार्ग का अनुसरण मनुष्य को निर्वाण की ओर ले जाता है।आगे चलकर बौद्ध मत के माध्यमिक, योगाचार, सौत्रान्तिक, वैभाषिक आदि सम्प्रदाय बने तथा नागार्जुन, दिङ्नाग, वसुबन्ध, शांतिरक्षित आदि अनेक आचार्य हुए, जिन्होंने दर्शन शास्त्र के जटिल सिद्धान्तों की रचना की। परन्तु सबका मूल आधार यह प्रतीत्य समुत्पाद सिद्धान्त ही रहा।प्रतीत्य समुत्पाद एवं आधुनिक विज्ञान – आधुनिक विज्ञान की एक धारा धीरे-धीरे बुद्ध प्रतिपादित प्रतीत्य समुत्पाद के निकट जा रही है। आधुनिक विज्ञान ब्राह्माण्ड के सत्य को खोजने की दिशा में इसका बिÏल्डग ब्लाक क्या है? यह खोजते हुए आगे बढ़ा। उसने पहले कल्पना की कि 92 तत्व हैं। जिनसे जगत् बना है। आगे कहा गया कि तत्व परमाणु से बने हैं और आज परमाणु भी 200 से अधिक कणों का समुच्चय हैं और ये कण क्या हैं जानना कठिन है। ऐसी अवस्था में अंतिम कण जान नहीं सकते। तब जगत् की पहेली हल करने के लिए एक नया सिद्धान्त ज्योफ्रीच्वे आदि वैज्ञानिकों ने दिया है जिसे ऽमेट्रिक्स थ्योरी या बूटस्ट्रेप थ्योरी कहते हैं। इसके अनुसार संसार में कोई मूल कारण नहीं जो कुछ है वह घटनाओं का जाल है, जिसमें हर चीज एक-दूसरे पर निर्भर है। अत: कोई चीज अंतिम नहीं है।भगवान बुद्ध भी जगत का विश्लेषण करते समय आनन्द से कहते हैं- हे आनन्द! इस जगत् में किसी की स्वतंत्र सत्ता नहीं है, हर चीज एक-दूसरे पर आश्रित है। अत: यदि कुछ है तो वह है परस्परावलम्बी सहधर्मिता। जब हम कहते हैं रिक्तता तो उसका अर्थ किसी वस्तु से रिक्त होना होता है तथा जब हम कहते हैं पूर्णता तो उसका अर्थ किसी वस्तु से पूर्ण होना होता है। इसी प्रकार हर बात परस्परावलम्बी है।आत्मा, ईश्वर, सृष्टि आदि प्रश्नों पर भगवान बुद्ध के मौन का कारण – भगवान बुद्ध से जब कभी किसी ने आत्मा, ईश्वर, सृष्टि कब बनी आदि प्रश्न पूछे तब-तब भगवान बुद्ध मौन रहे। इसका कारण यह नहीं था कि वे उत्तर जानते नहीं थे अपितु जीवन में दु:खों से पूर्णतया मुक्ति हेतु इस प्रकार की शुष्क तत्वचर्चा का कोई अर्थ नहीं है। केवल शब्दजाल से लाभ के बजाय नुकसान होगा। अत: उन्होंने व्यर्थ शास्त्रचर्चा को हतोत्साहित किया। यह दो-तीन घटनाओं से ध्यान में आता है। सुत्तपिटक के संयुत निकाय में सिंसपासुत्त में वर्णन आता है-1. एक बार भगवान बुद्ध ने अपने हाथ में सीसम के कुछ पत्ते लिए तथा भिक्षुओं को बुलाकर उन्हें अपने हाथ के पत्ते दिखाते हुए पूछा, “हे भिक्षुओ! मेरे हाथ में जो पत्ते हैं वे अधिक हैं या सीसम के वन में जो पत्ते हैं वे अधिक हैं?”इस पर भिक्षु उत्तर देते हैं, “भगवान ने जो हाथ में पत्ते लिये हैं वे बहुत थोड़े हैं तथा ऊपर सीसम के वन में जो पत्ते हैं वह बहुत हैं।”भिक्षुओं का उत्तर सुनने के बाद भगवान् बुद्ध कहते हैं, “वैसे ही, भिक्षुओ! मैंने, जो जानते हुए भी नहीं कहा, वह बहुत है। जो कहा है वह बहुत थोड़ा है। भिक्षुओ! मैंने क्यों नहीं कहा? भिक्षुओ! वह न तो अर्थ सिद्ध करने वाला है, न ब्राह्मचर्य को साधने वाला है, न निर्वेद, न विराग, न निरोध, न उपशम, न अभिज्ञा, न सम्बोधि और न निर्वाण के लिए है। इसलिए मैंने उसे नहीं कहा है।”2. इसी प्रकार चूलमालुक्य पुत्त सुत्त में वर्णन आता है। मालुक्य पुत्त नामक भिक्षु भगवान बुद्ध के पास आया और प्रणाम कर पूछा, “भगवान् निम्न प्रश्नों का आपने उत्तर नहीं दिया है। यह जगत् शाश्वत है या अशाश्वत? शरीर और आत्मा एक हैं या भिन्न-भिन्न? तथागत के लिए मृत्यु के बाद जन्म है या नहीं? भगवान इन प्रश्नों के उत्तर देंगे, तो मैं शिष्य रहूंगा नहीं तो नहीं रहूंगा।”इस पर भगवान बुद्ध बोले- हे मालुक्य पुत्त! क्या मैंने तुम्हें कभी कहा था कि तुम मेरे शिष्य हो जाओगे तो मैं इन प्रश्नों का उत्तर दूंगा।मालुक्य पुत्त ने कहा- नहीं भगवन।भगवान् बुद्ध – अच्छा तुमने कभी मुझसे कहा था कि इन प्रश्नों का उत्तर देंगे तभी मैं भिक्षु संघ में प्रविष्ट होऊंगा?मालुक्य पुत्त – नहीं भगवन!”तो फिर अब यह कहने में क्या सार है कि इन प्रश्नों का उत्तर मिलेगा तो शिष्य रहूंगा।” इतना कह कर वे एक विलक्षण उदाहरण से अपनी बात रखते हैं।(पाक्षिक स्तम्भ)(लोकहित प्रकाशन, लखनऊ द्वारा प्रकाशित पुस्तक “हमारी सांस्कृतिक विचारधारा के मूल स्रोत” से साभार।)NEWS

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