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मूलागाभरू बरगोहाईंपूर्वाञ्चल की गजब योद्धाविपिन बिहारी पाराशरविपिन बिहारी पाराशरमूलागाभरू बरगोहाईं एक धार्मिक, पतिव्रता, साहसी और पराक्रमी महिला थी। उनके पति चाऊ फ्रांचेनमुंग बरगोहाईं अहोम राजा स्वर्गदेव चुहुंग के कुशल सेनापति एवं प्रशासक थे। मूलागाभरू ढिहिगिया राजपुत्री थीं।जब तीसरी बार युद्ध करते हुए चाऊ फ्रांचेनमुंग का राणभूमि में बलिदान हो गया तो मूलागाभरू ने महिलाओं की विशेष सेना बनायी और वीरता से प्रतिकार करते हुए बलिदान हो गयी।1527 ई. में अहोम राजा के राज का विस्तार करतोवा नदी तक था जिसे मांडलिक राज भी कहा जाता था, वही आज का अरुणाचल प्रदेश है। चन्द्रवंशी महाराज स्वर्गदेव चुहुंगदेव के आदेश पर किसी विशिष्ट घटना के कारण दरबार का आयोजन किया गया। दिल्ली के बादशाह अपने तुर्बक सेनापति के साथ असम विजय करने के लिए एक विशाल सेना भेजी थी। इस राज दरबार में सेनापति चाऊ फ्रांचेनमुंग व अन्य अधिकारी उपस्थित थे। 35 वर्षीय चन्द्रवंशी महाराज स्वर्गदेव चुहुंगदेव के राज का विस्तार करतोवा नदी से विक्षुब्ध नदी तक, जो आज की पद्मा नदी बंगलादेश में है, हो गया। टिकला ने यवन बादशाह के दूतों को महाराज के सम्मुख प्रस्तुत किया गया। बादशाह का पत्र पढ़ते-पढ़ते काक बूढ़ागोहाईं के स्वर में कठोरता आयी और सेनापति फ्रांचेनमुंग का हाथ तलवार पर गया। स्वर्गदेव ने सबको शान्त किया कि इसमें दूत का नहीं बल्कि स्वामी का दोष है। फिर स्वर्गदेव ने दूत से कहा कि वह अपने राजा से कहे कि वे आक्रमण करने की धमकी देते हैं, उनसे कहना कि कल आना हो तो आज ही आ जायें और अपनी पत्नियों से अन्तिम विदायी भी लेते आएं। असम की धरती पर आक्रमण करने वाला यहां से जीवित नहीं जायेगा। जब सेनापति फ्रांचेनमुंग बरगोहाईं से उनकी पत्नी मूलागाभरू ने चिन्ता का कारण पूछा तो फ्रांचेनमुंग ने कहा कि मूला मुगलसेना का एक (कटुकी) दूत आया था उस कटुकी ने हमारे स्वर्गदेव के अपमान की बात मुगल बादशाह की ओर से कही थी। महाराज ने उसको धिक्कारा और युद्ध की चुनौती स्वीकार कर ली। अब इस युद्ध का उत्तरदायित्व मेरे ऊपर आ गया है। इस पर मूलागाभरू आनन्दित हुई और कहा, “यवन बर्बर क्रूर जाति के दुष्ट लोग हैं। इन्हें देव मन्दिरों, आश्रमों को ध्वंस करने में आनन्द प्राप्त होता है तथा गोहत्या करना, नर-नारियों का अपहरण करके बलात्कार करना, इनका जन्मसिद्ध अधिकार है। जब तक असम में अहोम है तब तक इस यवन जाति को प्रवेश नहीं मिल सकता।” फिर मूलागाभरू ने कहा कि आप राज के सेनापति हैं और आपका दायित्व है कि लोहित नदी पर ही शत्रु को रोकें। सेनापति अपनी पत्नी की बुद्धिमता से अवाक् रह गये। गाभरू ने कहा, “मैं उपवासी रहकर आपके लिए कवच बनाऊंगी, फिर आपको पराजित करना सिद्धेश्वर के बस की भी बात नहीं होगी। अब मूलागाभरू ने उपवास रखकर भगवान से प्रार्थना की। दो दिन बाद सूचना मिली कि युद्ध में असम की सेना ने मुगलों को युद्धक्षेत्र से भगा दिया। यह प्रथम युद्ध 1527 ई. में विजयी हुआ। तुर्बक ने दूसरी बार आक्रमण किया लेकिन इस बार भी सेनापति फ्रांचेनमुंग ने मुगल सेना को पराजित किया। सन 1532 ई. में तुर्बक बंग क्षेत्र से एक विशाल सेना लेकर आया तो उसने प्रतिज्ञा की कि अब वह असम से वापस नहीं लौटेगा चाहे उसकी मृत्यु ही क्यों न हो जाये। स्वर्गदेव चुहुंग ने तीसरी बार भी अपनी सेना का नेतृत्व सेनापति फ्रांचेनमुंग को दे दिया।सेनापति का बलिदानइस बार यवनों के हाथ में नया शस्त्र था जिसे बारूदी बन्दूक कहते थे। इस बन्दूक से अहोम सैनिकों का संहार होने लगा और असमिया सैनिक भागने लगे। यह युद्ध तुर्बक की ओर से बन्दूक से किया गया जबकि अहोम सेनापति फ्रांचेनमुंग के पास तलवार, भाले, धनुष-बाण ही थे। युद्ध 12 दिन चला परन्तु निर्णायक नहीं रहा। फिर भी अहोम सेनापति फ्रांचेनमुंग बरगोहाईं सेना को गति प्रदान करते हुए युद्ध कर रहा था कि अचानक बन्दूक की एक गोली सेनापति के सीने में लग गयी, दूसरी गोली कनपटी पर लगी। “हाय मूलागाभरू” करके वह घोड़े से गिर कर बलिदान हो गये। सरदार सेनापति की मृत्यु के बाद असमिया सेना भाग खड़ी हुई।काल बन कर टूट पड़ी मूलाअपने पति की मृत्यु के बाद सैनिक वेष में मूलागाभरू सखियों को सैनिक वेष धारण कराकर घोड़ों पर सवार होकर राजमहल गडगाव में पहुंची और महाराज स्वर्गदेव चुहुंगदेव से साक्षात्कार के लिए प्रवेश किया तो महाराज ने मूलागाभरू से कहा, “हमें बहुत दु:ख है मूला लेकिन हम पुन: शत्रु पर आक्रमण करेंगे।” मूला बोली, “मैं अपने पतिदेव के रिक्त स्थान को पूर्ण करने के लिए आयी हूं।” इस पर महाराज ने कहा, “हमारे देश की रणभूमि में महिलाओं को स्थान नहीं है। हम अभी भी जीवित हैं हमें लज्जित मत करो।”इधर मुगल सेनापति तुर्बक ऐसे बढ़ रहा था जैसे ब्राह्मपुत्र नदी पार कर राजधानी पर आक्रमण कर देगा। तुर्बक को रोकने के लिए कानचेन बूढ़ागोहाईं ने रात्रि में सेना की भर्ती शुरू कर दी। मूलागाभरू अपनी 2000 महिला वाहिनी के साथ युद्ध स्थान पर आ पहुंची और अपनी नागिन हथिनी पर सवार होकर सैनिकों से चण्डी की तरह भयंकर युद्ध करने लगी। स्थिति भयानक देख मुगल सेना भागने लगी। मुगल सेनापति तुर्बक ने सेना को गोली चलाने का आदेश दिया, “उस शैतान लड़की को गोली मार दो। वह बहुत जालिम है और हमारे मुगलों का मार-मार कर ढेर लगा रही है।” उधर कानचेन गोहाईं चुने हुए तीरन्दाजों को लेकर पीछे गए और मारकाट शुरू कर दी। गोलियों से मूलागाभरू का शरीर छलनी हो गया और अपनी नागिन हथिनी से गिर पड़ी। एक तीर तुर्बक के सीने में भी लगा और दूसरे तीर ने उसका कण्ठ विच्छेद कर दिया। देश के लिए बलिदान होने वालों की यही गति होती है। अब न मूलागाभरू है और न ही अहोम राज, फिर भी असम की धरती पर खड़ा शिलाखण्ड उनका स्मरण कराता है।NEWS
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