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हर पखवाड़े स्त्रियों का अपना स्तम्भ”अन्तरजातीय प्रेम विवाह और हिन्दू समाज?”आमंत्रित बहस की द्वितीय कड़ीरुढ़ियों के विरुद्ध सुधार आन्दोलन की प्रतीक्षाकैलाश मित्तलकैलाश मित्तलहमारी परम्परा में रक्त- सम्बन्ध के रिश्तों में विवाह को निषिद्ध किया गया है। आज का विज्ञान भी इसे मान्यता देता है। विवाह तो जन्म जन्म का बन्धन है और इसके लिए परस्पर आत्मीयता, समर्पण और प्रेम जरूरी है न कि जाति। विभिन्न हिन्दू जातियों में आज स्त्री-पुरुष का संख्यात्मक संतुलन भी डगमगा गया है, ऐसे में अन्तरजातीय विवाह तो होंगे ही। भारतीय संविधान भी विवाह के लिए केवल वयस्क होना आवश्यक मानता है। अन्तरजातीय प्रेम विवाह कहीं से भी धर्मविरोधी नहीं हैं। बहस का बिन्दु अन्तरजातीय मुद्दे न होकर केवल यह होना चाहिए कि स्त्री-पुरुष किस प्रकार एक संस्कारित जीवन व्यतीत कर सकते हैं। जबरदस्ती किसी पर विवाह थोपना अनुचित है। आज की जिन्दगी में यदि पति-पत्नी का पारस्परिक समन्वय ठीक नहीं रहता है तो इसका बुरा प्रभाव वैवाहिक जीवन और बच्चों के भविष्य पर पड़ता है। इसलिए जरूरी है कि विवाह पूर्व लड़के व लड़की एक-दूसरे के मनोभावों-इच्छाओं को भलीभांति समझ लें। किसी को अन्तरजातीय प्रेम विवाह के कारण मार देने या पूरे परिवार द्वारा आत्महत्या कर लेने की घटनाएं केवल हमारी ओछी मानसिकता को उजागर करती हैं।आज जरूरत है राजा राम मोहन राय जैसे महापुरुषों और समाज-सुधारकों की, जो समाज की रूढ़ियों को तोड़कर एक नए उजाले की ओर सभी को ले चलें। हमें स्त्री को वही सम्मान देना सीखना होगा जो हम एक देवी या भगवती माता को अपनी दैनिक गतिविधियों में देते आ रहे हैं। हिन्दू समाज में स्त्री के प्रति लोक व्यवहार में प्रचलित दृष्टिकोण उसकी शाश्वत परम्परा से मेल नहीं खाता। आज भी दहेज हत्या, भ्रूण हत्या, प्रेम विवाह के चलते हत्याओं का दौर जारी है। इसे रोकने में जल्दी होनी चाहिए, अन्यथा हमें इसके परिणाम भी भुगतने होंगे।कैलाश मित्तलप्रताप सागर कालोनी,NEWS
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