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कहां गए तालाब?राकेश उपाध्यायअंधाधुंध विकास के नाम पर जीवन के लिए जरूरी पानी जैसे प्राकृतिक वरदान की गत 56 वर्षों से लगातार उपेक्षा का परिणाम है यह जल संकट। यह मानना है देश के पर्यावरणविदों का। प्रसिद्ध पर्यावरणविद् सविता गोखले का कहना है कि आज जल के परंपरागत स्रोतों और जलसंरक्षण की प्राचीन परंपराओं की भयानक उपेक्षा हो रही है। जल विशेषज्ञ अनुपम मिश्र के अनुसार, “प्राचीन परम्पराओं के कारण ही देश के उत्तर-दक्षिण, पूरब-पश्चिम हर हिस्से में सैकड़ों तालाब देखने को मिल जाते थे।”लेकिन आज हालत क्या है? सरकार को दिल्ली में जमीन के नीचे मेट्रो रेल बिछाने के लिए हजारों करोड़ रु. खर्चने में मिनट नहीं लगता, लेकिन दिल्ली की जमीन के नीचे निरंतर घट रहे जल स्तर की चिंता शायद उसे नहीं है। इसके परिणाम भी अब देखने को मिल रहे हैं। आखिर उधार की जिन्दगी कब तक चलेगी? जल स्रोत जो भी थे, सूख चले या प्रदूषित हो गए। दिल्ली को अब पड़ोसी राज्यों पर पानी के लिए निर्भर रहना पड़ रहा है। सन् 1987 की राष्ट्रीय जलनीति में पानी को महत्वपूर्ण और दुर्लभ सम्पदा माना गया था। अभी हाल ही में 11 मई, 2005 को राष्ट्रीय जल सम्मेलन में राष्ट्रपति डा. ए.पी.जे.अब्दुल कलाम ने पानी के बारे में अपनी चिंताएं प्रकट कीं। लेकिन अभी भी राष्ट्रीय स्तर पर “जल संरक्षण” के बारे में कोई ठोस नीति बनती नहीं दिख रही है। विशेषकर तालाब, कुंए और पोखरों के बारे में तो कोई नीति कहीं दिखती ही नहीं है। केन्द्रीय जल संसाधन मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि मात्र दो दशक पूर्व ही भारत में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन औसत पानी की उपलब्धता चार हजार घन मीटर थी और इन बीस वर्षों में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन औसत पानी की उपलब्धता दो दशक पूर्व के 4000 घन मीटर से घटकर आज लगभग 1800 घन मीटर पर आ गई है। अगर शीघ्र ही जल संरक्षण के उपाय तेज न किए गए तो अगले दो दशकों में यह आंकड़ा घटकर 1000 घन मीटर पर आने वाला है। यानी पानी तो लगातार घट रहा है और जनसंख्या निरंतर बढ़ रही है। कैसे जिएंगे लोग, कभी सोचा है किसी ने?राकेश उपाध्यायNEWS
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