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प्रस्तुति : अरुण कुमार सिंहइधर गर्मी ने सारे रिकार्ड तोड़ डाले हैं तो उधर पानी की बूंद तक के दर्शन दुर्लभ होते जा रहे हैं। पूरा देश इस दोहरी मार से त्रस्त है। पानी के लिए हाहाकार मचा हुआ है। राजस्थान के मरुस्थली इलाके हों या प्रति वर्ष बाढ़ से उजड़ने वाले बिहार के गांव, हर जगह से पानी नदारद है। राजधानी दिल्ली में तो लोग रात-रात भर जगकर नलों में से पानी के टपकने का इन्तजार करते हैं, फिर भी उन्हें बमुश्किल एकाध बाल्टी पानी मिल पा रहा है। पानी के अभाव में धरती फट रही है और पशुओं को चारा तक नसीब नहीं है। आखिर यह स्थिति क्यों आई? इसके लिए दोषी कौन है- व्यवस्था, जनता या प्रकृति? जल संकट का स्थाई समाधान क्या है? ऐसे ही कुछ विषयों पर पाञ्चजन्य ने राजस्थान के सैकड़ों गांवों में जल धारा प्रवाहित करने वाली स्वयंसेवी संस्था तरुण भारत संघ के सचिव और मैग्सायसाय पुरस्कार विजेता श्री राजेन्द्र सिंह तथा प्रसिद्ध जल विशेषज्ञ श्री अनुपम मिश्र से बात की। यहां प्रस्तुत हैं इन विशेषज्ञों के विचार-जल संकट के लिएजनता से ज्यादा व्यवस्था दोषी-अनुपम मिश्रजल विशेषज्ञ एवं पर्यावरणविद्हमारे देश की सरकारें आग लगने पर कुआं खोदना चाहती हैं। इसलिए कभी नदी जोड़ो, तो कभी नदी तोड़ो जैसी योजनाएं आती हैं। नदी तोड़ो का मतलब है- नहर बनाकर कभी इसको जल दो तो कभी उसको। इस मानसिकता के कारण हमारे समाज में जल संरक्षण पर कभी कोई स्वस्थ बहस नहीं हो पाती है। पिछले दौर में हमने देखा कि राजग सरकार के समय नदी जोड़ो परियोजना बहुत उत्साह के साथ बनाई गई थी, जबकि हमारे पास पानी इकट्ठा करने के अच्छे व्यावहारिक और स्वदेशी तरीके मौजूद हैं। वर्तमान सरकार ने भी उस खर्चीली और अव्यावहारिक योजना को अभी तक खारिज नहीं किया है, क्योंकि उसके सामने भी वैसी ही परिस्थिति बनी हुई है।दूसरी ओर काबिले तारीफ बात यह है कि अलवर जैसे कम पानी के इलाके में श्री राजेन्द्र सिंह ने तरुण भारत संघ के माध्यम से काम करके पूरे देश और दुनिया को यह बताया है कि हम बहुत कम खर्च में लोगों के साथ मिल कर पानी के संकट को दूर कर सकते हैं। किन्तु उनकी इस योजना से कोई कुछ सीख नहीं ले रहा है। जल संकट और उसका समाधान कोई नई बात नहीं है। जल संकट का समाधान तो हमारे समाज के चिंतन में गहरे पैठा हुआ है। किन्तु हम उसको मान्यता नहीं देते। मुझे तो लगता है कि जल संकट को दूर करने के लिए जो व्यावहारिक और सस्ते तरीके हैं, वे सरकारों को पसन्द नहीं आते। सरकारों को लगता है कि लोग यदि कुएं, तालाब आदि बना लेंगे तो फिर सिंचाई विभाग और उसके मार्फत चल रही करोड़ों, अरबों रुपए की योजनाओं का क्या होगा?अब तो गर्मी ही नहीं, सर्दी के दिनों में भी पानी की समस्या होने लगी है। उल्लेखनीय है कि प्रकृति हर जगह एक समान पानी नहीं गिराती है। सरकारों को लगता है कि कहीं ज्यादा पानी गिरता है तो वहां का पानी कम पानी वाले इलाकों में ले जाकर विकास कर लेंगे। किन्तु प्रकृति इसकी इजाजत नहीं देती। यदि कोई सरकार इस तरह की खर्चीली योजना बना भी लेगी तो वह निरापद नहीं होगी। उससे कई तरह के नुकसान सामने आएंगे।अभी सबसे कम पानी गिरता है जैसलमेर में, किन्तु कभी वहां हर घर में पानी का इन्तजाम था। इसका अर्थ है कि पानी का इन्तजाम कैसा होगा, इसका निर्धारण मनुष्य नहीं प्रकृति करती है। पहले राजस्थान के लोग तरबूज, बाजरा, मक्का आदि की खेती करते थे, जिनमें पानी की मांग कम होती है। पर विकास की एक चमकीली धमक से सरकारें अंधी हो गई हैं और उन्हें लगता है कि राजस्थान में भी गेहूं, धान पैदा करो, तभी विकास होगा। इसके लिए आपको ज्यादा पानी चाहिए, फिर आप राजस्थान नहर बनाइए, फिर पंजाब के साथ झगड़ा कीजिए। कांग्रेस शासित दिल्ली को कांग्रेस की ही तर्ज पर उत्तर प्रदेश ने पहले पानी देने से मना किया था। ठीक उसी तरह जिस तरह पंजाब ने राजस्थान और हरियाणा को पानी देने से मना कर दिया था। जल संकट के लिए जनता से ज्यादा दोषी व्यवस्था है, क्योंकि व्यवस्था ने जनता के सारे अधिकार छीन लिए हैं। जल संकट को दूर करने का तरीका यह है कि वर्षा जल का संरक्षण किया जाए और प्रकृति जितनी छूट देती है, उतनी ही खेती की जाए, क्योंकि कहां कौन-सी खेती होगी, यह प्रकृति तय करती है। भाखड़ा बांध बनने के बाद पंजाब में धान और गेहूं की फसल हो रही है। इसलिए जिस दिन भाखड़ा नहीं रहेगा उस दिन पंजाब से धान और गेहूं की फसल भी चली जाएगी। पूरे देश में अनेक लोग हैं, जो पानी के लिए काम कर रहे हैं, किन्तु सरकारों को वे लोग पसन्द नहीं हैं। इसलिए उनके कामों में तरह-तरह की अड़चनें डाली जाती हैं। मेरा मानना है कि पानी के लिए काम करने वाले लोगों के प्रति सरकार का रवैया निष्पक्ष और उदार है। हर जगह राजनीति न की जाए। यदि ऐसा हुआ तो निश्चित रूप से सुखद परिणाम निकलेंगे।NEWS
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