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मोदी का वीसाखुश है ईसाई-वामपंथी”मानवाधिकारवादी” गठजोड़क्या कभी आपने टेलीविजन पर क्रिकेट मैच के दौरान किसी विशेषज्ञ के टिप्पणी करने के अंदाज पर गौर किया है? बड़े सरसरी तौर पर वह बताता है कि बल्लेबाज किस तरह “क्रीज” पर ठोस दीवार की तरह जमकर खेल रहा है, या किस तरह कोई गेंदबाज बड़ी नपी-तुली दिशा और लंबाई में गेंद फेंक रहा है, अथवा किस तरह कोई क्षेत्ररक्षक बखूबी क्षेत्ररक्षण कर रहा है मानो जोंटी रोड्स की याद ताजा कर दी? लेकिन जब वह ऐसा बोल ही रहा होता है कि तभी, कितनी ही बार, किसी बल्लेबाज की किल्ली उखड़ जाती है, गेंदबाज की गेंद पर चौक्का या छक्का जड़ जाता है या क्षेत्ररक्षक आसान सी कैच गिरा देता है! मुझे लगता है कि इसे हमें उस “विशेषज्ञ के शाप” की तरह देखना चाहिए।अमरीकी वीसा न दिए जाने के बाद अमदाबाद मेंपत्रकार वार्ता सम्बोधित करते हुए श्री नरेन्द्र मोदीकुछ इसी तरह की बीमारी में अमरीकी मीडिया जकड़ा दिखता है। जरा नजर डालिए कि वहां की दो पत्रिकाओं ने क्या छापा और उसके तुरंत बाद वास्तव में क्या घटा। “न्यूजवीक” ने अपने 28 फरवरी अंक में सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह पर आवरण कथा छापी थी। उसका शीर्षक था- “टीम प्लेयर्स: हाउ इंडियाज ऑड कपल हेव मेड पावर शेयरिंग वर्क” (दल खिलाड़ी : भारत के बेमेल जोड़े ने किस तरह सत्ता की साझेदारी को कारगर कर दिखाया)। इसने कितने ही भीने-भीने उदाहरण दिए कि किस तरह कांग्रेस की राजनीति और शासन तंत्र दोनों मिल-जुलकर बढ़िया काम कर रहे हैं। इससे पहले कि पत्रिका का अगला अंक बाजार में आता, झारखण्ड में छीछालेदर- जिसने संप्रग की अध्यक्षा सोनिया गांधी और उनके द्वारा मनोनीत प्रधानमंत्री, दोनों की मजबूरियां उजागर कर दीं- पूरे रंग में थी।अपने प्रतिद्वन्द्वी से सबक न सीखते हुए “टाइम” ने 28 मार्च के अपने अंक में भारत से जुड़ी दो रपटें छापीं। पहली थी- “इन्वेÏस्टग : इन्वेस्टर्स आर इंक्रीजिंगली गिड्डी विद द इंडियन स्टाक मार्केट” (निवेश: निवेशक भारतीय शेयर बाजार के प्रति हकबकाए जा रहे हैं)। अभी यह अंक बाजार में पहुंचा ही था कि बी.एस.ई. लगभग 120 प्वाइंट खो बैठा। दूसरी रपट का शीर्षक था- “ए वेलकम गेस्ट” (एक अच्छा मेहमान), और इसमें था कि कैसे अमरीकी विदेश मंत्री कोंडालिसा राइस ने अपने एशियाई मेजबानों का दिल जीत लिया। इसके तुरंत बाद ही अमरीका द्वारा नरेन्द्र मोदी को वीसा न दिए जाने की खबर आ गई…।क्या मैं ही अकेला ऐसा इंसान हूं जो सोचता हूं कि नरेन्द्र मोदी को वीसा से मना करने का अमरीकी मुद्दा, “कोई मुद्दा ही नहीं” है? इस पर मची ज्यादतर हायतौबा थोड़ी ऐसी लगी मानो सोच-समझकर आयोजित की गई थी। आखिर इस प्रकरण का राजनीतिक लाभ किसने नहीं उठाया? नरेन्द्र मोदी बलिदानी बाना पहनने में सफल रहे। वाम मोर्चा और कांग्रेस अमरीका को लताड़ने के अपने पुराने शगल में खुशी-खुशी लौट गए। (किसने कल्पना की थी कि ऐसा भी दिन आएगा जब ज्योति बसु गुजरात के मुख्यमंत्री के समर्थन में बयान जारी करेंगे?) यहां तक कि अमरीका में रूढ़िवादी ईसाई और वामपंथी “मानवाधिकारी” गुट- एक असंभावित गठजोड़-भी बेहद खुश है। अगर भाजपा में मौजूद मोदी-विरोधी गुट को भूल जाएं, तो सभी के लिए यह बड़ी सुखद परिस्थिति दिखती है।लेकिन मेरे दिमाग में कहीं एक भय भी मंडरा रहा है। क्या अमरीका ने यह कदम सोच-समझकर उठाया था या यूं ही किसी सनक की धुन थी? अगर बाद वाली आशंका सही है तो मुझे थोड़ी चिंता होगी, क्योंकि अमरीका और भारत को एक-दूसरे की जरूरत है। यह विश्व के दो बड़े लोकतंत्रों को लेकर की जाने वाली भावनात्मक बातों के कारण नहीं बल्कि इसके शुद्ध रूप से रणनीतिक कारण हैं। बड़े शर्म की बात है कि ये दोनों देश एक-दूसरे के बारे में इतना कम जानते हैं। हेनरी किसिंजर ने एक बार कहा था कि भारत और अमरीका उस शादीशुदा जोड़े की तरह हैं जो साथ भी नहीं रह सकते, पर तलाक से भी डरते हैं। 30 साल में कुछ बदल गया है क्या? हमारे साथ थोड़ी-बहुत समस्या तो मीडिया की भी है। भारत और अमरीका, दो देश जो क्षेत्रफल और आबादी के लिहाज से अपने आप में लघु-महाद्वीप जैसे हैं, के समाचार इकट्ठे करने में हम पर्याप्त संसाधनों को जुटाते ही नहीं हैं। और जब हम इन दोनों देशों के समाचार इकट्ठे करते भी हैं- जो या तो चुनाव के समय होते हैं या किसी आपदा के समय- तो दोनों ही पक्ष बड़े शहरों से परे देखते ही नहीं हैं।इससे एक खास तरह के झुकाव वाली खबरें ही निकलकर आती हैं। मुझे याद है, कितनी ही खबरें आती थीं कि नवम्बर 2004 के चुनावों में जार्ज बुश हारने वाले हैं। आप मानें या न मानें, यह सही रिपोर्टिंग थी! कैसे? क्योंकि ज्यादातर विदेशी पत्रकारों के पास न समय होता है, न पैसा और न ही इतनी ताकत कि शहरों से बाहर भी कुछ देखें। और न्यूयार्क, शिकागो, वाशिंगटन, लास एंजिल्स, सान फ्रांसिस्को और बाकी जगहों ने बुश के विरुद्ध बढ़-चढ़कर वोट डाला था।वास्तव में, भारत में अमरीकी रिपोर्टिंग इसी की हूबहू नकल ही है। उनके संवाददाताओं ने आमतौर पर पढ़े- लिखे, अंग्रेजी बोलने वाले बड़े शहरों के भारतीयों, ऐसा वर्ग जो भाजपा के पक्ष का है, से ही बात की थी। (यह चुनाव के बाद के सर्वेक्षण की जानकारी है न कि मेरा तथ्यपरक दृष्टिकोण!) वाजपेयी सरकार के गिरने पर अगर विदेशी पर्यवेक्षक स्तब्ध रह गए थे तो उसमें खास आश्चर्य की बात नहीं थी।पत्रकारिता की भूलें घातक नहीं हैं। लेकिन राजनयिकों और लोकसेवकों को जनता माफ नहीं करती। भारत और अमरीका के सुरक्षा और आर्थिक हित इतने अधिक और सांझे हैं कि एक-दूसरे से अनजान बने रहने में किसी की भलाई नहीं है। हमें अपने दिमाग से अमरीका की “लालची पूंजीवादियों और साम्राज्यवादियों” के समूह वाली छवि निकाल देनी होगी। उन्हें भी अपने मन में बनाई कुछ कल्पना-कृतियों से खुद को मुक्त करना होगा। नहीं तो ज्यादा दिन नहीं बीतेंगे कि “टाइम” जार्ज बुश की भारत यात्रा पर “अनवैलकम गेस्ट” (अनचाहा मेहमान) शीर्षक से कोई लेख छापने का फैसला कर लेगी। वैसे यह “विशेषज्ञ के शाप” के संदर्भ में कोई इतनी बुरी बात नहीं होगी! (23.3.2005)NEWS
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