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न्याय दर्शनसुरेश सोनीवैदिक परम्परा के प्रसिद्ध षड्दर्शनों में से एक न्याय दर्शन है। न्याय शब्द की व्युत्पत्ति है- “नीयते विवक्षितार्थ अनेन इति न्याय:” अर्थात् जिस साधन से हम अपने विवक्षित (जिसे जानना है) तत्व के पास पहुंच जाते हैं, उसे जान पाते हैं वह साधन ही न्याय है।न्याय दर्शन के आदि प्रवत्र्तक महर्षि गौतम हुए। मूल न्यायसूत्र उनके द्वारा बनाया गया है, आगे चलकर जिस पर वात्स्यायन ने न्याय भाष्य लिखा। इसके अतिरिक्त उद्योतकर, वाचस्पति तथा उदयनाचार्य के भी इस पर भाष्य, वार्तिक तथा टीकायें मिलती हैं। यह सारा साहित्य प्राचीन न्याय कहलाता है।न्याय दर्शन के अनुसार मानव जीवन का चरम लक्ष्य नि:श्रेयस प्राप्ति है। इस हेतु 16 पदार्थों को तत्वज्ञान प्राप्ति का साधन माना गया। ये साधन मनुष्य की बुद्धि को तीव्र, तार्किक, विश्लेषणशील और ज्ञान की गहराई तक जाने में सक्षम बनाते हैं। ये सोलह साधन निम्न हैं-1. प्रमाण – किसी भी पदार्थ को जानने के साधन को प्रमाण कहा गया, जैसे प्रत्यक्ष प्रमाण अर्थात् जिसे हमने प्रत्यक्ष देखा है। दूसरा अनुमान अर्थात् पूर्व के अनुभव के आधार पर अनुमान लगाना। इसी प्रकार उपमान और शब्द। ये चार प्रमाण ज्ञान प्राप्ति में सहायक हैं।2. प्रमेय – प्रमाण के द्वारा जिसे हम जानना चाहते हैं वह प्रमेय कहलाता है।3. संशय – एक ही वस्तु के बारे में परस्पर विरोधी या भिन्न-भिन्न विशेषताओं का एक साथ ज्ञान संशय है।4. प्रयोजन – जिस लक्ष्य को सामने रख कर हम कोई कार्य करते हैं वह प्रयोजन कहलाता है।5. दृष्टान्त – अपनी बात सिद्ध करने के लिए दिया गया उदाहरण दृष्टान्त कहलाता है।6. सिद्धान्त – प्रमाणों के द्वारा किसी वस्तु की प्रकृति के बारे में निश्चय हो जाय तो उसे सिद्धान्त कहते हैं।7. अवयव – पदार्थ का सही अनुमान लगाने के लिए किये गये वाक्य प्रयोग अवयव कहलाते हैं। अवयव के पांच अंग हैं। जैसे-प्रतिज्ञा – पर्वत पर अग्नि है ऐसा कहा तो यह प्रतिज्ञा। परन्तु प्रश्न उठता है ऐसा कहने का आधार क्या है? इसलिए उसका कारण अर्थात् हेतु बताते हैं।हेतु – पर्वत पर धुआं है- इस कारण अनुमान लगाया। लेकिन धुआं होने से अग्नि होगी इस अनुमान का आधार क्या है? इसके उत्तर में उदाहरण देते हैं।उदाहरण – दुनिया में जहां-जहां धुआं होता है, वहां-वहां अग्नि दिखाई देती है।उपनय – चूंकि इस पर्वत पर भी ऐसा दिखाई दे रहा है।निगमन – इस प्रकार यह निष्कर्ष निकलता है कि पर्वत पर अग्नि है। इसी प्रकार अन्यान्य तथ्यों की भी सिद्धि की जाती है।8. तर्क – तत्वज्ञान की प्राप्ति हेतु अपने पक्ष के समर्थन में दी गई युक्ति तर्क है।9. निर्णय – पक्ष-विपक्ष पर निरपेक्ष भाव से विचार करने के पश्चात निश्चित धारणा करना या बनाना निर्णय है।10. वाद – तत्व के संदर्भ में पूर्वाग्रह के बिना सत्य जानने के लिए किया गया विचार-विमर्श वाद है।11. जल्प – अपने पक्ष को सही-गलत तर्कों से सिद्ध करने का प्रयत्न जल्प है।12. वितण्डा – इसमें अपना कोई लक्ष्य नहीं। बस सामने वाले की बातों को खण्डन करने की मनोवृत्ति को वितण्डा कहा जाता है। यह विशेषता आजकल माक्र्स, मैकाले, मदरसा पुत्रों में पायी जाती है।13. हेत्वाभास – कोई कार्य या अपेक्षा पूरी न होने पर यह पूरा क्यों न हो सका, इस हेतु अवास्तविक कारण बताने का प्रयत्न हेत्वाभास कहलाता है।14. छल – वक्ता के वक्तव्य को भिन्न अभिप्राय देकर प्रस्तुत करना तथा ऐसे प्रस्तुत करना कि अर्थ का अनर्थ हो जाय छल कहलाता है।15. जाति – मिथ्या उत्तर का नाम जाति है।16. निग्रहस्थान – मध्यस्थ उपयुक्त न होने पर वादी या प्रतिवादी को हटा दे इसे निग्रह-स्थान कहते हैं।उपर्युक्त 16 माध्यमों से आत्मा, परमाणुवाद, सृष्टि, प्रलय आदि के बारे में जानने का प्रयत्न करना। इस प्रक्रिया से ज्ञान-प्राप्ति पर जन्म-मृत्यु होने के कारणों का उच्छेद हो जाना ही जीवन का लक्ष्य है। यह न्याय-दर्शन का सार है।(पाक्षिक स्तम्भ)(लोकहित प्रकाशन, लखनऊ द्वारा प्रकाशित पुस्तक “हमारी सांस्कृतिक विचारधारा के मूल स्रोत” से साभार।)NEWS
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