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पुस्तक समीक्षा

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Feb 10, 2005, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 10 Feb 2005 00:00:00

मौलाना मुहम्मद अली जौहरयह कैसे देश निर्माता?शाहिद रहीममौलाना मुहम्मद अली जौहरब्रिटिश कालीन अखंड भारत के पत्रकार, लेखक, शायर, आलिम, स्वतंत्रता सेनानी और कट्टर मुस्लिम नेता मौलाना मुहम्मद अली जौहर (1871-1931) यद्यपि भारतीय राजनीति और संस्कृति के लिए संवैधानिक और समाजशास्त्रीय दोनों धरातलों पर सर्वथा अप्रासंगिक हो चुके हैं, लेकिन देश की वर्तमान संप्रग सरकार उन्हें नये सिरे से देश की मुस्लिम आबादी का राजनीतिक आदर्श बना कर प्रस्तुत कर रही है क्यों?मौलाना मुहम्मद अली जौहर की छवि निश्चित रूप से एक निर्भीक पत्रकार और बेबाक लेखक के साथ-साथ एक सर्वोत्तम स्वतंत्रता सेनानी की छवि रही है, परंतु एक राजनेता या सियासतदां के रूप में उन्हें कई कारणों से स्वतंत्र भारत की मुस्लिम आबादी का आदर्श नहीं बनाया जा सकता। इसका एक प्रमुख कारण यह है कि वह अंतत: भारत विभाजन के सूत्रधार साबित हुए हैं।लेकिन विडंबना यह है कि देश की शीर्षस्थ साहित्य संस्था “साहित्य अकादमी” ने मौलाना को “हिन्दुस्थानी साहित्य का निर्माता” बनाकर प्रस्तुत किया है। उर्दू में मौलाना के जीवन और कृतियों पर आधारित शोध लेख, जामिया मिलिया इस्लामिया में उर्दू विभाग के रीडर शहजाद अंजुम ने तैयार किया है। 127 पृष्ठों की उक्त पुस्तक में मौलाना के राजनीतिक दृष्टिकोण पर विशेष प्रकाश डाला गया है, जिससे स्पष्ट होता है कि मौलाना आजादी के बाद मुस्लिम प्रभुत्व की सरकार बनाना चाहते थे, फिर उनके इस दृष्टिकोण को “भारत निर्माण” का मूल स्रोत भी सिद्ध किया गया है। मौलाना की पंक्ति है- “जो लोग सियासत से मजहब को अलग करते हैं, वह मजहब का गलत तसव्वुर रखते हैं। मजहब अकीदा (आस्था) या रसूम (परम्परा) तक महदूद नहीं-जहां तक खुदा के एहकाम का तआल्लुक है, मैं पहले मुसलमान हूं, बाद में मुसलमान हूं, आखिर में मुसलमान हूं-लेकिन जब हिन्दुस्थान की आजादी का मसला आता है, तो मैं हिन्दुस्थानी हूं। मेरे दो दायरे (परिधि) हैं, जो बराबर हैं, एक दूसरे से भिन्न नहीं हैं”। (हिन्दुस्थानी अदब के मे”मार-मौलाना मुहम्मद अली जौहर-पृ.-31)पुस्तक का नाम – मौलाना मुहम्मद अली जौहरलेखक – शहजाद अंजुमपृष्ठ – 127, मूल्य – 25 रुपएप्रकाशक – साहित्य अकादमी,रवीन्द्र भवन, नई दिल्ली-1साहित्य अकादमी के अध्यक्ष प्रोफेसर गोपीचंद नारंग स्वयं कहते हैं, “मौलाना मुहम्मद अली की रूह मुजाहिद की थी। (पृ.-70)। प्रोफेसर नारंग बिल्कुल सही फरमाते हैं। परंतु “ऐसे मुजाहिद” को “भारत निर्माता” के रूप में प्रस्तुत करते हुए प्रोफेसर नारंग का क्या उद्देश्य रहा है? क्या नारंग चाहते हैं कि हिन्दुस्थान की वर्तमान मुस्लिम आबादी उन्हीं की तरह मुजाहिद बन जाए और यहां जिहाद शुरू कर दे? लेकिन ऐसा जिहाद स्वतंत्र भारत की 83 करोड़ आबादी को मंजूर नहीं होगा।मौलाना मुहम्मद अली जौहर 10 दिसम्बर, 1871 ई. को रामपुर, उत्तर प्रदेश में जन्मे। उनके पूर्वज हयातुल्ला खां पेशावर के आस-पास “यूसुफजई” कबीले के थे। आजकल यह कबीला “अलकायदा-तालिबान” का प्रमुख संरक्षक है। पाकिस्तानी प्रान्त सरहद से वजीरिस्तान (अफगान सीमा) तक फैला यह कबीला पाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ के लिए भी निरंतर सिरदर्द बना हुआ है।मुहम्मद अली भी जब तक जिन्दा रहे, अंग्रेजों के लिए सिर दर्द बने रहे। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और आक्सफोर्ड में शिक्षा प्राप्त की, लेकिन आई.सी.एस. नहीं बन सके। वापस हिन्दुस्थान आए तो नवाब रामपुर और बड़ौदा की रियासत में मुलाजिम हुए। दोनों रियासतें अंग्रेजों की आधीनता में ही जीवित थीं, लेकिन मुहम्मद अली अंग्रेजों के दोस्त भी न बन सके। पत्रकारिता शुरू की, 1911 ई. में कोलकाता से साप्ताहिक “कामरेड” निकाला जो 3 नवम्बर, 1914 ई. को बन्द हो गया। मजहबी दिलो-दिमाग के मालिक थे, तबलीग-ए-इस्लाम के लिए काम करने लगे। फिरंगी महल, नागपुर ने उनके काम से खुश होकर “मौलाना” की उपाधि प्रदान की। यहीं से उन्हें राजनीतिक दृष्टिकोण प्राप्त हुआ।साहित्य अकादमी, दिल्ली ने उनकी जीवनी के केवल वही अंश छापे हैं जो उन्हें मुसलमानों का आदर्श नायक सिद्ध करते हैं। परंतु उनकी जिन्दगी के ऐसे किस्से भी हैं, जो स्वतंत्र भारत के राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में मुसलमानों के लिए 200 प्रतिशत हानिकारक और प्रतिकूल हैं।प्रथम विश्वयुद्ध की अवधि में 4 नवम्बर, 1914 को तुर्की जर्मनी के साथ इंग्लैंड के खिलाफ युद्ध में शामिल हुआ। तुर्की विश्व में “इस्लामी साम्राज्यवाद” का दूसरा बड़ा केन्द्र था। एक केन्द्र भारत पहले ही अंग्रेजों के चंगुल में फंस चुका था। 1918 ई. में तुर्की इंग्लैंड से हार गया तो अंग्रेजों ने वह केन्द्र भी तोड़ दिया। वहां का शासक “खलीफा” कहलाता था, जो पदच्युत कर दिया गया। मौलाना मुहम्मद अली ने अपने भाई शौकत अली के साथ मिलकर तुर्की के इस्लामी साम्राज्य की पुनर्बहाली के लिए उन भारतीय मुसलमानों को साथ लेकर “खिलाफत आन्दोलन” शुरू किया, जो हिन्दुओं के साथ मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे। महात्मा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने मौलाना का साथ दिया, लेकिन तुर्की का पदच्युत खलीफा सुल्तान अब्दुल माजिद भारतीय “खिलाफत आन्दोलन” की परवाह किए बिना अंग्रेजों की शरण लेकर “माल्टा” में जा बसा। मौलाना भारत से एक शिष्टमंडल लेकर सऊदी अरब गए और वहां के शासक शाह अब्दुल अजीज बिन सऊद से कहा कि तुर्की में खलीफा की गद्दी संभाल लें, परंतु शाह ने अंग्रेजों के खिलाफ कुछ करना मुनासिब नहीं समझा और मौलाना को वापस भारत भेज दिया।1921 में सऊदी से लौटकर मौलाना को मन की शांति नहीं मिली। वह “इस्लामी हुकूमत स्थापित करने के लिए बहुत बेचैन थे, खिलाफत आंदोलन अपने वेग पर था। मौलाना ने भारत को “दार-उल-हर्ब (वह देश जहां गैर मुस्लिम सरकार हो और शासक वर्ग मुसलमानों को उनके मजहब पर न चलने दे) घोषित कर दिया। फिर अफगानिस्तान के तत्कालीन शहंशाह अमानुल्लाह यूसुफजई को तार भेजकर आग्रह किया कि वह अपनी ओर से सैनिक सहायता करे, ताकि भारत को “दार-उल-इस्लाम” बनाने का लक्ष्य पूरा किया जा सके। मौलाना अब्दुलबारी ने “हिजरत” (देशान्तरण) का फतवा दिया। बड़ी संख्या में मुसलमान भारत छोड़कर अफगानिस्तान जाने लगे। लेकिन अफगानियों ने 30 से 50 हजार मुसलमानों को शरण देने के बजाय उनके माल-असबाब लूट लिए और “सरहद” (आज का पाकिस्तान का एक प्रान्त उत्तर-पश्चिमी सीमान्त प्रान्त) पहुंचते ही मार भगाया। अफगान शहंशाह ने मौलाना की सहायता याचना भी ठुकरा दी। देशान्तर में नाकाम भारतीय मुसलमान जब अफगानियों से जान बचा कर भारत आए, तो उन्हें केरल में शरण लेना पड़ी। वहां के “मोपला” मुसलमानों को भड़का कर “जिहाद” के नाम पर लूट मार शुरू कर दी, ताकि अफगानिस्तान के नुकसान की भरपाई भी हो जाए और भारत के इस्लामीकरण के आन्दोलन की शुरुआत भी। इतिहास बताता है मतान्तरण के तीन आयोजनों में उस वक्त 20 हजार हिन्दू मुसलमान बनाए गए।”खिलाफत आंदोलन” की डोर पकड़कर राजनीतिक क्षितिज में चमकने वाले मौलाना मुहम्मद अली, महात्मा गांधी से गहरे सम्पर्क के कारण कांग्रेस के मंच पर भी प्रमुखता पाते रहे। गांधी और कांग्रेसी नेता मुसलमानों को उनकी सांस्कृतिक आजादी देने के पक्ष में थे। लेकिन मौलाना जौहर गांधी और कांग्रेस को सांस्कृतिक आजादी देने के विरोधी थे। इसका प्रमाण मिला है आंध्र प्रदेश के काकीनाडा में हुए कांग्रेस अधिवेशन में। मौलाना इसकी अध्यक्षता कर रहे थे। 1905 से ही कांग्रेस का अधिवेशन “वन्देमातरम्” गायन से प्रांरभ करने की परंपरा थी। 1906 में मुस्लिम लीग का संविधान बनाते समय भी मौलाना ने वन्देमातरम् का विरोध किया था। परंतु 1923 ई. के इस कांग्रेस अधिवेशन में उस परंपरा पर मौलाना ने ही पहला राजनीतिक हमला किया। तब के प्रसिद्ध गायक विष्णु दिगम्बर “पलुस्कर” “वन्देमातरम्” गाने के लिए मंच पर खड़े ही हुए थे कि मौलाना ने सभाध्यक्ष की हैसियत से इस पर आपत्ति करते हुए कहा- “इस्लाम में संगीत वर्जित है।” सभा स्तब्ध रह गई। देशभक्त गायक पलुस्कर ने उत्तर दिया- “भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस किसी एक संप्रदाय की बपौती नहीं है, न ही यह अधिवेशन स्थल कोई मस्जिद है, जहां गाने पर प्रतिबंध लगाना पड़े।” लोग बिफर पड़े। मौलाना कांग्रेस के मंच से उतर कर चले गए। अगले दिन उन्होंने सरकार को एक पत्र लिखकर यह मांग कर दी कि “भारत के 4 करोड़ हिन्दू दलितों को मुसलमान बनाया जा चुका है, अंग्रेजी सरकार अपनी पुष्टि प्रदान करे।” 1924 ई. में मौलाना मुस्लिम लीग में शामिल हो गए और कांग्रेस से मित्रता का स्वांग भरते हुए एक दिन लीग के अधिवेशन में उन्होंने मांग प्रस्ताव पारित किया कि -“सिंधु नदी के पश्चिम का तमाम इलाका अफगानिस्तान को सौंप दिया जाए।” यानी अंत तक उनके भीतर अफगानिस्तान की अपनी पूर्वजों की मिट्टी के प्रति प्रेम शेष रहा था।गुरु रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने “टाइम्स आफ इंडिया” में एक लेख लिखकर उन्हें भारत का देशभक्त मानने से इन्कार किया था। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में मौलाना मुहम्मद अली जौहर को “हद दर्जे का मतांध” घोषित किया था। अगर संप्रग सरकार ने उन पर यह पुस्तक प्रकाशित करके भूल की है, तो इसे सुधारने के क्रम में उस पर अविलम्ब प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए। इतना ही नहीं अजीब बात यह भी है कि उन्हीं मौलाना के नाम पर देश में उर्दू विश्वविद्यालय खोलने की प्रक्रिया जारी है।NEWS

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