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पाञ्चजन्य पचास वर्ष पहले

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Feb 10, 2005, 12:00 am IST
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दिंनाक: 10 Feb 2005 00:00:00

वर्ष 10, अंक 8, सं. 2013 वि., 10 सितम्बर, 1956, मूल्य 3 आनेसम्पादक : तिलक सिंह परमारप्रकाशक – श्री राधेश्याम कपूर, राष्ट्रधर्म प्रकाशन लि., गौतमबुद्ध मार्ग, लखनऊविद्या भवन द्वारा प्रकाशित पुस्तक के नाम परमुसलमानों द्वारा भयंकर उत्पातराष्ट्रध्वज और राज्यपाल का असह्र अपमानराष्ट्रघाती तत्वों का कठोरता के साथ दमन किया जाय(सम्पादकीय)भारतीय विद्या भवन द्वारा प्रकाशित तथा उत्तर प्रदेश के राज्यपाल श्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी द्वारा सम्पादित “धार्मिक नेताओं की जीवनियां” नामक पुस्तक को लेकर उ.प्र. में स्थान-स्थान पर मुसलमानों द्वारा भीषण उत्पात तथा अशोभनीय हरकतें की गई हैं। सबसे लज्जाजनक विषय यह है कि सत्तालोलुप कतिपय हिन्दू नेताओं ने मुसलमानों की इस राष्ट्रघातक कार्यवाही में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से सहयोग प्रदान किया है।जिस पुस्तक के संबंध में आज तूमार बांधा जा रहा है वह 15 वर्ष पूर्व प्रकाशित हो चुकी है। प्रश्न यह है कि यदि पुस्तक पूर्व प्रकाशित और प्रचलित थी तो धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने का यह प्रश्न उस समय क्यों नहीं उठाया गया?यदि मुसलमानों की धार्मिक भावना को ठेस पहुंची भी थी तो क्या इस प्रकार अराजक तथा बेहूदा हरकतों द्वारा विरोध प्रकट किया जाना चाहिए था?इसके दो कारण हैं – एक तो आगामी चुनाव, जिसका उचित मूल्य प्राप्त करने के लिए मुसलमान- वे मुसलमान जिन्हें कांग्रेस ने राजनीतिक तूल का पासंग बना रखा है- पूर्व भूमिका तैयार करना चाहते हैं तथा दूसरा पाकिस्तानी एजेंटों तथा भूतपूर्व लीगियों और वर्तमान जमायत-उल-उलेमा के नेताओं द्वारा भारत विरोधी प्रचार।विद्या भवन ने उक्त पुस्तक को पुस्तक विक्रेताओं से वापस मांग लिया है किन्तु उ.प्र. सरकार पुस्तक को जब्त करने का विचार कर रही है। हम सरकार के इस कार्य की भत्र्सना करते हैं। अंत में हम सरकार से मांग करते हैं कि उत्पात करने वालों का पता लगाकर उन्हें कठोर से कठोर दंड दिया जाय, जिससे भविष्य में राष्ट्रघातक मनोवृत्तियां सर न उठा सकें।*        *        *        *        *विदेशों में गणेश पूजनकतिपय विद्वानों ने यह सिद्ध किया है कि पाश्चात्य तथा मध्य-पूर्व के कुछ देशों में कभी अन्य हिन्दू देवताओं के साथ-साथ गणेश पूजन भी प्रचलित था। किन्तु इतना तो निश्चित है कि चीन, जापान तथा दक्षिण-पूर्वी एशिया के उन देशों में, जहां हमारे साहसी पूर्वजों ने जाकर भारतीय उपनिवेश बसाए तथा राजनीतिक और सांस्कृतिक विजय के साथ-साथ वहां के धार्मिक जीवन को भी प्रभावित किया, गणेश पूजन की प्रथा वहां प्रचलित थी। इन देशों में पायी जाने वाली गणेश मूर्तियां इस बात की साक्ष्य हैं कि यहां के पूर्व निवासी गणेश पूजन करते थे।डांगडुआंग तथा मालसीन के कुछ मन्दिरों के दरवाजों पर भी गणेश जी के चित्र बने हुए हैं। इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता के रेलवे स्टेशन के बाहर काफी ऊंचाई पर श्री गणेश की वृहत्त मूर्ति रखी हुई है। जावा में अधिकांश मूर्तियां ऐसी मिलती हैं जिनमें गणेशजी चौकी पर बैठे हैं। वाली की गणेश मूर्तियों के हाथ में मशाल पाई जाती है। कम्बोडिया में गणपति की अनेक मूर्तियां प्राप्त हुई हैं। यहां गणेश जी को “केनेस” कहते हैं। ब्राहृदेश में भी इनकी प्राचीन मूर्तियां मिलती हैं। चीन में गणेश जी की अनेक मूर्तियां प्राप्त हुई हैं। मिस्र और भारत के सांस्कृतिक संबंध तो अत्यंत प्राचीनकाल से चले आ रहे हैं। अमरीका भी मंगलमय भगवान गणेश के प्रभाव से अछूता नहीं रहा है। मैक्सिको के कोपन मंदिर में भी एक गणेश मूर्ति विद्यमान थी। इस प्रकार केवल भारत ही नहीं अपितु समस्त विश्व ने श्री गणेश की महत्ता को स्वीकार किया है।NEWS

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