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अब पहल यहां से नहीं,इस्लामाबाद से होती है-जसवंत सिंहपूर्व विदेश मंत्री और राज्यसभा में विपक्ष के नेताश्री जसवंत सिंह जब बोलते हैं तो शब्द-शब्द तौलकर। विषय को गहराई से परखकर टिप्पणी करते हैं। राज्यसभा में पिछले दिनों उन्होंने एक नहीं, अनेक मुद्दों पर सत्तापक्ष को घेरा। विदेश मंत्री के नाते उन्होंने श्री अटल बिहारी वाजपेयी के मार्गदर्शन में दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों के साथ संबंधों को और गहराया था। पाञ्चजन्य ने पिछले दिनों श्री जसवंत सिंह से आसियान, पाकिस्तान, विदेश संबंध आदि पर विस्तार से चर्चा की। यहां उसी बातचीत के प्रमुख अंश प्रस्तुत हैं।-आलोक गोस्वामीआजादी के बाद 57 में से 50 साल तक तो भारत की विदेश नीति पश्चिमी देशों, खासकर अमरीका और ब्रिटेन के इर्द-गिर्द ही दिखी। जबकि भारत के निकटतम पड़ोसी दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों-थाईलैंड, म्यांमार, सिंगापुर, मलेशिया, कम्बोडिया, इंडोनेशिया आदि की ओर ध्यान ही नहीं दिया गया। आप राजग सरकार में विदेश मंत्री रहे हैं। भारत की दृष्टि से इन देशों का कितना महत्व है?स्वाधीनता से पहले पं.जवाहरलाल नेहरू ने एशियन पीपुल्स कांफ्रेंस का आयोजन किया था। फिर 1952, 1957 आदि में इसके सम्मेलन हुए। आप सही कहते हैं कि हमारी विदेश नीति का सारा ध्यान पश्चिमी देशों के साथ संबंधों को बनाए रखने में ही लगा रहा। हम अपनी ऐतिहासिक, सांस्कृतिक विरासत में झांककर देखें तो पाएंगे कि भारत ने कभी भी किसी देश पर हमला करके अपना आधिपत्य जमाने का प्रयत्न नहीं किया। परन्तु दुनिया में भारतीय विचारों का बहुत प्रसार हुआ। पश्चिमी और अरब देशों में, भारतीय विचार खूब फैले। “अल-जिब्रा” कहां से शुरू हुआ? शून्य कहां से गया? ज्योतिष शास्त्र भारत से पश्चिम में गया।मैं विदेश मंत्री के नाते उज्बेकिस्तान यात्रा के दौरान खीवा गया था। वहां लकड़ी की एक ऐतिहासिक व सुन्दर मस्जिद थी। वहां के गाइड को यह जानकर बहुत खुशी हुई कि हम हिन्दुस्थान के थे। वहां एक खंबे की ओर इशारा करते हुए हमारे गाइड ने बताया कि देखिए यह शिव की मूर्ति है। वह अनुभव अद्भुत था। यानी हमारे भारतीय मूल्यों, विचारों का कितना प्रसार था, यह पता चला।दक्षिण-पूर्व एशिया के जिन देशों के आपने नाम गिनाए हैं उनके बारे में बताऊं। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद या शायद सन् 1952 के बाद मैं भारत का पहला विदेश मंत्री था जो भारत से सड़क मार्ग से म्यांमार गया था। यह संभवत: सन् 2001 की बात है। माननीय अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी। हमने तामू से कलेवा तक सड़क बनवाई थी, जिसका उद्घाटन करना था। मैं विदेश मंत्री था। मैंने कहा कि अगर मैं मणिपुर में इस सड़क का उद्घाटन करुं और हवाई जहाज से वापस लौट आऊं, यह ठीक नहीं होगा। मैंने उसी सड़क से म्यांमार जाना तय किया। बड़ा अच्छा लगा। इतना संुदर देश है म्यांमार कि क्या कहा जाए। इसी तरह लाओस भी गया।”आसियान” (दक्षिण-पूर्व एशिया सहयोग संगठन) जब बना था, तब भारत की उसमें क्या भूमिका रही?पहले पहल जब “आसियान” बना तब उन्होंने भारत से निवेदन किया था कि वह भी इसका सदस्य बने। उस समय यहां कांग्रेस का शासन था। भारत ने “आसियान” का सदस्य बनने से मना कर दिया। हमें बड़ा विचित्र लगा था। खैर, बाद में हमें फिर निमंत्रित किया गया, जिसे हमने स्वीकार किया। हम उसके सदस्य बने और उसमें भारत की भूमिका शुरू हुई।आपकी उस समय लाओस यात्रा भी हुई थी। आपने उस दौरान जो नया प्रयोग किया उसके बारे में बताएं।मैं जब लाओस जा रहा था तब अटल जी से मैंने उनसे एक नए प्रयोग की स्वीकृति मांगी। मैंने कहा कि मैं आपकी तरफ से एक नया प्रयोग करना चाहता हूं-गंगा-मीकांग स्वर्ण भूमि परियोजना। गंगा की महत्ता का विश्लेषण करने की आवश्यकता नहीं है। और मीकांग के बारे में जब मैंने विचार करना शुरू किया, लोगों से इसकी जानकारी प्राप्त की तो बताया गया कि “मीकांग” नाम कदाचित् महागंगा शब्द का शताब्दियों के दौरान अपभ्रंश होकर बना है। मुझे लगा कि यह तो बहुत सुन्दर मेल है। और “स्वर्णभूमि” मात्र हमारे लिए ही नहीं, (पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इसकी परिधि में आने वाले) उन देशों के लिए भी एक सांस्कृतिक और ऐतिहासिक यादगार व धरोहर है।आपने जब यह प्रस्ताव रखा तो अन्य सदस्य देशों की क्या प्रतिक्रिया थी?हमने जब यह प्रस्ताव रखा तो अन्य सदस्य देशों, थाईलैण्ड, लाओस, विएतनाम, कंबोडिया, म्यांमार ने एकदम उसे स्वीकार कर लिया। केवल एक बात कही गई कि प्राचीनकाल में स्यामदेश (थाईलैण्ड का पौराणिक नाम) की ओर से अपने पड़ोसी देशों पर हमले बहुत होते थे अत: अगर आपको कोई आपत्ति नहीं है तो स्वर्णभूमि नाम इसमें मत जोड़िए। हमने कहा, नहीं, कोई आपत्ति नहीं है। फिर उन्होंने कहा कि आप इसे “गंगा-मीकांग” कहते हैं और हम “मीकांग-गंगा” कहें तो कैसा हो? हमने कहा, एक ही बात है; उसमें हमें कोई एतराज नहीं है। हमने ऐसे कई प्रयोग किए, जैसे सड़कें बनाना, विकास कार्यों में सहयोग देना आदि। इन सबके पीछे मुख्य भावना थी संबंध बनाना। हमने इसी पर ध्यान दिया।…यानी संवादहीनता जैसी स्थिति से निकलकर संबंध प्रगाढ़ करने की कोशिश की गई?वे देश चेतना से कहीं बाहर हो गए थे इसलिए संवाद होता कैसे।प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह पिछले दिनों “आसियान” शिखर वार्ता में भाग लेने गए थे। क्या “आसियान” में भारत की महत्ता स्वीकारी जा रही है?इस पर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। समूचा एशिया हमारी विदेश नीति का एक खास अंग रहा है। यथार्थ तो यह है कि “आसियान” में चीन की भारत से कहीं अधिक प्रमुखता है। इससे आगे मैं अभी नहीं कहना चाहता।”लुक ईस्ट” नीति क्या है? हम इस दिशा में कितना आगे बढ़ पाए हैं?अगर आप सूर्य को नमस्कार करते हैं, सूर्योदय देखकर दिन का आरम्भ करते हैं तो पूरब में देखना ही होगा। पूरब में हमारे संबंधी देश हैं, हमसे जुड़े हुए हैं। हम कहते तो बहुत हैं इस बारे में, पर उसमें कितना आगे बढ़े, कितना नहीं बढ़ पाए, ये तो तथ्य देखकर पता चल जाएगा।आपने इस दिशा में एक परम्परा शुरू की थी। क्या वर्तमान सरकार उस पर आगे बढ़ रही है?मैं इस पर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहूंगा। हर सरकार अपनी प्राथमिकताएं तय करती है। अच्छा होता अगर माननीय वाजपेयी जी द्वारा की गई शुरुआत का पालन उसी रफ्तार से किया जाता।पाकिस्तान के संदर्भ में वर्तमान सरकार की नीति से आप कितना संतुष्ट हैं? राष्ट्रपति बुश एफ-16 और पैसा जनरल मुशर्रफ को भेंट करते हों तो ऐसे में हमारी बात का क्या महत्व रह जाता है?भारत-पाकिस्तान संबंध को इस तराजू में नहीं तौलना चाहिए और न ही इसे किसी दूसरे देश के चश्मे से देखना चाहिए। संयुक्त राज्य अमरीका के राष्ट्रपति को जो उचित लगे, वह करें। यह पाकिस्तान या अन्य किसी देश से उनके द्विपक्षीय संबंधों की बात है। जहां तक भारत-पाकिस्तान संबंधों का प्रश्न है तो माननीय वाजपेयी जी की सरकार के कार्यकाल में हमने एक वृहद् विचार के तहत इस दिशा में एक शुरुआत की थी। मुझे अटल जी की दो बातें याद आती हैं। पाकिस्तान के तत्कालीन वजीरे-आजम नवाज शरीफ से न्यूयार्क में एक भोज में हमारा मिलना हुआ था। हमने उनसे कहा कि, मियां साहब, आप पंजाब की ही पैरवी करते हैं। मैं ठहरा रेगिस्तान का रहने वाला, हमारी सिंध की लाइन भी खोलिए। उन्होंने यूं ही कह दिया- हां, हां क्यों नहीं। पर मुझे मालूम था, कुछ होना-जाना नहीं है। मैं आपको बताऊं कि सिंध में अब भी जितने हिन्दू हैं, उतने शेष पाकिस्तान में कहीं नहीं हैं और वहां के सिंध वालों के सारे नाते-रिश्तेदार, सगे-संबंधी या तो राजस्थान में हैं या गुजरात में कच्छ, काठियावाड़ में। खैर, भारत के प्रधानमंत्री के रूप में अटल जी की बस यात्रा के पीछे उनका एक खास तात्पर्य यह था कि बस से जाने से हम सरकारों के ही बीच संबंध नहीं सुधारेंगे बल्कि आम लोगों के आने-जाने का मार्ग खोलकर उनके दिलों को जोड़ने का प्रयत्न करेंगे। मुझे याद है कि हम लाहौर में थे और अटल जी ने वहां भाषण दिया था। उस समय पाकिस्तान की ओर से कहा गया था-श्री जवाहरलाल नेहरू के बाद अटल बिहारी वाजपेयी ही पहले ऐसे प्रधानमंत्री हुए हैं जिन्होंने लाहौर से समूचे पाकिस्तान को सम्बोधित किया है। अटल जी ने वहां दो बातें कहीं थीं-पहली, मैं जिस बस से आया हूं वह लोहे और इस्पात की नहीं, जज्बातों की बस है। दूसरी बात, हम तय कर लें कि अब युद्ध नहीं हो।लेकिन पाकिस्तान ने हमें धोखा दिया। पर बावजूद कारगिल और कंधार के, अटल जी ने श्रीनगर में भाषण दिया, आगरा में परवेज मुशर्रफ को निमंत्रित किया। लोग अब शायद भूल गए हों, पर अटल जी ने आगरा वार्ता से पहले आपसी विश्वास बढ़ाने के अनेक तरह के प्रयास किए थे।आज की सरकार उस पहल के बाद क्या कर रही है?आज की सरकार मौटे तौर पर उसी रास्ते पर चल रही है। लेकिन एक तरीका होता है कि विश्वास से कुछ किया जाए और एक होता है, केवल कवायद करना। कई बार लगता है कि आज की सरकार कवायद जैसी कर रही है।माननीय वाजपेयी जी की सरकार के समय सारी शुरुआत भारत की ओर से होती थी। हम कहते थे कि हम ये कदम उठाएंगे। रामधारी सिंह दिनकर की एक कविता है, जो उन्होंने शायद महात्मा गांधी के संदर्भ में कही थी। उसकी पंक्तियां कुछ यूं हैं-चल पड़े जिधर दो डग मग में, बढ़ चले कोटि पग उसी ओर।पाकिस्तान के साथ संबंधों के बारे में बल्कि अन्य देशों के साथ भी, पहल भारत की ओर से ही की जाती रही थी। दु:ख की बात है कि आज वह पहल सिकुड़कर इस्लामाबाद पहुंच गयी है।दक्षिण कोरिया में विदेश मंत्री नटवर सिंह कह आए कि परमाणु परीक्षण का फैसला गलत था, आदि-आदि। देश की दशा और दिशा के बारे में यह क्या संकेत करता है?इस सबसे तो यह प्रश्न स्वाभाविक तौर पर उठना चाहिए कि आखिर इस सरकार की विदेश नीति बन कहां रही है? मैंने सदन में सवाल उठाया था कि माननीय प्रधानमंत्री जी स्पष्ट कर दें कि क्या हमारी अणु बम नीति में कोई अंतर है? अगर है तो अच्छा होता कि उसकी घोषणा सियोल में न होकर, यहां होती। सोचने की बात है कि एक प्रधानमंत्री अपने ही विदेश मंत्री के वक्तव्य पर स्पष्टीकरण दें तो इसके क्या मायने हैं?NEWS
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