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नरसिंह राव नहीं रहे। जैसा कि होता है, उनके जाने के बाद कांग्रेसियों एवं कम्युनिस्टों द्वारा इतने अतिशयोक्तिपूर्ण शब्दों में श्रद्धाञ्जलि दी जा रही है कि हैरत होती है। कांग्रेस ने तो उन्हें छोड़ ही दिया था, बल्कि उनके नाम से वह एक शर्मिन्दगी का अहसास करती थी।जो भी हो, नरसिंह राव बहुभाषी विद्वान, साहित्यकार तथा मौन के उपासक थे। वह अच्छी प्रकार समझते थे, कब चुप रहना चाहिए और कब कितना बोलना चाहिए। जिस समय उन्होंने आर्थिक सुधार प्रारंभ किए वह राजनीतिक कोलाहल तथा आर्थिक परिवर्तन का ऐसा दौर था जिसमें उनके सुधारों के विरुद्ध भारत की आर्थिक आजादी के संघर्ष का बिगुल फूंका गया। फलत: स्वदेशी आन्दोलन में तेजी आई। राजनीतिक दृष्टि से उनके समय कांग्रेस सत्ता में तो पांच साल जमी रही, लेकिन प्रान्तों में उसका असर कम से कमतर होता गया। खासकर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का ढांचा उनके समय ही टूटा। और बाबरी ढांचे का जो 6 दिसम्बर के दिन हुआ वह भी नहीं होता यदि स्व. रज्जू भैया के बार-बार किए गए आग्रह को मानते हुए उन्होंने अदालत का फैसला विलम्बित करने में दिलचस्पी न दिखाई होती।बहरहाल, श्री नरसिंह राव एक तूफानी दौर में संयत रहने वाले ऐसे प्रधानमंत्री के नाते याद किए जाएंगे, जिन्होंने जिस पार्टी के लिए सर्वाधिक काम किया उसी पार्टी ने उन्हें अपनाने से संकोच किया और अन्त में उनके बारे में उनका अपना यह कथन ही सत्य साबित हुआ कि आखिर में सिवाय खुद के और कोई अपना साथ नहीं देता।श्री नरसिंह राव को उनके जीवन काल में क्यों महत्वहीन बनाने की कोशिश हुई एवं उनके देहान्त के बाद समाचार पत्रों में उन्हें एक श्रेष्ठ एवं युगान्तरकारी प्रधानमंत्री कहा जा रहा है? उसका कारण है कि वे पहले ऐसे सफल और पूर्णकार्यकाल तक सरकार चलाने वाले कांग्रेसी प्रधानमंत्री हुए, जो नेहरू-गांधी खानदान से बाहर वास्तविक लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुनकर आए थे। वे खानदानी छत्र तले पनपे कांग्रेसी नेता नहीं, बल्कि जमीन से जुड़े राजनेता थे, जो सरकार के स्थायित्व के लिए किसी भी तरकीब को गलत या अस्पृश्य नहीं मानते थे। वे मित्रों के मित्र थे और हर हाल में दोस्ती निभाते चले। यह बात उनके भीतर बैठे उस ईमानदार व्यक्ति की स्नेह कामना को दर्शाती थी, जिसे उनके तथाकथित अपनों ने महत्व नहीं दिया।-तरुण विजयNEWS
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