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स्त्री

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Feb 1, 2005, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 01 Feb 2005 00:00:00

हर पखवाड़े स्त्रियों का अपना स्तम्भमेरी सास, मेरी मां, मेरी बहू, मेरी बेटीजब भी सास- बहू की चर्चा होती है तो लगता है इन सम्बंधों में सिर्फ 36 का आंकड़ा है। सास द्वारा बहू को सताने, उसे दहेज के लिए जला डालने के प्रसंग एक टीस पैदा करते हैं। लेकिन सास-बहू सम्बंधों का एक यही पहलू नहीं है। हमारे बीच में ही ऐसी सासें भी हैं, जिन्होंने अपनी बहू को मां से भी बढ़कर स्नेह दिया, उसे आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया। और फिर पराये घर से आयी बेटी ने भी उनके लाड़-दुलार को आंचल में समेट सास को अपनी मां से बढ़कर मान दिया। क्या आपकी सास ऐसी ही ममतामयी हैं? क्या आपकी बहू सचमुच आपकी आंख का तारा है? पारिवारिक जीवन मूल्यों के ऐसे अनूठे उदाहरण प्रस्तुत करने वाले प्रसंग हमें 250 शब्दों में लिख भेजिए। अपना नाम और पता स्पष्ट शब्दों में लिखें। साथ में चित्र भी भेजें। प्रकाशनार्थ चुने गए श्रेष्ठ प्रसंग के लिए 200 रुपए का पुरस्कार दिया जाएगा।स्नेह मिला इतनाश्रीमती छंदा भट्टाचार्य अपनी सासू मां श्रीमती गीता के साथबहू बनकर अपने इस घर में आए मुझे सत्रह वर्ष हो गए, पर कभी ऐसा लगा ही नहीं कि मैं अपनी ससुराल में हूं। मेरे लिए जिस तरह मेरे माता-पिता का घर था, वैसे ही ससुराल भी रहा। हर सुबह उमंग भरी, हर दिन खुशियों से भरपूर, हर शाम सजी-संवरी।विवाह तय होने से पूर्व जब मेरी सासू मां मुझे देखने आई थीं तभी मुझे उनको देखकर लगा था कि वे मेरे माताजी जैसी हैं। मन में दुविधा अवश्य थी कि हमारे सम्बंध कैसे होंगे आदि। विवाह तय हुआ तो मुझे एक बार लगा था कि अगर उनके और मेरी बीच सामंजस्य नहीं हो पाया तो? लेकिन शादी हुई, दिन बीतते गए और मुझे लगा कि मैं अपनी मां की गोद से उतनी ही ममतामयी सासू-मां की गोद में आ गई हूं।हर परेशानी में छाया की तरह वे मेरे साथ रही हैं। मैंने किसी भी संकट के समय अपने को अकेला महसूस नहीं किया। विवाह के बाद नौ साल तक संतान न होने पर मुझे अपनों से और समाज से बहुत कुछ सुनना पड़ा। पर मेरी सासू मां ने मुझे कभी भी, कुछ भी नहीं कहा, बल्कि मेरे लिए मनौतियां मांगी। मुझे कभी नहीं लगा कि मैं सास के कठोर अनुशासन में रह रही हूं। घर का वातावरण हर हाल में सद्भाव का ही रहा। मुझे इस बात की सदैव प्रसन्नता रहेगी कि मैं उनकी बहू हूं।जिस प्रकार मैंने उनको अपनी मां ही माना वैसे ही उन्होंने मुझे अपनी बेटी ही माना। बेटी की नजर से मां का दु:ख कैसे छिप सकता है? अपनी बेटी की मृत्यु का दुख उनको झेलना पड़ा था। उस बारे में मैं कुछ नहीं कर सकती थी। लेकिन जब भी मैं मायके जाती, मेरा दिल भर आता। मुझे पता चला था कि मायके और ससुराल के बीच किसी कलह के कारण पच्चीस साल से वे अपने मायके नहीं गई थीं। मुझे लगा कि जिस तरह हम अपने मायके जाते हैं और खुश होते हैं, वैसे ही उनका भी बहुत मन होता होगा अपनी माताजी से मिलने का। मैंने अपने तरीके से प्रयत्न किया और वे फिर से अपने मायके जाने लगीं। इस बात से घर में सबको खुशी हुई।मौन रहकर उन्होंने हमेशा मेरा साथ दिया है। वे मेरे लिए मेरी मां हैं और यह संबंध सदा बना रहे, यही मेरी मनोकामना है।छंदा भट्टाचार्य82, समाचार अपार्टमेंट्समयूर विहार, फेस प्रथम, दिल्लीNEWS

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