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दीनानाथ मिश्रअथ रोजगार गारंटी कथासंयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाने वाले की नीयत पर मैं शक नहीं कर सकता। उन्होंने तो साफ-साफ लिखा था चार करोड़ ग्रामीणों को साल में कम से कम 100 दिन के रोजगार की गारंटी करेंगे। सरकार के जिन लोगों ने राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी विधेयक का प्रारूप बनाया है, उनकी नीयत पर भी मैं संदेह नहीं करता। उनकी भी नीयत साफ है। न्यूनतम साझा कार्यक्रम की रोजगार गारंटी में से रोजगार और गारंटी दोनों को कुछ इस तरह से दफन कर दिया कि सांप भी बच निकले और लाठी भी टूट जाए। बात यह है कि न वित्त मंत्रालय इसके लिए 40 हजार करोड़ रुपए का प्रावधान कर सकता है, और न योजना आयोग इसके लिए तैयार है। योजना आयोग तो दर्जनों ऐसी रोजगार योजनाओं को भुगत चुका है। गरीबी हटाओ से लेकर 10 सूत्रीय और 24 सूत्रीय कार्यक्रमों तक। कई के अध्ययन भी करा चुका है।दिल्ली से चलने वाले हर रुपए के 89 पैसे जाने कैसे इधर-उधर लुढ़क जाते हैं। लक्ष्य तक पहुंच कर बचते हैं 11 पैसे। वित्त मंत्रालय जानता है कि चाहे किसानों को बिजली मुफ्त देने की बात हो या एकमुश्त कर्ज माफी की, हर लोक लुभावन वायदा निभाने का अंतिम असर गरीबी के गढ़ों को और पुख्ता करने में ही निकलता है। फायदा जरूर होता है मगर गैर-गरीबों को ही होता है। सो, सरकार ऐसा लूला-लंगड़ा विधेयक ला रही है, जिसका व्यापक विरोध होगा। सरकार ने सोच रखा है और सोनिया गांधी ने कह रखा है कि विधेयक को स्थायी संसदीय समिति में विचारार्थ भेजा जाएगा। एक बार स्थायी समिति में विधेयक गया नहीं कि समझिए गई भैंस पानी में। चाहे तो साल भर तक विचार करे या चाहे तो ढाई साल तक। अगर खुदा न खास्ता राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार विधेयक बन भी जाता है तो उसके प्रावधानों के अनुसार उसे केवल कुछ चुनिन्दा क्षेत्रों में ही लागू किया जाएगा। एकाध साल उसका तजुर्बा कर लेने के बाद उसकी समीक्षा की जाएगी। जाहिर है चार-पांच सौ करोड़ रुपए खर्च करने के बाद समीक्षा में इसके दोष नजर आएंगे। सो विधेयक में इसका प्रावधान भी है कि सरकार चाहे तो इस रोजगार गारंटी को स्थगित भी कर सकती है।तब तक इस लोक लुभावन गारंटी का जितना फायदा होना होगा, वह हो चुकेगा। गारंटी में से कुछ ध्वनियां निकलती हैं। जैसे स्वनियुक्त बेरोजगार को रोजगार का कानूनी हक ही न मिलने पर वह अदालत में भेजा जा सकेगा और शिकायत कर सकेगा व बेरोजगारी भत्ता ले सकेगा। यह एक सपने जैसा है। एक ऐसा सपना जो सच हो ही नहीं सकता। कोई बात नहीं। गरीबी हटाओ का अर्थ खत्म हो गया। रोजगार गारंटी का भी हो जाएगा। इस विधेयक में रोजगार गारंटी के साधनों में 30 प्रतिशत खर्च राज्य सरकारों को करना है और इसका 100 प्रतिशत क्रियान्वयन भी उसी के जिम्मे है। गरीबी के गढ़ बिहार, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल आदि राज्यों में हैं। ऐसी केन्द्रीय योजनाओं से खुशी भी इन्हीं प्रदेशों में होती है। राजनेता और नौकरशाह गिद्ध दृष्टि लगाए बैठे रहते हैं। अनुदान पहुंचा नहीं कि बोटी-बोटी नोंच ली जाती है।कैसे बीता 2004दुनिया के सबसे बड़े और प्रभावी हिन्दू औद्योगिक घरानों में अग्रणी अम्बानी परिवार के बारे में टूटन, बिखराव तथा असमंजस की खबरें छायी रहींफिर इसके क्रियान्वयन की सबसे निचली इकाई ग्राम पंचायतें होंगी। सब जानते हैं कि पंचायतों में किनका दबदबा होता है। कम से कम उसका तो नहीं, जो आवेदन भी नहीं लिख सकता। ग्राम पंचायतों पर काबिज लोगों के घर में भी बेरोजगार हैं। वैसे ग्राम पंचायतों के पास फर्जी कागज बना लेने का अच्छा खासा तजुर्बा भी है। सो वह रोजगार में से रोजगार निकाल देंगे, गारंटी में से गारंटी निकाल देंगे। मगर निकालेंगे तो तब, जब पैसा वहां जाएगा। अभी वित्त मंत्री चिदम्बरम साहब प्रयोग के तौर पर ऊंट के मुंह में जीरा दे सकते हैं। विधेयक में रोजगार गारंटी को रोक देने का प्रावधान तो है। कुछ स्वयंसेवी संगठन चिल्लाएंगे तो उन्हें भी चुग्गा दे देंगे। वाम मोर्चे के दलों की तो वैसे भी आजकल पांचों उंगलियां घी में हैं। बड़े पूंजी घरानों में वह लोकप्रिय हो रहे हैं। किस मंत्री की मजाल है कि वह काम बताएं और काम न हो। आखिर सरकार उन पर टिकी है। न्यूनतम साझा कार्यक्रम में रखना एक बात है और 40 हजार करोड़ रुपए नाली में बहाना बिलकुल अलग बात है, कामरेड यह अच्छी तरह समझते हैं। सो वह कानून के इन छेदों का गलाफाड़ विरोध भी करेंगे और सरकार का समर्थन भी। इति रोजगार गारंटी कथा।NEWS
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