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मंथन

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Jan 5, 2005, 12:00 am IST
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दिंनाक: 05 Jan 2005 00:00:00

मुशर्रफ का दिल बदला, पर लक्ष्य नहींदेवेन्द्र स्वरूपदेवेन्द्र स्वरूपपाकिस्तान के राष्ट्रपति जनरल परवेज मुशर्रफ की दिल्ली यात्रा से भारतीय मीडिया का उत्साह और प्रसन्नता दीवानगी की जिस हद को पार कर गई है, उसे देखकर मानना ही होगा कि मुशर्रफ गजब के कूटनीतिक कलाकार या “सेल्समैन” हैं। दिल्ली यात्रा का निमंत्रण उन्होंने भारत सरकार से छीनकर लिया। 4 मार्च को उन्होंने कहा कि क्रिकेट का खेल मुझे बहुत पसंद है, अगर भारत सरकार ने न्योता दिया तो मैं एकदिवसीय मैच देखने अवश्य आना चाहूंगा। भारत सरकार पर मीडिया के माध्यम से इतना दबाव पड़ा कि उसे न्योता देना ही पड़ा, इस घोषणा के साथ कि वे सरकारी मेहमान नहीं होंगे, केवल क्रिकेट देखकर चले जाएंगे। किन्तु क्रिकेट देखने के लिए उनकी सुरक्षा के इतने कड़े प्रबंध करने पड़े कि लगभग एक महीने तक भारतीय मीडिया पर मुशर्रफ ही छाये रहे। पहले उनकी मां और बेटा, फिर उनके आने की तैयारियों के समाचार। पाकिस्तान पीछे चला गया, पूरा प्रचार मुशर्रफ केन्द्रित हो गया। मानो पाकिस्तान के जन्म से पहले और बाद का सैकड़ों साल की नफरत और अलगाव का इतिहास मानी किसी एक व्यक्ति के इशारे पर मिट जाएगा और स्थाई सौहार्द की गंगा बहने लगेगी। जैसे-जैसे भारतीय मीडिया की गर्मजोशी बढ़ती गई, वैसे-वैसे जनरल मुशर्रफ अपने एजेंडे की पिटारी खोलते गए। 5 अप्रैल को उन्होंने खुलकर कह दिया कि क्रिकेट तो महज बहाना है, मेरी एकमात्र चिन्ता तो कश्मीर है। और, जैसा वे चाहते थे वैसा ही हुआ। क्रिकेट मैच के लिए 45 मिनट और कश्मीर वार्ता के लिए 45 घंटे उन्होंने लगाए। एक गैर सरकारी यात्रा शिखर वार्ता में बदल गई। संयुक्त वक्तव्य जारी हो गया। कश्मीरी पृथकतावादियों के मंच हुर्रियत के नेताओं को दिल्ली आने का निमंत्रण मिल गया। वे भारत के प्रधानमंत्री से मिलने के बजाय पाकिस्तान के राष्ट्रपति से मिले। मुशर्रफ कूटनीति की पिच पर भारत की पराजय और अपनी विजय का झंडा फहराते हुए लौट गये।अब जब खुमार उतरा है तब भारत ठगा-सा सोच रहा है कि मुशर्रफ आए क्यों, वे हमें कुछ दे गए या हमसे कुछ ले गए? उस समय हमने कैसे मान लिया कि मुशर्रफ बदला हुआ दिल लेकर आए हैं? वे दिल लाए भी थे या नहीं या बंदर-घड़ियाल कहानी की तरह उसे वहीं पाकिस्तानी पेड़ पर छोड़ आए थे? उनका दिल अचानक बदल कब गया, क्यों बदल गया? उन्होंने कहा कि 9/11 को वल्र्ड ट्रेड सेन्टर की इमारतें गिरने के बाद दुनिया का दिल बदल गया तो मेरा भी बदल गया और हम उनकी यह सफाई सुनकर गद्गद् हो गए। हमने अपनी स्मृति को कुरेदने की कोशिश भी नहीं की कि 9/11 के बाद मुशर्रफ के दिल में क्या तूफान उठा था, उन्होंने कौन सी नई रणनीति अपनायी थी, पाकिस्तान के लिए क्या लक्ष्य निर्धारित किए थे? अच्छा हो कि हम उस समय के उनके दो महत्वपूर्ण नीति-वक्तव्यों के सूत्रों का फिर से स्मरण करें। तब उन्होंने कहा था कि पाकिस्तान इस्लाम का अंतिम रक्षादुर्ग है, उसे किसी भी हालत में बचाए रखना मेरा पहला फर्ज है। आतंकवादी हमले से चोट खाया अमरीका इस समय भारी गुस्से में है। वह अफगानिस्तान पर हमला करने पर तुला है। पूरा यूरोप आतंकवाद विरोधी लड़ाई में उसके पीछे खड़ा हो गया है। पाकिस्तान का दुश्मन भारत इस स्थिति का लाभ उठा सकता है। पाकिस्तान अगर अपना स्वर और रणनीति नहीं बदलता तो वह अकेला पड़ जाएगा, कश्मीर पर उसकी स्थिति कमजोर हो जाएगी, अमरीका उसके आणविक शस्त्र भंडार को ध्वस्त कर देगा। पाकिस्तान एक ओर अफगानिस्तान में अमरीकी फौज और दूसरी ओर भारत के बीच घिर जाएगा। अमरीकी सहायता के बिना वह आर्थिक दृष्टि से कमजोर होकर ढह जाएगा। अत: पाकिस्तान के दूरगामी हितों में आवश्यक है कि पाकिस्तान इस समय अमरीका के साथ खुलकर खड़ा हो, अपनी सीमाओं और आणविक शस्त्र भंडार की रक्षा करे, अन्तरराष्ट्रीय सम्बंध में भारत को अपने से आगे न बढ़ने दे और अफगानिस्तान अभियान में सहायता की एवज में अमरीका से विशाल आर्थिक सहायता प्राप्त करे। उस समय भी मुशर्रफ का दिल नहीं बदला था, कश्मीर उसमें सर्वोपरि था, भारत पाकिस्तान का एकमात्र शत्रु था, केवल रणनीति बदली थी।पाकिस्तान की असलियतमुशर्रफ ने इस कुशलता के साथ अपनी नई रणनीति को बेचा कि वे आज अमरीका के सबसे चहेते राष्ट्र हैं। अमरीका से अरबों डालर सहायता खिंचकर पाकिस्तान की जेब में पहुंच गई है। अमरीका 2007 तक 3 अरब डालर की सामरिक सहायता देने के लिए वचनबद्ध है। अमरीकी राष्ट्रपति जार्ज बुश मुशर्रफ को अपना व्यक्तिगत मेहमान बनाते हैं, उनसे घंटों अकेले में बात करते हैं। वे जानते हैं कि पाकिस्तान ही जिहाद की सबसे बड़ी फैक्टरी है। ओसामा बिन लादेन और उनके अनुयायी पाकिस्तान में ही कहीं छिपे हैं। हर पाकिस्तानी का दिल अमरीका और भारत के लिए नफरत से भरा है। पाकिस्तान के पास ही मुस्लिम विश्व का बौद्धिक एवं सामरिक नेतृत्व करने का सामथ्र्य है। पाकिस्तान के अणुबम के जन्मदाता डा. कादिर खान ने ही लीबिया, ईरान और उत्तरी कोरिया आदि देशों को अणुबम के रहस्य पहुंचाये। पुख्ता प्रमाण मिल जाने पर भी अमरीका कादिर खान को पाने में असफल रहा है। मुशर्रफ की दोस्ती दीवार बीच में खड़ी है, कादिर खान को मुशर्रफ का सुरक्षा कवच प्राप्त है और तब भी मुशर्रफ बुश के जिगरी यार बने हुए हैं। अमरीका खुद को लोकतंत्र का ठेकेदार और प्रचारक मानता है। अफगानिस्तान और इराक पर अपने हमलों का लक्ष्य उसने लोकतंत्र की स्थापना घोषित किया है। वह बीच-बीच में पाकिस्तान में भी सैनिक तंत्र के वर्चस्व को समाप्त कर लोकतंत्र के रास्ते पर बढ़ाने की बात करता है। मुशर्रफ भी उसे झांसा देने के लिए पाकिस्तान को लोकतंत्र की दिशा में बढ़ाने का दिखावा करते हैं। किन्तु वस्तुस्थिति क्या है? मुशर्रफ अभी भी पाकिस्तानी सेना के प्रधान सेनापति हैं, सेना के सभी ऊंचे-बड़े अधिकारियों की नियुक्ति उन्होंने स्वयं की है, सभी नौ कोर कमांडर उनके प्रति वफादार हैं। सेना पर उनका पूर्ण नियंत्रण है। इधर वे पाकिस्तान के राष्ट्रपति बन गए हैं। उन्होंने 1999 में, आगरा शिखर वार्ता के पूर्व, पाकिस्तान की जनता से पूछा कि “यदि मैं लोकतंत्री भारत के नेताओं से सैनिक तानाशाह के रूप में बात करूंगा तो क्या उसका वजन होगा, पाकिस्तानी जनता मुझे राष्ट्रपति चुनकर मुझमें विश्वास प्रकट करे तो मैं वहां के प्रधानमंत्री से बात जनता के प्रतिनिधि के रूप में कर सकूंगा।” उस समय उन्होंने यह भी कहा था कि “मैं प्रधान सेनापति का पद शीघ्र ही छोड़ दूंगा और शासन सूत्र निर्वाचित जन प्रतिनिधियों को सौंप दूंगा।” किन्तु कई साल हो गए, पाकिस्तान में जन आंदोलन के बावजूद वे दोनों पदों पर बने हुए हैं और अब तो उन्होंने 2007 तक इन दोनों पदों पर बने रहने के प्रति निर्णय पर पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय की स्वीकृति की मुहर भी लगवा ली है। इन दो पदों के अलावा वे पाकिस्तान की राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद् के अध्यक्ष भी हैं। इन तीन महत्वपूर्ण सत्ता-केन्द्रों पर काबिज होते हुए भी वे लोकतंत्रीय अराजकता पर गर्व करने वाले भारत के विरुद्ध अमरीका के सबसे प्रिय पात्र हैं।इतिहास बोध जरूरीऐसा क्यों है कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रतिनिधियों की आवाज के बजाय एक सैनिक तानाशाह का स्वर लोकतंत्र की दुहाई देने वाले देशों की सरकारों और मीडिया को अधिक आकर्षित व प्रभावित करता है? इसके लिए हमें आत्मालोचन करने और अपने इतिहास बोध को जाग्रत करने की नितान्त आवश्यकता है। नोबल पुरस्कार विजेता सर विद्याधर नायपाल ने ठीक ही कहा है कि जो देश अपना इतिहास बोध खो बैठता है, वह न अपने वर्तमान का सही आकलन कर सकता है, न भविष्य की सही उपाय-योजना खोज सकता है। भारत के साथ यही हो रहा है। नायपाल ने अपनी प्रसिद्ध रचना “भारत : एक आहत सभ्यता” में लिखा है कि जब मैं मुम्बई हवाई अड्डे पर उतरा तो मैंने वहां अरबी वेशभूषा में कई चेहरे देखे। मेरी स्मृति तुरन्त सन् 712 में मुहम्मद बिन कासिम की सिन्ध विजय पर चली गई। वे लिखते हैं कि भारत में प्रचलित इतिहास की पुस्तकों में इस घटना को एक “क्षणिक प्रसंग” के रूप में प्रस्तुत किया गया है, किन्तु सिन्ध आज भारत का अंग नहीं है। यह होता है इतिहासबोध।इतिहास की आंखों से जरा मुशर्रफ के उत्कर्ष को देखें। बताया गया है कि 1996 तक वे ओसामा बिन लादेन की जिहाद की विचार धारा के समर्थक माने जाते थे। 1999 में जब प्रधानमंत्री वाजपेयी पाकिस्तान के साथ दोस्ती का पुल बनाने के लिए बस में बैठकर लाहौर पहुंचे, पाकिस्तान के निर्वाचित प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने उनका जोश-खरोश के साथ स्वागत किया। भारत और पाकिस्तान के दोस्ती की डगर पर चलने की सम्भावनाएं दिखाई दीं तब यही जनरल मुशर्रफ कारगिल का षडंत्र रचाने में लगे थे। कारगिल पर आक्रमण भारत के साथ विश्वासघात था। उसका महंगा मूल्य भारत को चुकाना पड़ा किन्तु जब नवाज शरीफ और अटल बिहारी वाजपेयी के सीधे सम्बंधों और अमरीकी हस्तक्षेप के कारण वह विश्वासघात सफल नहीं हुआ तो मुशर्रफ ने दूसरा विश्वासघात अपने ही देश के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के विरुद्ध रचा। असावधान को सत्ता से हटा कर बंदी बना लिया और तब से मुशर्रफ ऊपर से लोकतंत्र की बात करते हुए भी पाकिस्तान के सैनिक तानाशाह बने हुए हैं। उनके प्रत्येक विश्वासघाती षडंत्र, उनकी बदलती रणनीति और बदलती भाषा के पीछे एक सातत्य है, एक टेक है कि पाकिस्तान की रक्षा करनी है, पाकिस्तान के अस्तित्व को एकमात्र खतरा भारत से है। कश्मीर पर भारत का सैनिक कब्जा पाकिस्तानी जनता की चिन्ता का एकमात्र कारण है। कश्मीर की समस्या का सन्तोषजनक हल हुए बिना भारत के साथ पाकिस्तान की स्थाई मैत्री असंभव है। कश्मीर समस्या का सन्तोषजनक हल कश्मीरियों की इच्छानुसार होना चाहिए, कश्मीरी जनता भारतीय सेना के विरुद्ध आजादी की लड़ाई लड़ रही है, भारत जिन्हें आतंकवादी कहता है, वे स्वतंत्रता सेनानी हैं। मुशर्रफ अपने इस तर्कजाल पर अटल हैं। उन्होंने इस भाषा को कभी नहीं बदला। इस बार भी “एडीटर्स गिल्ड” के साथ एक घंटे लम्बे वार्तालाप में जब यह सवाल उठाया गया तो उन्होंने भोले अंदाज में कहा कि आप भले ही उन्हें आतंकवादी कहें, लेकिन चेचन्या जैसे मुल्कों में तो उन्हें आजादी के लड़ाके ही कहा जाता है।बस, एक ही रटभारत मुशर्रफ के स्वागत में सड़क पर लेट गया। लजीज व्यंजनों का खूब वर्णन हुआ। भरोसा बढ़ाने वाले कदमों की संख्या 72 से बढ़कर 102 पहुंच गई। श्रीनगर-मुजफ्फराबाद के बीच बस सेवा चल पड़ी। राजस्थान बार्डर तक ऐसी अनेक बस सेवाएं शुरू करने की घोषणाएं हुईं। किन्तु मुशर्रफ और उनके साथियों ने एक ही रट लगाए रखी कि इन सबसे कुछ नहीं होगा। मूल समस्या तो कश्मीर है, उसको हल किए बिना हम कहीं नहीं पहुंचेंगे और यह हल कश्मीरियों को वार्ता में सम्मिलित किए बिना नहीं निकल सकता। भारत के प्रधानमंत्री के साथ अपनी संयुक्त विज्ञप्ति में उन्होंने कश्मीर विवाद का समयबद्ध हल निकालने की बात दर्ज कराई और उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि जनवरी 2004 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ संयुक्त घोषणा पत्र में उन्होंने जो वचन दिया था कि पाकिस्तान अपनी धरती का उपयोग आतंकवादी गतिविधियों के लिए नहीं होने देगा, उस वचन से वे इस ताजा संयुक्त विज्ञप्ति में मुक्त हो गए। इस विज्ञप्ति में कहा गया कि आतंकवादी गतिविधियों के कारण कश्मीर समस्या को हल करने की दिशा में प्रयासों को शिथिल नहीं किया जाएगा। अर्थात्, भारत अपने इस आग्रह से पीछे हट गया कि सीमा पार आतंकवाद के पूरी तरह बंद हुए बिना कश्मीर पर कोई बात नहीं होगी। सीमा पार आतंकवाद को रोकने के लिए ही भारत ने सीमा नियंत्रण रेखा पर कंटीली बाड़ लगाने पर अरबों रुपए खर्च किए। पर अब तो नरम सीमा की बात की जा रही है, वर्षों से बिछुड़े परिवारों को मिलाने की भावुकता जगाई जा रही है। जनता से जनता के बीच सौहार्द के पुल बनाने के ख्याली पुलाव पकाए जा रहे हैं। यह कोई नहीं पूछता कि 1947 के पहले तो यह सब था। सब साथ-साथ खेलते थे, साथ-साथ पढ़ते थे। साथ-साथ खरीद-फरोख्त करते थे, एक दूसरे को चाचा-मामा कहते थे। पर वह कौन सी चीज थी जो इन सब सामाजिक-आर्थिक आदान-प्रदान की सतह के नीचे नफरत का जहर घोल रही थी? जिसने देश विभाजन की हृदय विघातक स्थिति पैदा की? जिसने हिन्दुस्थान अलग होने के उन्माद को इतना प्रबल बना दिया कि गांधी और नेहरू की एकता की सब आवाजों को ठुकराकर कलकत्ता, नोआखाली से लेकर रावलपिंडी तक खून का दरिया बहा दिया गया? क्या नफरत फैलाने वाला वह मजहबी जुनून और कट्टरवाद पूरी तरह समाप्त हो चुका है? किसी एक इन्सान के दिल बदलने से ज्यादा महत्वपूर्ण है वह वैचारिक परिवर्तन, जिसके बिना जिहाद की जड़ें समाप्त नहीं होंगी। क्या विचारधारा के परिवर्तन की यह प्रक्रिया कहीं शुरू हुई है? सातवीं शताब्दी की मानसिकता से बाहर निकलने के कुछ सूत्र निर्धारित हुए है? यदि हुए हैं तो उनका व्यावहारिक रूप क्या है?किन्तु जो देश इतिहास बोध को पूरी तरह खो चुका हो, जिसके लिए कारगिल युद्ध का मात्र इतना महत्व रह गया हो कि उसे अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के विरुद्ध हथियार के रूप में कैसे इस्तेमाल किया जाए? जहां एक ट्रेन दुर्घटना में मरने वालों और सैकड़ों घायलों से अधिक चिन्ता इस बात की है कि कैसे रेलमंत्री के विरुद्ध, जन आक्रोश की सहज स्वयंस्फूर्त अभिव्यक्ति को अपने एक सुदृढ़ राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी की सरकार को गिराने के लिए इस्तेमाल किया जाए वहां भारत-विभाजन के कारण-मीमांसा जैसे गहन विषय में प्रवेश की तो कोई अपेक्षा ही नहीं की जा सकती। हमारा इतिहास बोध भी वोट बैंक राजनीति का पूरी तरह बंदी बन गया है। इस समय इस देश में देश की अखंडता के लिए जूझने वाले गांधी और पटेल, कांग्रेस पार्टी और पूरा हिन्दू समाज विभाजन के अपराधी के रूप में कठघरे में खड़ा है। और भारतीय राष्ट्रवाद के विरुद्ध मुस्लिम पृथकतावाद की लड़ाई को द्विराष्ट्रवाद का बौद्धिक जामा पहनाने वाले जिन्ना और उनकी मुस्लिम लीग को विभाजन विरोधी के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है।यह कोई नहीं पूछ रहा कि आखिर कश्मीर समस्या है क्या? उसकी जड़ें कहां हैं? कश्मीरियत क्या है? उसका प्रतिनिधित्व कौन करता है? क्या वे, जो कश्मीर की मूल संस्कृति को बचाए रखने के लिए सैकड़ों साल से जूझ रहे हैं, जिन्होंने तमाम प्रलोभनों और दबावों के सामने झुकने से इनकार कर दिया और जो कश्मीरियत की रक्षा करने के अपराध में कश्मीर छोड़ने को मजबूर हुए और पिछले पन्द्रह साल से अपने ही देश भारत में शरणार्थी बनकर भटक रहे हैं। कश्मीर के बारे में किसी भी वार्ता में उनका कोई जिक्र क्यों नहीं होता? कश्मीरियत के सच्चे प्रतिनिधियों को कोई न्योता क्यों नहीं दिया जाता? क्या कश्मीरियत की व्याख्या केवल संख्या बल के आधार पर होगी? तब दो हजार साल तक निर्वासित यहूदियों की घरवापसी के पक्ष में क्या तर्क रह जाता है? तब अमरीकी विचारक हंटिंग्टन की नवप्रकाशित “हू आर वी” (हम कौन हैं) पुस्तक में अमरीका की अस्मिता की व्याख्या को सत्रहवीं शताब्दी में ब्रिटेन से आए मुट्ठीभर एंग्लो सेक्सन प्रोटेस्टेंटो की सीमा में बांधना कैसे संभव हो सकता है? पर जिस देश का इतिहास बोध मर चुका हो जो केवल सत्ता के कुछ टुकड़े पाने के लिए वोट-राजनीति का बंदी बन चुका हो, वहां सब कुछ संभव है? भारत आज उसी संकट से गुजर रहा है।(22 अप्रैल, 2005)NEWS

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