गहरे पानी पैठ
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गहरे पानी पैठ

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Dec 12, 2004, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 12 Dec 2004 00:00:00

दास्तान नींव के पत्थर की

जम्मू-कश्मीर के पुलिस बल पर एक अतिरिक्त जिम्मेदारी है- शिलापट्टों की रक्षा। चौंकिए नहीं, यह हकीकत है। देश के अन्य हिस्सों की तरह यहां भी बड़ी परियोजनाओं या बड़े निर्माणों की घोषणाएं होती हैं। नामी-गिरामी व्यक्तियों द्वारा शिलान्यास भी किया जाता है, लेकिन उत्साह धीमे होने के बाद शिलान्यास के पत्थरों पर धूल जमने लगती है। पुलिस को उनकी सुरक्षा का डर सताने लगता है। जम्मू-उधमपुर रेल-पटरी परियोजना का ही उदाहरण लीजिए। 14 अप्रैल, 1983 को उधमपुर में जम्मू-उधमपुर रेल पटरी परियोजना का शिलान्यास तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के हाथों हुआ था। पांच वर्ष में इस परियोजना को पूरा होना था। आज 20 वर्ष बाद भी काम आगे नहीं बढ़ा। स्व. इंदिरा गांधी के हाथों रखी गई नींव की शिला सुरक्षा कारणों से आज भी पुलिस के पास रखी है।

सन् 2002 में विधानसभा चुनाव से पूर्व तत्कालीन मंत्रियों-विधायकों ने छोटी-बड़ी परियोजनाओं का शिलान्यास बड़े ठाठ-बाट से किया था। कुछेक परियोजनाओं के पूरा होने के बाद उद्घाटन की घोषणा करतीं शिलाएं भी लगवाई गई थीं। सरकार बदली, तो इन शिलाओं के दिन भी फिरे। यह मामला वैसे बड़ा खर्चीला है। एक अनुमान के अनुसार, शिलान्यास या उद्घाटन की शिला पट्टिका लगाने पर करीब 20 हजार से 1 लाख रुपए तक और कुछ मामलों में उससे भी अधिक खर्चा आता है। इसके अलावा भी कई अन्य रोचक बातें हैं, जिनके कारण ऐसी शिलाओं पर आने वाली लागत बहुत अधिक होती है। एक और उदाहरण देखिए। चार वर्ष पूर्व जम्मू-तवी पर बने दूसरे पुल के उद्घाटन अवसर पर उसका नामकरण स्व. शेख अब्दुल्ला के नाम पर “शेरे-कश्मीर पुल” रखा गया। नामकरण का शिलापट्ट वहां लगा दिया गया। लेकिन जम्मू के लोगों को पुल के इस नाम पर कड़ी आपत्ति थी। लोगों ने उस शिला को तोड़ने की कोशिश की। उसे नष्ट होने से बचाने के लिए तत्कालीन सरकार ने वहां पुलिस चौकी बनाई। आज भी इस चौकी के चौकन्ने पहरेदार नामपट्ट की रक्षा करते देखे जा सकतेे हैं।

ईसाई संगठनों के स्वार्थ

दलित ईसाइयों के अधिकारों की लड़ाई का बीड़ा उठाने वाले दलित ईसाई मुक्ति संगठन ने चर्चों से जुड़े कुछ सामाजिक संगठनों पर आरोप लगाया है कि वे दलित ईसाइयों को अपने निजी स्वार्थ के लिए एक उत्पाद के रूप में इस्तेमाल कर रहे हैं। इसका कहना है कि आज इन वर्गों के विकास के नाम पर कुकुरमुत्ते की तरह अनेक संगठन खड़े हो गए हैं, जो विभिन्न देशों से करोड़ों डालर अनुदान लेकर अपनी-अपनी “दुकानें” चला रहे हैं। वहीं दूसरी ओर दलित ईसाई आज भी समाज में हाशिए पर हैं और उनकी सुध लेने की बजाय ये संगठन उनकी समस्याओं का अन्तरराष्ट्रीयकरण करने में लगे हुए हैं। दिल्ली के एक दलित ईसाई नेता ने कहा कि कुछ सामाजिक संगठन विदेशी दान-दाताओं, अन्तरराष्ट्रीय चर्च संगठनों और ब्राजील सरकार के सहयोग से दलित ईसाइयों को पंथ के आधार पर तथाकथित आरक्षण की मांग का अन्तरराष्ट्रीयकरण करने के लिए एशिया के विभिन्न देशों की राजधानियों में अपने कार्यक्रम आयोजित कर रहे हैं। जबकि ये लोग अपने ही देश के अंदर चर्च संगठनों में दलित ईसाइयों को समान अधिकार और भागीदारी दिए जाने के मुद्दे पर चुप्पी साध लेते हैं। आज भी चर्चों की विशाल भू-संपदा और उनके संस्थानों पर उच्च वर्ग के ईसाइयों का एकाधिकार बना हुअा है। दलित ईसाई संगठन ने पिछले दिनों प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह को एक ज्ञापन सौंपकर मांग की थी कि वह दो करोड़ दलित ईसाइयों के विकास के लिए आर्थिक विकास बोर्ड बनाएं और चर्चों की अरबों रुपयों की भू संपदा को अधिगृहित कर इसका उपयोग दलित ईसाइयों के विकास के लिए किया जाए।

ज्ञापन में चर्च नेतृत्व से मांग की गई है कि वह दलित ईसाइयों का शोषण बंद कर उन्हें चर्च द्वारा संचालित स्कूलों-कालेजों, अस्पतालों, विभिन्न संस्थानों और चर्चों की व्यवस्था संचालन में भागीदारी उपलब्ध करवाएं।

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