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अध्यक्षीय प्रणाली से होगा
विकास भी, आम आदमी की भलाई भी
देश में संसदीय प्रणाली के स्थान पर अध्यक्षीय प्रणाली लाए जाने का सुझाव दे रहे हैं हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री प्रो. प्रेम कुमार धूमल
भारत को स्वतंत्र हुए 57 वर्ष से अधिक हो गए हैं। किसी भी राष्ट्र के जीवन में आधी सदी से अधिक का समय उस राष्ट्र की सफलताओं-असफलताओं के मूल्यांकन के लिए पर्याप्त होता है। अब समय आ गया है कि भारत सिंहावलोकन करे कि इस कालखण्ड में उसने क्या खोया और क्या पाया? राष्ट्र ने जो नीतियां अपनाई थीं, जो मानदण्ड तय किए थे, जो शासन की पद्धति अपनाई थी, वह कहां तक समय की परीक्षा पर खरे उतरे हैं? जो उद्देश्य संविधान निर्माताओं ने राष्ट्र के सामने रखे थे, उन्हें प्राप्त करने में हम कहां तक सफल हुए और कहां असफल रहे?
समय और परिस्थितियों के अनुसार भारत के संविधान में अनेक संशोधन भी किए गए। इनमें से कई संशोधन समय की आवश्यकता के अनुसार हुए, कई राजनीतिक परिस्थितियों के परिणामस्वरूप और कई राजनीतिक स्वार्थ के कारण हुए। हमने शासन की संसदीय प्रणाली को चुना था, जिसके अनुसार राष्ट्रपति, उप राष्ट्रपति, राज्यपाल के पदों का प्रावधान तो है, पर सभी महत्वपूर्ण शक्तियां प्रधानमंत्री और उनके मंत्रिमंडल तथा राज्यों में मुख्यमंत्री और उनके मंत्रिमण्डल में निहित हैं।
अनुभव यह बताता है कि राजनीति और राजनीतिक क्षेत्र तथा प्रशासन की अधिकांश विकृतियों का कारण संसदीय प्रणाली में संख्या बल का महत्व है। इस दबाव के कारण प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्रियों को अनेक सिद्धान्तों और नीतियों पर अपनी सत्ता बचाने के लिए कई समझौते करने पड़ते हैं।
भारी-भरकम मंत्रिमंडल के कारण फैलने वाले भ्रष्टाचार और सरकारी कोष पर पड़ने वाले भारी आर्थिक बोझ को समाप्त करने के लिए संविधान में संशोधन भी किया गया और मंत्रियों को कम करने का कानून भी बना। परन्तु स्वयं मुख्यमंत्रियों ने ही इस कानून की धज्जियां उड़ाने के लिए अनेक चोर दरवाजे निकाले और इसे अप्रभावी बना दिया। ऐसा करना उनकी राजनीतिक मजबूरी की अपेक्षा उनकी राजनीतिक बेईमानी है।
संसदीय प्रणाली पर पुनर्विचार का दूसरा कारण है, वर्तमान केन्द्र सरकार द्वारा राज्यपाल के पद का अवमूल्यन, उसका राजनीतिकरण और ताश के पत्तों की तरह उनको पद से हटाकर पद की गरिमा को मिट्टी में मिलाना है। केन्द्रीय गृहमंत्री शिवराज पाटिल के माध्यम से राज्यपाल को चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी से भी कम महत्व दिया गया। श्री पाटिल ने राज्यपालों की गरिमा को तो कम किया ही, स्वयं केन्द्रीय गृहमंत्री के पद को भी अपमानित कर दिया।
इसलिए अब राष्ट्र को गंभीरता से संसदीय प्रणाली की अपेक्षा अध्यक्षीय शासन प्रणाली को अपनाने पर विचार करना चाहिए और इसके लिए संविधान में आवश्यक संशोधन भी कर लेना चाहिए। केन्द्र और प्रदेश में अध्यक्षीय प्रणाली का शासन होने पर जहां प्रशासन और शासन की व्यवस्था सुधरेगी, वहीं प्रशासन का मुखिया सीधे तौर पर जनता के प्रति उत्तरदायी होगा, राजनीतिक भयादोहन समाप्त होगा, भारी-भरकम मंत्रिमंडलों का आर्थिक बोझ कोष पर नहीं पड़ेगा।
देश प्रमुख और प्रदेशों के प्रमुखों को मंत्रिमंडल में विशेषज्ञ लोगों को शामिल करने की छूट होगी और अपने-अपने क्षेत्र के विशेषज्ञ शासन प्रमुख का सही सहयोग कर पाएंगे। न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका लोकतंत्र के ये तीनों स्तंभ, पत्रकारिता के चौथे स्तम्भ से मिलकर लोकतंत्र के सबसे महत्वपूर्ण पांचवें स्तंभ यानी साधारण नागरिक की सही सेवा कर सकेंगे। कार्यपालिका के कार्य में राजनीतिज्ञों का अनावश्यक हस्तक्षेप समाप्त होगा। सांसद और विधायक, कर्मचारियों और अधिकारियों के स्थानांतरणों में उलझने की अपेक्षा विधायी कार्यों में रुची लेकर अधिक रचनात्मक योगदान कर सकेंगे।
जब से पंचायत प्रधान और उप प्रधान के सीधे चुनाव का प्रावधान किया गया तब से पंचायतों में स्थिरता आई है, बार-बार अविश्वास प्रस्तावों से छुटकारा मिला है। हम यह समझते हैं कि नागरिक इसी प्रकार से पंचायत समिति के प्रमुख, जिला परिषद् के प्रमुख, प्रदेश के प्रमुख और राष्ट्र प्रमुख तक एक ही दिन मतदान करके विकास और जनसमस्याओं के समाधान की अपेक्षा रख सकता है और पंचायत से लेकर राष्ट्र तक राजनीतिक अस्थिरता को भी समाप्त किया जा सकता है। देशभर के बुद्धिजीवियों से अपेक्षा है कि वे इस सार्थक चर्चा को आगे बढ़ाएं ताकि इस देश को राजनीतिक अस्थिरता, भयादोहन और भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाई जा सके।
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