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भानुप्रताप शुक्लराजनीतिक चश्मे से न देखें गांधी जी कोलखनऊ स्टेशन पर स्वर्गीय माधवराव सिंधिया ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को देशद्रोही कहा था तो प्रसिद्ध लेखक स्व. शरद जोशी ने लिखा था, “उनके पूर्वज स्व. दौलतराम सिंधिया की आत्मा बहुत छटपटाई थी कि मेरे बच्चे, तुमने यह क्या कह दिया? लोग इतिहास के पन्ने उलटेंगे तो 1857 के स्वातंत्र्य- समर के समय मुझे रानी झांसी लक्ष्मीबाई के साथ खड़ा नहीं पाएंगे और हमारे पूरे खानदान को देशद्रोहियों की श्रेणी में रखकर देखेंगे तो उन्हें तुम क्या जवाब दोगे? तुमने तो शांत सरोवर में पत्थर फेंककर उसे अशांत कर दिया। अब मैं तो लोगों के सामने नहीं हूं, तुम अपने कहे के परिणाम का परिमार्जन कैसे कर सकोगे?”इसी तरह आये दिन कांग्रेसी जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को “महात्मा गांधी” का हत्यारा घोषित करके उसे बदनाम करने का प्रयास करते हैं तो गांधीजी की आत्मा व्यथित और बैचेन हो उठती है कि “ऐ मेरे तथाकथित अनुयायियो, मेरी हत्या नाथूराम गोडसे ने केवल एक बार की थी तुम तो हर दिन, सुबह-शाम छप्पन साल से प्रतिदिन मेरी हत्या करते चले आ रहे हो।”गांधी हत्याकांड की जांच के लिए बने जांच आयोगों की रपटों के पन्ने फड़फड़ाने लगते होंगे कि जिस रास्ते से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को गांधी जी का हत्यारा बताकर प्रतिबंधित कर दिया गया था, उसका गांधी हत्याकांड से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं था। जिस तरह हत्याकांड के समय उस पर लगाए गए सभी आरोप निराधार पाए गए थे, उसी तरह इस समय लगाये जाने वाले आरोप भी निराधार हैं। यह गांधीजी की एक और हत्या करने के प्रयास के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। अर्जुन सिंह के बयान भी नाथूराम गोडसे की गोली से कम खतरनाक नहीं हैं। यह कांग्रेसियों की परम्परा है कि जब वे असफल होने लगते हैं तो उस पर पर्दा डालने के लिए नाथूराम गोडसे की पिस्तौल उठा लेते हैं कि आओ, गांधी हत्या-गांधी हत्या का खेल खेलें। लेकिन लोग इसे “चोर की दाढ़ी में तिनका” से अधिक कुछ नहीं समझते-मानते। अंतर केवल इतना है कि तब नाथूराम की गोली गांधीजी की काया को लगी थी, अब अर्जुन सिंह की गोली ने गांधीजी की आत्मा को लहूलुहान कर दिया है।30 जनवरी, 1948। संसार सन्न रह गया यह सुनकर कि “अहिंसा का पुजारी” हिंसक गोली का शिकार हो गया। बहुतों ने समझा कि गोडसे की गोली लगने से गांधी जी मर गए। लेकिन हुआ ठीक इसके विपरीत। पार्थिव शरीर शांत हो गया, अग्निदेव ने उसे भस्म कर दिया, किन्तु गांधी का दर्शन, उनका आध्यात्मिक चिंतन, उनके जीवन का चैतन्य न केवल भारत की जनता अपितु संपूर्ण मानवता के लिए प्रकाश-पुंज बन गया। 30 जनवरी, 1948 को गांधी जी मरे नहीं, अमर हुए थे। यदि कहूं कि गांधी जी अपनी जिंदगी स्वयं जी रहे थे, उनका अपना “दर्शन” उनकी अपनी ही दृष्टि की सीमा में था, किन्तु उसके बाद संपूर्ण देश ने गांधीजी को कुछ इस तरह अपनाया, इस सीमा तक जाकर उन्हें स्वीकारा कि उनके मुंह से निकले “हे राम” की तरह गांधीजी का नाम भी देश के जनजीवन का महामंत्र बन गया। जितना ही उनसे दूर हटने की कोशिश की गयी, गांधी उतने ही करीब आते गए।इस संदर्भ में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिर ऐसा क्यों है? गांधी दिन-प्रतिदिन देश के लिए स्वीकार्य और अपरिहार्य क्यों बनते जा रहे हैं?कारण स्पष्ट है। गांधीजी ने अपनी जिंदगी का सूत्र किसी दल, व्यक्ति अथवा वोट से न जोड़कर सीधे समाज और देश से जोड़ा। उसमें भी वे समाज के उस वर्ग और व्यक्ति से सीधे जुड़े हुए थे, जो अकिंचन, अभावग्रस्त तथा तिरस्कृत था। विवेकानंद का दरिद्र नारायण और दीनबंधु के बंधु यही हैं। गांधीजी ने इसी दरिद्र नारायण की उपासना की थी- तिरस्कृत को पुरस्कृत किया, अपमानित जन को सम्मानित किया। उनके चिंतन का बिंदु वैभव नहीं, गरीब और गरीबी था। उसकी जिंदगी को उन्होंने जिया-भोगा और पाया कि राष्ट्र-समृद्धि की साधना यदि करनी है तो समाज के इस आखिरी इंसान को ऊपर उठाना होगा। वहीं से उनका अंत्योदय का सिद्धांत शुरू हुआ। और फिर तो गांधी जी की जिंदगी को एक “वाद” विशेष में बांधने की कोशिश शुरू हो गई। साम्यवाद, समाजवाद की तरह “गांधीवाद” भी चल निकला।गांधीजी के कुछ निकटतम सहयोगी गांधी चिंतन को यदि किसी “वाद” विशेष में बांधने के प्रयास में राजनीति का दर्शन करते हों तो उनकी कोई गलती नहीं होगी। देश के दुर्भाग्य से गांधीजी की मृत्यु के बाद उनके सत्तारूढ़ अनुयायियों ने गांधी नाम का सिक्का अपने सत्ता राजनीति के शेयर बाजार में खूब चलाया। उन्हें समाज से खींचकर सत्ता के पास लाने की यह साजिश यदि सफल नहीं हुई तो केवल इसलिए कि समाज गांधीजी को अपने कलेजे से चिपकाए रहा, वह बीच-बीच में राजनीतिक छल का शिकार भले होता रहा हो, किन्तु उसने गांधी जी को राजनेताओं के हाथों में पूरी तरह सौंपने से इनकार कर दिया। सत्ता की कुटिल राजनीति ने गांधीजी की चिता पर अनेक बार रोटी सेंकने की कोशिश की, लेकिन वह नाकाम रही।गांधीजी का भौतिक जीवन समाप्त हुए छप्पन वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। छप्पन वर्ष पहले गांधीजी जितने असहाय थे, आज उससे अधिक सबल हैं। समाज की जमीन में बोया गया गांधी-चिंतन का बीच अब वटवृक्ष का रूप लेता जा रहा है। गांधी गांव-गांव में हैं। वनवासी, गिरिवासी से लेकर नगरवासी तक के बीच आज उनकी प्रतिष्ठा है। जब-जब दुनिया की चकाचौंध में चौंधियाकर हमें ठोकर लगती है, गांधी जी का हाथ हमें उठा लेता है, हमारा मुंह इस धरती की ओर मोड़ देता है। भारतीय संस्कृति की गर्वोज्ज्वला परम्पराएं, राजनीति की मर्यादाएं और समतापूर्ण सामाजिक, आर्थिक जीवन की लक्ष्मण रेखाएं और नैतिक मूल्यों की परिभाषाएं गांधीजी की जिंदगी की सांस समेटकर उस राम के साथ जुड़कर जी रही हैं जिसके कारण भारत आज भी “रामराज्य” की कल्पना को साकार करने के लिए बेचैन है। उनके चिंतन को शब्दों की संज्ञा अथवा विश्लेषण की सुनहरी डोर में बांध पाना सर्वथा असंभव है। हमारे पूर्वजों की सदियों की तपस्या की साकार प्रतिमा थे वे।अतएव आज के और कल के भी भारत के हित में यही होगा कि वह गांधीजी को समझे, उधर मुड़े और केवल राजनीतिक चश्मे से उनकी ओर न देखकर समग्र रूप में उन्हें देखे और उनके चिंतन को व्यवहार में उतारे। इसके बिना देश का उद्धार कर पाना न केवल कठिन, अपितु असंभव भी होगा।7
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