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टी.वी.आर. शेनायकेरल मेंअपने-अपने राग, अपनी-अपनी जमातअभी महज पच्चीसेक साल हुए होंगे जब आपातकाल के बाद कांग्रेस में आई दरार के कारण ए.के. एंटोनी ने इंदिरा गांधी से अलग रास्ता अपनाया था। कहने वाले कह सकते हैं कि उस समय उनका वह निर्णय सटीक था, लेकिन उसका अनुभव साफ तौर पर ऐसा त्रासद था कि एंटोनी ने तभी से गांठ बांध ली कि पार्टी हित को सबसे ऊपर रखेंगे। किसी भी कीमत पर पार्टी में एकजुटता बनाए रखने की जीतोड़ कोशिश के कारण एंटोनी को बजाय करुणाकरन की कांग्रेस को तोड़ने की धमकी सफल होने देने के अपने सिद्धान्तों की ही बलि देनी पड़ी। यह तब तक किया जब तक कि मामला एंटोनी के हाथ से बाहर नहीं निकल गया और उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़ने को मजबूर होना पड़ा।यह याद करके मैं चौंक पड़ता हूं कि अभी 2001 में ही कांग्रेसनीत संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चा 140 सीटों वाली केरल विधानसभा में 100 सीटें जीता था। आखिर उन्होंने परिस्थिति को किस बदतर तरीके से सम्भाला कि कांग्रेस लोकसभा चुनाव में 17 सीटों पर उतरने के बावजूद एक सीट भी नहीं जीत पाई? बशर्ते, इसके जवाब में राजनीतिक हेराफेरी तो शामिल है ही, लेकिन कहानी केवल इतनी भर नहीं है। संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चे के दो प्रमुख गैर कांग्रेसी घटकों-मुस्लिम लीग और केरल कांग्रेस- ने भी आम चुनाव में अपेक्षाकृत खराब प्रदर्शन किया।चुनाव परिणामों में एक गंभीर दृष्टि डालें तो पाएंगे कि केरल के समाज में बहुत अधिक मंथन चल रहा है, परन्तु राजनीतिक उठापटक इस प्रक्रिया पर हावी रही है। मजहबी दल, जो कि मुस्लिम लीग और केरल कांग्रेस वास्तव में हैं, अब अपनी ही जमात के लोगों पर से अपनी पकड़ खोते जा रहे हैं। और मेरे विचार से, यह एक अच्छा संकेत है।इस्लाम के साथ मुस्लिम लीग की पहचान इस कदर गहरी थी कि केरल के मुसलमानों ने उस व्यक्ति को सांसद चुन लिया जिसने कसमें तक खाईं कि उसकी मातृभाषा मलयालम नहीं अरबी है। (मैं इस बात को कोई मुद्दा नहीं बना रहा हूं!) इस बीच, हर समय झगड़ा-फसाद करती रहने वाली केरल कांग्रेस के विभिन्न गुट ईसाई समुदाय की उपजातियों की मिजाजपुर्सी करते रहे। (इसकी फेहरिस्त झकझोर देने वाली है; कहा जाता है कि एक ऐसा गांव भी है जहां दो दर्जन चर्च और प्रार्थना भवन हैं!)इससे हिन्दू मतदाताओं में गुपचुप तौर पर एक प्रतिक्रिया भाव उपजा; आमतौर पर अनास्थावादी माने जाने वाले माक्र्सवादियों के ज्यादातर वोट हिन्दुओं से ही आते हैं, इसकी शायद सबसे पहले पहचान की ई.एम.एस. नम्बूदिरीपाद ने, जिन्होंने बहुत पहले 1987 में बड़ी पुण्याई दिखाते हुए घोषित किया था कि उनका वाम लोकतांत्रिक मोर्चा “साम्प्रदायिक” ताकतों से कोई मेल नहीं रखेगा। इससे मुस्लिम लीग की- और अधिक विस्तार दें तो मुस्लिम मतदाताओं की-दांव-पेंच की नीति की सीमाएं बंध गईं। (कांग्रेस सदा से ही थोड़ी लचीली- अथवा कम सिद्धान्त वाली- रही है; इतनी कि आज के संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चे के ढांचे में के.आर.गोरी सरीखा व्यक्ति तक जुड़ा हुआ है, जो मंत्री बनने वाला पहला कम्युनिस्ट था।)मुझे गलत न समझें, अब भी अधिसंख्य मुस्लिम मतदाता आंख पर पट्टी बांधकर मुस्लिम लीग को वोट डालते हैं। लेकिन इसी समुदाय के एक छोटे से वर्ग ने जान लिया है कि विकल्प खुले रखना अच्छा रहता है ताकि उन्हें कोई बपौती न समझे। (ईसाई समाज तो और एक कदम आगे बढ़ गया और उसने वास्तव में केरल कांग्रेस के प्रत्याशी को ताक पर रखते हुए भाजपा समर्थित राजग उम्मीदवार को लोकसभा में चुनकर भेजा।)यह अच्छा है या बुरा? दीर्घकालिक दृष्टि से यह शायद सभी के भले की बात है, पर लगता है निकट भविष्य में इससे उठा-पठक हो सकती है। चाहे संस्थान हो या कोई व्यक्ति, जैसे ही असफलता से सामना होता है तो पहली प्रतिक्रिया होती है अपनी जानी-पहचानी चाल की सुरक्षा तलाशना। मुस्लिम लीग और केरल कांग्रेस ने अपनी जमातों के हितों के नाम पर सफलता का स्वाद चखा है। “आओ और हमें वोट दो, क्योंकि केवल हम ही अपने समुदाय के हितों की देखभाल कर सकते हैं।”मैं इस सहज मान्यता पर अंगुली उठाता हूं कि केरल में “मुस्लिम” अथा “ईसाई” हित जैसी कोई चीज है। यह तो राज्य के हर व्यक्ति के हित में है कि वह शिक्षा स्तर में गिरावट रोकने के लिए कुछ करे, प्रशासन तंत्र को राजनीति से मुक्त करने, बढ़े आकार के सार्वजनिक क्षेत्र से श्रमिकों को घटाने और राज्य के निवेश की बजाय अनुदानों पर ज्यादा से ज्यादा आश्रित होते जाने के खतरनाक चलन के लिए कुछ करे। ये ऐसे मुद्दे हैं जो निश्चित रूप से किसी समुदाय विशेष तक सीमित नहीं हैं।परन्तु मुद्दे की खोज करने वाला एक हकबकाया राजनीतिज्ञ इसे ऐसा दिखा सकता है मानो एक वर्ग विशेष को निशाना बनाया जा रहा हो। प्राथमिक विद्यालयों से लेकर कालेजों तक कई शैक्षिक संस्थान ईसाइयों द्वारा चलाए जा रहे हैं; इनमें किसी भी तरह से सुधार की कोशिश को “अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर हमला” कहकर घुमाव दिया जा सकता है।इस तरह की किसी भी कोशिश को शुरुआत में ही रोकना है तो- कांग्रेस और माकपा – दोनों ओर से शक्तिशाली नेतृत्व की जरूरत होगी। अपनी पार्टी को एकजुट रखने की एंटोनी की कोशिश और परिवार के प्रति करुणाकरन के अनुराग ने यह तो पक्का कर दिया कि इन दोनों में से किसी के भी पास राज्य के हितों की चिंता का समय न बचे। अब केवल यही प्रार्थना की जा सकती है कि ऊमेन चेंडी कुछ बेहतर काम करें। 02.09.0429
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