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किसकी आंखें नम हुईं उन्हें याद करके?
उनकी शहादत किसके लिए?
-राजीव श्रीनिवासन
भारतीय सैनिकों को इराक भेजने की सम्भावना के सम्बंध में हाल ही में दिए गए विदेश मंत्री नटवर सिंह के बयान को लेकर खासा विवाद उठ खड़ा हुआ। इस बयान ने कइयों के मन में उस औपनिवेशिक सोच को ताजा कर दिया जिसमें भारतीय इसलिए प्राण देते थे ताकि गोरे बचे रहें। इसे पश्चिम में गंगादीन-वाद भी कहते हैं। गंगादीन एक बेचारगी भरे उस भारतीय चरित्र का नाम है जिसे गोरे अपने स्वार्थों के लिए महज इस्तेमाल भर करके फेंक देते हैं। अनेक लोगों ने हीनभावना के इस निष्कृष्ट उदाहरण के विरुद्ध आवाज बुलन्द की। लेकिन हममें से अधिकतर लोग भारत में भी पिछले कुछ समय से फैल रही ऐसी ही उपनिवेशवादी सोच को देखने में विफल रहे हैं। भारतीय सेना के प्रति कश्मीरी मुसलमानों के व्यवहार में इसकी बानगी साफ तौर पर देखने को मिलती है। भारत, कश्मीरियों के लिए एक आर्थिक उपनिवेश बन चुका है। और अब तो यह भी साफ हो गया है कि भारत उनके लिए एक सैन्य उपनिवेश भी बन चुका है। भारतीय सैनिक कश्मीरियों की सुरक्षा के लिए अपने प्राण न्योछावर कर रहे हैं, जिसके बदले में उन्हें कश्मीरी मुसलमानों से अपमान ही मिल रहा है।
हालांकि मुझे अब तक, इस तरह के अपमान का अभ्यस्त हो जाना चाहिए था। किन्तु 23 मई, 2004 को हुए हादसे ने उस समय मुझे बुरी तरह हिला दिया, जब काजीगुंड के नजदीक निचले मुंडा में सीमा सुरक्षा बल के तैंतीस जवान और उनके परिजन मारे गए। कहा गया कि सैन्य परिवारों के विरुद्ध यह सबसे बड़ा आतंकवादी हमला था। और विडम्बना देखिए कैसा वक्तव्य जारी किया गया, “सैन्य परिवारों के विरुद्ध अकेला सबसे बड़ा हमला।” इस तरह के हमलों को अंजाम देने वालों को किसी भी तरह की कोई कीमत नहीं चुकानी पड़ती। आखिर उन्हें कैसे मजबूर किया जाए कि वे ऐसा दुस्साहस फिर न करें।
हमारे इस तरह के व्यवहार से ही भारत के दुश्मनों को लगता है कि निस्संदेह एक उदार राष्ट्र है। हाल ही में वरिष्ठ रक्षा विश्लेषक ब्राह्म चेलानी ने इसे “बलि के लिए तैयार” (भेड़) राज्य की संज्ञा दी, जो कसाईखाने में गर्दन कटवाने के लिए तैयार है। किसी भी दूसरे देश में, सशस्त्र सेनाओं और विशेष रूप से उनके परिवारों के विरुद्ध हमलों को घोर अपमान के रूप में देखा जाता है और उसका जवाब कड़ी दंडात्मक कार्रवाई के रूप में दिया जाता है। शहीद और घायल जवानों की बहादुरी के किस्से-कहानियों से समाचारपत्र भरे होते हैं। नेताओं में उनके प्रति सम्मान प्रदर्शित करने को लेकर आपस में होड़ लगी रहती है, जैसे कुछ दिन पहले अमरीका में नामी-गिरामी हस्तियां दिवंगत रोनाल्ड रीगन की प्रशस्ति में जुटी थीं।
पर भारत में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। मीडिया में किसी ने भी शहीदों के परिवारों और उनके शोक-संतप्त रिश्तेदारों के बारे में कुछ भी छापने की जरूरत नहीं समझी। यहां तक कि केन्द्र में सत्तारूढ़ संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के नेताओं ने घायलों के प्रति सहानुभूति व्यक्त करने के लिए उनके पास जाने तक की भी जहमत नहीं उठाई। किसी भी तरह की कोई राष्ट्रव्यापी अपील जारी नहीं की गई। किसी ने भी नृशंसतापूर्वक मार दिए गए इन निर्दोषों की आत्मा की शांति के लिए मोमबत्तियां नहीं जलाईं। यह मात्र एक सामूहिक क्षति थी, जिसके बारे में सत्तारूढ़ नेताओं को विचार करने की भी फुर्सत नहीं है।
मेरे हिसाब से देश के नेताओं, मीडिया और कतिपय बुद्धिजीवियों की यह गलती माफ नहीं की जा सकती। क्या सशस्त्र सेनाओं के जवानों की जान इतनी सस्ती है? क्या इसलिए कि वे हमारी तरह नहीं हैं? अगर ऐसा ही है तो भारत में एक ऐसे अनिवार्य प्रावधान की आवश्यकता है, जिससे ऊंचे और असरदार लोगों के बच्चों को भी आम जीवन की तपिश झेलनी पड़े। उल्लेखनीय है कि चेन्नई से प्रकाशित समाचारपत्र “हिन्दू”, जिसकी छवि निश्चित रूप से एक राष्ट्रवादी की नहीं है, ने जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री के घटनास्थल पर न जाने को लेकर कड़ी टिप्पणी की। (देखें बाक्स)
अब यह एक आम आदत बन चुकी है। मुफ्ती मोहम्मद सईद ने बंदूक थामे युवकों, अलगाववादियों और आतंकवादियों के प्रति अपार सहानुभूति दिखाई है। पर वे उनके द्वारा पंडितों को लेकर जरा भी चिंतित नहीं हैं। मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि कोई भी स्वाभिमानी राष्ट्र अपने एक राज्य की बागडोर ऐसे व्यक्ति के हाथों में कैसे सौंप सकता है। “द हिन्दू” के अनुसार यह व्यक्ति देश की क्षेत्रीय अखंडता को दांव पर लगाने की कोशिश कर रहा है। हाल में ही मुफ्ती मोहम्मद सईद की बेटी महबूबा मुफ्ती ने घोषणा की थी कि कश्मीरी महिलाओं को मानवाधिकारों द्वारा संरक्षण की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वे पहले से ही शरीयत के तहत सुरक्षित हैं। अब जरा इसके निहितार्थ पर विचार कीजिए। वह स्पष्ट कह रही हैं कि सभी कश्मीरी महिलाएं, मुस्लिम हैं या मुसलमान बन जाएं, क्योंकि शरीयत केवल मुस्लिम महिलाओं पर लागू होती है। क्या वे कश्मीर में हिन्दू पंडितों द्वारा अपने पैतृक घरों को छोड़कर शरणार्थी की तरह जीवन बिताने का समर्थन कर रही हैं या उनके जबर्दस्ती मतान्तरण का सुझाव दे रही हैं? याद करें कि 1985 में अनंतनाग में हुए नरसंहार में लाउडस्पीकर पर सरेआम कहा गया था कि कश्मीर से भागने वाले हिन्दू अपनी महिलाओं को वहीं छोड़ जाएं। एक पंथनिरपेक्ष देश में ये बयान और नृशंस घटनाएं हिला देने वाली हैं। एक निर्वाचित मुख्यमंत्री और उनकी सांसद पुत्री एक तरह से मजहब के नाम पर जनता में भेदभाव के लिए पूरी तरह दोषी हैं। वे इस्लामी सोच वाले तो लगते ही हैं और साफ तौर पर हिन्दू विरोधी भी। और केन्द्र में सत्तारूढ़ संप्रग सरकार इन लोगों की सहयोगी है। यह किसी भी तरह से पंथनिरपेक्षता नहीं है। मुझे निचले मुंडा में हुए नरसंहार के बाद सीमा सुरक्षा बल के मृतक जवानों और उनके परिवार वालों के नाम खोजने में खासी परेशानी का सामना करना पड़ा। अंत में मुझे 24 मई के चंडीगढ़ ट्रिब्यून में सूची मिली। (देखें बाक्स)
शहीद हुए सीमा सुरक्षा बल के
जवान एवं उनके परिजनों की सूची
इंस्पेक्टर के.के. झा, सबइंस्पेक्टर सी.डी. शर्मा (98 बटालियन), हेडकांस्टेबल बी.के. सरकार (43 बटालियन), हेडकांस्टेबल ओंकारचंद (57 बटालियन), हेडकांस्टेबल होशियार सिंह (141 बटालियन), हेडकांस्टेबल आर.सी. द्विवेदी (6 बटालियन), हेडकांस्टेबल/ड्राइवर मातन सिंह (सीमांत मुख्यालय), कांस्टेबल वीरेन्द्र सिंह (57 बटालियन), कांस्टेबल राजकुमार (8 बटालियन), कांस्टेबल हनुमान थापा (56 बटालियन), कांस्टेबल हरिन्द्रराम (56 बटालियन), कांस्टेबल चिराग कुमार चौहान (56 बटालियन)।
जवानों के मृतक परिजनों की सूची-
इंस्पेक्टर के.के. झा की पत्नी श्रीमती पी. झा, बेटी पूजा झा और बेटा सुजला झा, श्री हीरालाल-सिपाही बलबीर चंद का भाई, श्री सुरेश कुमार-रसोइया राजेश कुमार का भाई, श्री सोहनलाल-जीतराज का भाई, श्री सोनू-बेजैती बाई का मेहमान, माली इंदर सिंह के पिता गुलाब सिंह, भाई श्री कमलकिशोर और श्री उदयभान तथा मां श्रीमती घीसूबाई, श्री पूरन सिंह- हेडकांस्टेबल ड्राइवर शेर सिंह के जीजा, बहन इंदु रानी, भांजे- करमदीप तथा नवदीप, भांजी- तन्वी, श्रीमती उषा देवी- सफाईकर्मी मुकेश सिंह की रिश्तेदार।
घायलों की सूची –
सिपाही एम. नदीम, कांस्टेबल ड्राइवर राजकुमार, सफाईकर्मी सना अवतार, कांस्टेबल प्रदीप सिंह के भाई श्री संदीप कुमार, एम. रामपाल के भाई श्री सुरेन्द्र।
13 जून को कश्मीर के पहलगांव में आतंकवादियों द्वारा एक होटल में हथगोला फेंकने की घटना भी घटी। इस घटना में निर्दोष पर्यटक शाह, उनका दस वर्षीय बेटा यश और आठ वर्षीय बेटी हिरल मारी गई और उनकी पत्नी रिंपल गंभीर रूप से घायल हो गईं। रिंपल अस्पताल में भर्ती हैं। ध्यान दें कि मृतकों और घायलों में सभी हिन्दू या सिख थे, इससे पता चल जाता है कि क्यों किसी ने उन पर ध्यान देना उचित नहीं समझा। क्यों इनमें से कोई भी देश की चिंता का कारण नहीं बना। यह किसी भी तरह से समानता का व्यवहार नहीं है, क्योंकि सरकार और मीडिया द्वारा भारतीय-मत-पंथों के प्रति भेदभाव बरता जाता है। सभी के लिए समान न्याय नहीं है। पंथनिरपेक्ष और अल्पसंख्यक जैसी परिभाषाओं को सामान्य बातचीत में पूरी तरह से रोक लगा देनी चाहिए, क्योंकि वे पूरी तरह अर्थहीन हैं। तिस पर भी उन्होंने एक समूची पीढ़ी की सोच को प्रदूषित करने के साथ धोखे में रखा है। देश की सशस्त्र सेनाओं के साथ इस तरह का व्यवहार करने का यह कोई तरीका नहीं है।6
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