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प्रतिनिधिविश्व के आध्यात्मिक-सांस्कृतिक-धार्मिक गौरव से प्रतिष्ठित भारतीय संस्कृति में जहां व्यक्ति की साधना, आराधना और जीवन पद्धति को परिष्कृत करने पर जोर दिया गया है, वहीं पवित्र तीर्थस्थलों और वहां आयोजित होने वाले पर्वों व महापर्वों के प्रति आदर, श्रद्धा और भक्ति का पावन भाव भी प्रमुखता से रेखांकित किया गया है।विश्वप्रसिद्ध सिंहस्थ एक धार्मिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महापर्व है, जिसमें भाग लेकर व्यक्ति को आत्मशुद्धि और आत्म-कल्याण की अनुभूति होती है। यहां आकर लाखों आस्थावान, श्रद्धालुजन न केवल परम्परा का परिपालन करते हैं, अपितु शास्त्रानुमोदित प्राचीन वैदिक संस्कृति की गरिमा से परिपूर्ण पद्धति के निर्वहन का सत्प्रयास भी करते हैं।सिंहस्थ महापर्व पर विश्वभर से साधु-महात्माओं, सिद्धों, साधकों व सन्तों का आगमन होता है, जिनके सानिध्य में आकर सद्गृहस्थ अथवा जिज्ञासु अपने लौकिक जीवन की समस्याओं के समाधान ढूंढता है तथा अपने जीवन को निरंतर उध्र्वगामी बनाकर मुक्ति की कामना करता है। मुक्ति का अर्थ ही बंधनों का न रहना है। मोह का क्षय हो जाना ही मोक्ष है। पुरुषार्थों में मोक्ष की प्राप्ति व्यक्ति की अंतिम मंजिल है, जिसे पाकर वह जीवन-मरण से मुक्त हो जाता है। ऐसे महापर्वों में ऋषि-मुनि अपनी साधना छोड़कर जनकल्याण के लिए एकत्रित होते हैं। वे अपने अनुभव और अनुसंधान से प्राप्त परिणामों को मुमुक्षुओं के लिए सहज उपलब्ध कराते हैं।सिंहस्थ महापर्व में ऋषि-महर्षि, साधु-सन्तों और विद्वतजन का समागम राष्ट्र की ऐहिक तथा पारलौकिक व्यवस्था को सुदृढ़ करता है। इससे जहां आत्मीयता एवं धार्मिक सौहार्द का वातावरण तथा सामाजिक समन्वय का प्रकटीकरण होता है वहीं अखण्ड राष्ट्र की परिकल्पना को भलीभांति साकार करने की प्रेरणा भी मिलती है।जघान वृत्रं स्वधितिर्वनेव रुरोज पुरो अरदन्न सिन्धून्।बिभेद गिरि नवमिन्न कुम्भमा गा इन्द्रो अकृणुत स्वयुग्भि:।।(ऋग्वेद 10/89/7)कुम्भ पर्व में जाने वाला मनुष्य स्वयं दान-होमादि सत्कर्मों के फलस्वरूप अपने पापों को वैसे ही नष्ट करता है जैसे कुठार वन को काट देता है। जैसे गंगा अपने तटों को काटती हुई प्रवाहित होती है, उसी प्रकार कुम्भ पर्व मनुष्य के पूर्व संचित कर्मों से प्राप्त शारीरिक पापों को नष्ट करता है और नूतन (कच्चे) घड़े की तरह बादल को नष्ट-भ्रष्ट कर संसार में सुवृष्टि प्रदान करता है।कुम्भी वेद्यां मा व्यथिष्ठा यज्ञायुधैराज्येनातिषित्का(ऋग्वेद)हे कुम्भ-पर्व, तुम यज्ञीय वेदी में यज्ञीय आयुधों से घृत द्वारा तृप्त होने के कारण कष्टों का अनुभव मत करो।युवं नरा स्तुवते पज्रियाय कक्षीवते अरदतं पुरंधिम्।कारोतराच्छफादश्वस्य वृष्ण: शतं कुम्भां असिंचतं सुराया:।।(ऋग्वेद 1/116/7)कुम्भो वनिष्ठुर्जनिता शचीभिर्यस्मिन्नग्रे योन्यांगर्भो अन्त:।प्लाशिव्र्यक्त: शतधारऽउत्सो दुहे न कुम्भी स्वधां पितृभ्य:।।(शुक्ल यजुर्वेद 19/87)कुम्भ पर्व सत्कर्म के द्वारा मनुष्य को इस लोक में शारीरिक सुख देने वाला और जन्मान्तरों में उत्कृष्ट सुखों का देने वाला है।आविशन्कलश सुतो विश्र्वा अर्षन्नभिश्रिय:। इन्दूरिन्द्रायधीयते।।(सामवेद पू. 6/3)पूर्ण कुम्भोऽधि काल आहितस्तं वै पश्यामो बहुधा नु सन्त:।स इमा विश्र्वा भुवनानि प्रत्यंकालं तमाहु: परमे व्योमन्।।(अथर्ववेद 19/53/3)हे सन्तगण। पूर्णकुम्भ बारह वर्ष के बाद आया करता है, जिसे हम अनेक बार प्रयागादि तीर्थों में देखा करते हैं। कुम्भ उस समय को कहते हैं जो महान आकाश में ग्रह-राशि आदि के योग से होता है।चतुर: कुम्भांश्र्चतुर्धा ददामि।(अथर्ववेद 4/34/7)ब्राह्मा कहते हैं- हे मनुष्यो! मैं तुम्हें ऐहिक तथा आयुष्मिक सुखों को देने वाले चार कुम्भ चार स्थानों -हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक- में प्रदान करता हूं।कुम्भीका दूषीका: पीयकान्।(अथर्ववेद 16/6/8)वस्तुत: वेदों में वर्णित महाकुम्भ की यह सनातनता ही हमारी संस्कृति से जुड़ा अमृत महापर्व है, जो आकाश में गृह-राशि आदि के संयोग से 4 अप्रैल, 2004 से 5 मई, 2004 तक की अवधि में उज्जयिनी में बहने वाली सदानीर शिप्रा के तट पर समुपस्थित हो रहा है। प्रतिनिधि19
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