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विद्यानिवास मिश्र, सांसद, राज्यसभाउज्जैन का महाकुम्भ प्रति 12 वर्ष बाद (बृहस्पति द्वारा पूरा राशि चक्र घूम जाने का समय) जब सिंह में बृहस्पति और मेष में सूर्य आते हैं, मनाया जाता है। इस अवसर पर क्षिप्रा के तट पर विशाल जनमानस एकत्र होता है। न किसी को वैशाख मास के भीषण ताप की चिन्ता होती है और न पानी की कमी की। केवल इस अवधि में उज्जैन में अमृत कुम्भ के अवतरण को आत्मसात करने की आकांक्षा प्रबल रहती है। पुराणों में वर्णित समुद्र मंथन की कथा किसी काल विशेष की ही कथा नहीं है। वह मनुष्य के भीतर समय-समय पर होने वाले आत्ममंथन की कथा है। इस आत्ममंथन में पहले विष ही निकलता है। अमृत सबसे अन्त में निकलता है। बड़े धैर्य से उसकी प्रतीक्षा करनी होती है। उज्जैन के कुम्भ का नाम ही पड़ गया है सिंहस्थ। यद्यपि सिंह में बृहस्पति और मेष में सूर्य के आने पर नासिक में भी कुम्भ पड़ता है। नासिक का कुम्भ पिछले वर्ष सावन-भादों में लगा था। इन दोनों के अलावा मकर में बृहस्पति के प्रवेश पर प्रति 12 वर्ष पर माघ महीने में प्रयाग में और मेष में बृहस्पति के प्रवेश पर हरिद्वार में कुम्भ लगता है। बारह वर्ष का समय भारतीय कालगणना की दृष्टि में बड़ा महत्वपूर्ण है। वह 12 आदित्यों का सूचक है। महाकुम्भ का योग बृहस्पति, सूर्य और चन्द्रमा के विशेष राशियों के स्थित होने से होता है। इन तीनों ग्रहों का विशेष महत्व है। जहां सूर्य बाहरी आंख है और मन भीतरी आंख है, वहीं बृहस्पति अन्त:प्रज्ञा की तीसरी आंख है। हिन्दू जीवन में दर्शन का अर्थ ही है देखना, साक्षात्कार करना और पूरा साक्षात्कार करना। देखने वाली इन्द्रिय आंख सभी इन्द्रियों का उप-लक्षण है। अर्थात् साक्षात् अनुभव, चाहे किसी इन्द्रिय से हो प्रत्यक्ष कहा जाता है। अमृत का अनुभव भी प्रत्यक्ष होता है। तभी उनकी सार्थकता है। अमृत का अर्थ और कुछ नहीं, मरने से इनकार है, मृत्यु का निषेध है। मृत्यु के परे जीवन के अछोर विस्तार में विश्वास है। अमृत मंथन का अर्थ इसी प्रकार की अमरता की प्राप्ति है। यह अमरता अपने को विराट के साथ जोड़ने से अनुभूत होती है। कुम्भ प्राय: किसी न किसी नदी के किनारे होता है। नदी अव्यक्त चेतना और निरन्तरता का ही दूसरा रूप है। जीवन की अनन्तता व अखण्डता का बोध ही जीवन की अमरता का बोध है और यह बोध ऐसे पर्वों पर एक साथ असंख्य लोगों को होता है। ऐसे अवसरों पर इतनी बड़ी संख्या (दो करोड़ तीन करोड़) में लोग कैसे एक स्थान में एकत्र हो जाते हैं और कैसे सारी व्यवस्था सम्पन्न हो जाती है? कैसे लोग अनुशासित रहते हैं? भीड़ में भी कैसे अलग-अलग अपने अन्त:करण में डूबे रहते हैं? यह बिना किसी दिव्य शक्ति के संभव नहीं है। इसी दिव्य शक्ति के सामूहिक आह्वान के लिए भारतवर्ष के सभी संप्रदाय एकत्र होते हैं और वे अध्यात्ममय जीवन के जटिल प्रश्नों से संवाद स्थापित करने के लिए आते हैं। यह अलग बात है कि वास्तविक प्रयोजन की स्मृति सो सी गई है पर वह लुप्त नहीं हुई है। जनसाधारण में यह आज भी जाग्रत है और कुंभ में केवल जन-समागम नहीं होता, बल्कि एक विशाल एकाग्रता का बोध भी होता है। सब इतने अलग-अलग और गंभीर गहराई में एक-दूसरे की चेतना के प्रभाव से जुड़े हुए हैं-यह अनुभव ही महाकुम्भ का मुख्य प्रयोजन है। इससे सम्बंध कर्मकाण्ड तभी सार्थक होते हैं जब वे इस प्रयोजन की संसिद्धि में सहायक होते हैं। भारत को जानने में सबसे बड़ी भूमिका सहस्राब्दियों से ऐसे तीर्थयात्रियों की रही है। इसके लिए न तो कोई विज्ञापन होता है और न लोगों को निमंत्रण बांटा जाता है। बस, लोग पंचांग देखकर स्वयं ही तैयारी करने लगते हैं। इस तैयारी के पीछे थोड़े से अपवादों को छोड़कर किसी की इच्छा तमाशा देखने की नहीं रहती और न ही सर्वसाधारण को किसी भौतिक वस्तु की प्राप्ति की इच्छा रहती है। बस अपनी निजता खोकर विराट से एकाकार होने की इच्छा रहती है। उल्लेखनीय है कि ऐसे अवसरों पर कोई किसी की पहचान की चिन्ता नहीं करता, न किसी ऊंच-नीच की चिन्ता करता है। बिना ढोल पीटे समरसता का ऐसा प्रतिमान इन अवसरों पर देखने को मिलता है कि मन से सारी आशंकाएं दूर हो जाती हैं कि यह देश तरह-तरह से बंटा हुआ है। मेरी समझ में यही कुंभ की सार्थकता है और भारत के लगभग केन्द्र में स्थित उज्जैन और उसके अधिष्ठाता देवता महाकाल के परिसर में आया सिंहस्थ कुम्भ अपने आपमें एक ब्राह्माण्ड है और उस ब्राह्माण्ड का साक्षात्कार है।8
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