उज्जयिनी की गुरु-शिष्य परम्परा का अद्वितीय नक्षत्र
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उज्जयिनी की गुरु-शिष्य परम्परा का अद्वितीय नक्षत्र

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Nov 4, 2004, 12:00 am IST
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दिंनाक: 04 Nov 2004 00:00:00

सांदीपनि आश्रम-प्रतिनिधिइक्कीसवीं सदी के विश्वप्रसिद्ध सिंहस्थ महापर्व की आयोजनस्थली उज्जयिनी प्राचीन काल से शिक्षा का एक केन्द्र रही है। शिक्षास्थली के रूप में यह नगरी नालन्दा और काशी के पूर्व से स्थापित रही है। योगेश्वर श्रीकृष्ण ने अपने अग्रज बलराम और सखा सुदामा के साथ लगभग 5,000 वर्ष पूर्व तपोनिष्ठ महर्षि सांदीपनि के श्रीचरणों में बैठकर जो शिक्षा-संस्कार प्राप्त किए थे, वे ही कालान्तर में श्रीमद्भगवद्गीता की ज्ञानगंगा के रूप में प्रस्फुटित हुए।पूरा संसार जब अज्ञान, अशिक्षा एवं अंधकार में भटक रहा था तथा आज के कई आधुनिक माने जाने वाले राष्ट्रों का अभ्युदय तक नहीं हुआ था, तब भारत की ह्मदयस्थली उज्जयिनी में महर्षि सांदीपनि का गुरुकुल अपने उत्कर्ष पर था। शिक्षा के उदात्त मूल्यों से ओत-प्रोत गुरुकुलों में वेद- वेदांगों और उपनिषदों सहित चौंसठ कलाओं की शिक्षा दी जाती थी। साथ ही न्याय शास्त्र, राजनीति शास्त्र, धर्म शास्त्र, नीति शास्त्र, अस्त्र-शस्त्र संचालन की शिक्षा भी दी जाती थी। भारत के सभी कोनों से शिष्यगण यहां शिक्षा प्राप्त करने आते थे। यज्ञोपवीत संस्कार होने के बाद ही आश्रम में प्रवेश मिलता था तथा शिष्यों को आश्रम व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मचर्य के नियमों का पालन करना होता था। आश्रम में ज्ञान प्राप्त करने आये विद्यार्थियों को तभी प्रवेश मिलता था, जब वे गुरु को गोत्र परम्परा के साथ अपना पूरा परिचय देते थे। यहां विद्यार्थियों की अन्तर्निहित क्षमताओं को विकसित करने की शिक्षा के साथ-साथ उसकी बहुमुखी मेधावी क्षमताओं को भी गुरु तराशते थे।यज्ञोपवीत के पश्चात् ही श्रीकृष्ण अवन्ती के सांदीपनि आश्रम आये थे। उस समय उनकी आयु मात्र 12 वर्ष थी और अपनी अलौकिक व चमत्कारिक उपलब्धियों के कारण वे पर्याप्त यश एवं ख्याति अर्जित कर चुके थे। तीक्ष्ण-बुद्धि के छात्र होने के कारण कृष्ण और बलराम ने बहुत कम समय में ही विभिन्न कलाओं और शास्त्रों की शिक्षा प्राप्त कर ली थी। भागवत, हरिवंश, ब्राह्मपुराण आदि ग्रंथों में सांदीपनि आश्रम में श्रीकृष्ण-बलराम और सुदामा द्वारा 64 कलाएं और 14 विद्याएं सीखने की अवधि मात्र 64 दिन बताई गई है।उज्जयिनी के आश्रमों में अध्ययन-व्यवस्था अत्यंत अनुशासित थी जिनमें गुरु-शिष्य एक साथ रहते थे और शिष्य गुरु के प्रति पूर्णरूपेण समर्पित होता था। शिष्य का यह पावन कर्तव्य था कि वह गुरु को सदैव प्रसन्न रखे। गुरु अपने शिष्य में ज्ञान के साथ विनय का समावेश कर अहंकाररहित शिक्षा को जीवन में उतारने की शाश्वत शिक्षा देता था। श्रीकृष्ण ने भी उसी परम्परा का निर्वहन किया और वे महर्षि सांदीपनि एवं गुरुमाता की विनम्रतापूर्वक सेवा-सुश्रुषा करते रहे। सांदीपनि आश्रम के अधिष्ठाता तपोनिष्ठ गुरु सांदीपनि अवन्ती के काश्यप गोत्र में जन्मे ब्राह्मण थे। वे वेद, धनुर्वेद, शास्त्रों, कलाओं और आध्यात्मिक ज्ञान के प्रकाण्ड विद्वान थे। वे अपने शिष्यों से असीम प्रेम करते थे। यहीं श्रीकृष्ण ने पट्टी पर अंक लिखकर धोया था। यहां अंकों का पात होने से इसे अंकपात तीर्थ भी कहा जाता है। श्रीकृष्ण ने गुरुमाता के कहने पर उनके खोये हुए पुत्रों को यमलोक से लौटाकर गुरु दक्षिणा चुकाई थी।सांदीपनि आश्रम छोड़ने के पूर्व श्रीकृष्ण ने गुरु सांदीपनि के साथ श्री महाकालेश्वर का सहस्रनाम लेकर बिल्वपत्र द्वारा अभिषेक किया था। सिंहस्थ महापर्व पर करोड़ों श्रद्धालुजन इस आश्रम का दर्शन कर ज्ञान प्राप्ति की कामना करते हैं। सिंहस्थ के दौरान यह सारा क्षेत्र सजीव हो उठता है। उस समय यहां गुरुओं के सान्निध्य में उनके सुयोग्य शिष्य साधना, अध्ययन-मनन एवं शिक्षा प्राप्त करते हुए सहज रूप से देखे जा सकते हैं। तब लगता है कि पुन: गुरु-शिष्य परम्परा का यह शैक्षणिक महातीर्थ सजीव हो उठा है।18

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