अमृतपान का महापर्व
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अमृतपान का महापर्व

by
Nov 4, 2004, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 04 Nov 2004 00:00:00

संदीप गुप्ता

कार्यकारी सम्पादक, दैनिक जागरण

मानव जीवन का चरम लक्ष्य है- अमृत की प्राप्ति। युगों से मनुष्य अमृतत्व की खोज में प्रयत्नशील है। “कुम्भ” भारतीय संस्कृति की आस्था और विश्वास का महान पर्व है जो समस्त प्राणियों को अमृत-पान का स्वर्णिम अवसर प्रदान करता है। ऋषि-मुनियों ने इस महोत्सव की महिमा का बखान करते हुए यहां तक कह दिया है-

अश्वमेध सहस्राणि वाजपेय शतानि च।

लक्षं प्रदक्षिणा भूमे: कुम्भस्नाने तत्फलम्।।

हजार अश्वमेध यज्ञ और सौ वाजपेय यज्ञ से तथा एक लाख बार पृथ्वी की परिक्रमा करने से जो फल मिलता है, वही पुण्यफल केवल कुम्भ-स्नान से प्राप्त हो जाता है।”

अक्षय पुण्य एवं अमृतत्व की अभिलाषा ही समाज के सभी वर्गों को आकृष्ट करके उन्हें देश के कोने-कोने से खींचकर कुम्भ-स्थल तक ले आती है। विश्व का यह सबसे बड़ा “जनसंगम” बिना किसी प्रलोभन या दबाव के शताब्दियों से सम्पन्न होता आ रहा है।

शुक्लयजुर्वेद (19-87) कहता है-

कुम्भो वनिष्टुर्जनिता शचीभिर्यस्मिन्नग्रे योन्यां गर्भो अन्त:।

प्लाशिव्र्यक्त: शतधारउत्सो दुहे न कुम्भी स्वधां पितृभ्य:।।

“कुम्भ सत्कर्म के द्वारा मनुष्य को इहलोक में शारीरिक सुख देने वाला और जन्मान्तरों में उत्कृष्ट सुखों को देने वाला है।”

अथर्ववेद (19-53-3) में भी कुम्भ की विवेचना मिलती है-

पूर्ण: कुम्भोऽधि काल आहितस्तं वै पश्यमो बहुधा नु सन्त:।

स इमा विश्वा भुवनानि प्रत्यङ्कालं तमाहु: परमे व्योमन।।

पूर्णकुम्भ बारह वर्ष के बाद आता है, जिसे हम हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में देखा करते हैं। कुम्भ उस पर्व को कहते हैं जो काल-विशेष में आकाश में ग्रह-राशि के विशिष्ट संयोग से होता है।

अथर्ववेद (4-34-7) में ब्रह्माजी कहते हैं-

चतुर: कुम्भांश्चतुर्धा ददामि।

“हे मनुष्यो! मैं तुम्हें ऐहिक तथा पारलौकिक सुख देने वाले चार कुम्भ पर्व चार स्थानों (हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक) में प्रदान करता हूं।”

कुम्भ प्राचीनकाल से ही भारतीय संस्कृति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण महापर्व रहा है। कुम्भ के संदर्भ में पुराणों में तीन अलग-अलग कथाएं मिलती हैं। उनमें से सबसे प्रचलित कथा के अनुसार जब देवताओं और दैत्यों ने मिलकर समुद्र का मंथन किया, तब उसमें से जो 14 रत्न निकले, उनमें एक अमृत कलश भी था। अमृत पीकर अमरत्व प्राप्त करने की कामना से उस कलश पर कब्जा करने के लिए देवताओं और दैत्यों के बीच भीषण युद्ध छिड़ गया। देवराज इन्द्र का पुत्र जयन्त अमृत-कलश को किसी तरह लेकर भाग निकला। दैत्यों ने उसका पीछा किया। पीछा करने के दौरान देवताओं और दैत्यों के बीच 12 दिन तक संघर्ष हुआ। इस अवधि में प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक, इन चार स्थानों पर दैत्यों ने जयंत से अमृत-कुंभ छीनने का प्रयास किया तो देवगुरु बृहस्पति, सूर्य और चन्द्रदेव के प्रयत्नों से ही कलश की रक्षा हो सकी। फिर भी इस छीना-झपटी में उस घट से अमृत की बूंदें छलक ही गर्इं जो उपर्युक्त चार तीर्थस्थानों पर गिरीं। तभी से इन चारों पुण्य क्षेत्रों में अमृत-प्राप्ति की कामना से कुम्भ पर्व का आयोजन होने लगा।

दूसरी कथा के अनुसार कश्यप ऋषि की पत्नियों कद्रु और विनता में जब सूर्य रथ में जुते घोड़ों के रंग को लेकर शर्त लग गई तो नागराज वासुकि नामक अपने पुत्र की सहायता से कद्रु छल द्वारा शर्त जीत गई। परिणामस्वरूप विनता को कद्रु की दासी बनना पड़ा। गरुड़ अपनी माता विनता को दासीत्व से मुक्त कराने के लिए जब अमृत-घट लेकर आ रहे थे तो उसे छीनने के लिए इन्द्र ने उन पर आक्रमण कर दिया। इसी संघर्ष में अमृत की कुछ बूंदें छलककर हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में गिरीं जिससे यहां पर अमृत-प्राप्त करने की आकांक्षा से कुम्भ-पर्व होने लगा।

तीसरी कथा यह मिलती है कि एक बार महर्षि दुर्वासा ने क्रोधावेश में जब देवराज इंद्र को शाप दे दिया, तब अन्ततोगत्वा पक्षीराज गरुड़ को नागलोक से अमृत-कुम्भ लेने जाना पड़ा। वापस लौटते समय उन्होंने जिन चार स्थानों हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में वह अमृत से पूर्ण कलश रखा, वे चारों कुम्भ-पर्व के पावनस्थल हो गए।

कुम्भ पर्व के आयोजन का सही मर्म भारत के जिन सम्राटों ने जाना, उनमें सम्राट हर्षवद्र्धन का नाम उल्लेखनीय है। सम्राट हर्षवद्र्धन ने कुम्भ को अपने जीवनकाल में विशेष महत्व दिया।

पुराणों में वर्णित लगभग सभी कथाओं में अमृत-कलश हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में रखने का उल्लेख मिलता है। कथा-वस्तु में भिन्नता होने पर भी सभी कथानकों से इन्हीं चार स्थानों पर अमृत-बिन्दु गिरने की जानकारी मिलती है। इस प्रकार कुम्भ-महोत्सव के आयोजन के लिए इन चार पवित्र स्थानों का चयन पूर्णत: निर्विवादित है। हमें आज जयंत और गरुड़ बनकर राष्ट्रीय चेतना के अमृतत्व की रक्षा करनी होगी। आज चारों ओर समाज में राग, द्वेष, हिंसा और ऐसी प्रवृत्तियां बढ़ चुकी हैं, जिनसे चारों ओर हाहाकार मचा हुआ है। वस्तुत: जब तक समाज की कुरीतियों और बुराइयों को दूर नहीं किया जाएगा, तब तक समाज का उद्धार तथा कल्याण नहीं होगा। दैत्यों से अमृत की रक्षा में सूर्य, चन्द्र और बृहस्पति ने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था। देवताओं के 12 वर्षों तक चले देवासुर संग्राम की अवधि में प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन एवं नासिक में अमृत-कलश रखे जाते समय सूर्य, चन्द्र और बृहस्पति जिस स्थिति (राशि) में थे, वे ग्रह-स्थितियां ही कुम्भ-निर्णय का सूत्र बन गर्इं। तभी तो शास्त्रों में कहा गया है-

माधवे धवलपक्षे सिंहे जीवे अजे रवौ तुलाराशौ निशानाथे।

स्वातिभे पूर्णिमा-तिथौ उज्जयिन्यां तथा कुम्भ-योगो जात: क्षमातले।।

“वैशाख मास के शुक्लपक्ष में पूर्णिमा तिथि में मेष राशि में सूर्य, तुला राशि के अंतर्गत स्वाति नक्षत्र के चन्द्र तथा सिंह राशि में बृहस्पति के संयोग से पृथ्वी पर उज्जैन (अवन्तिका) में कुम्भ का योग बनता है।”

आगामी 4 मई को ठीक यही ग्रह-स्थिति होने से उज्जैन में सिंहस्थ कुम्भ का मुख्य स्नान होगा। चूंकि सिंह राशि में गुरु के स्थित होने के दौरान पड़ने वाले कुम्भ को सिंहस्थ के नाम से भी जाना जाता है, इसलिए इसे सिंहस्थ पर्व भी कहा जा रहा है। सिंह राशि में गुरु का होना आध्यात्मिक साधना की दृष्टि से श्रेष्ठ माना जाता है। 4 मई को क्षिप्रा में लगभग एक करोड़ तीर्थयात्रियों के स्नान करने का अनुमान है। प्राच्य ग्रंथों में उज्जैन-कुम्भ के विषय मंे एक श्लोक यह मिलता है-

मेषराशिं गते सूर्ये सिंहराशौ बृहस्पतौ।

पौर्णिमायां भवेत्कुम्भ: उज्जयिन्यां सुखप्रदा।।

“मेष राशि पर सूर्य तथा सिंह राशि पर बृहस्पति की स्थिति होने से उज्जैन में कुम्भ-योग होता है, जो सदा मुक्ति प्रदान करता है।”

सूर्य मेष राशि में 13 अप्रैल को सायं 6 बजकर 2 मिनट पर प्रवेश करके 14 मई को दोपहर में 2.55 बजे तक रहेगा।

कुम्भ के अवसर पर भारतीय संस्कृति और धर्म से अनुप्राणित सभी सम्प्रदायों के अनुयायी एकत्रित होकर समाज, धर्म एवं राष्ट्र की एकता व अखण्डता के लिए विचार-विमर्श करते हैं। इस महोत्सव में जाति, धर्म, सम्प्रदाय, भाषा, संस्कृति, दर्शन, वेश-भूषा की अनेकता में एकता का दर्शन होता है। कुम्भ में मानव-कल्याण की अनेक विचारधाराओं का समागम होता है। इस प्रकार यह महापर्व हमारे सामाजिक संगठन के साथ-साथ भौगोलिक ऐक्य का भी सूचक है। कुम्भ के माध्यम से अर्जित होने वाली प्रचण्ड ऊर्जा को यदि राष्ट्र के उत्थान में विनियोजित कर दिया जाए तो यह भारतवर्ष के लिए अत्यंत शुभ होगा। लेकिन इसकी विधि खोजने के लिए हमें उसी निष्ठा के साथ विचार-मंथन करना होगा जैसे अमृत पान करने के लिए समुद्र-मंथन हुआ था और तभी कुम्भ-महोत्सव का उद्देश्य पूर्ण हो सकेगा।

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