|
कल ही पतझर सात समन्दर पार गया,
क्यों बगिया के सुमन बहकने लगे अभी!
चिन्ह शेष पंखुरियों पर विष-दन्तों के,
खंडित सपने भौरों और तितलियों के!
जले हुए नीड़ों में शव अवशेष पड़े,
शील भंग हो रहे अनेकों कलियों के!
गूंज रहीं जब घोर पतन की प्रतिध्वनियां,
क्यों सत्ता का आश्रय तकने लगे सभी!
क्यों बगिया के सुमन बहकने लगे अभी!
कल संसद की प्राचीरों पर पड़े हुए,
अभी रक्त के धब्बे सूख न पाए हैं।
जो बिहार में ध्वंस-घृणा के दौर चले,
वही असम की धरती ने दुहराए हैं!
बर्बरता के ज्वालामुखी घात में हैं
क्यों घर में अंगार दहकने लगे अभी।
क्यों बगिया के सुमन बहकने लगे अभी!
दलबन्दी के दांत गड़े वक्षस्थल में,
वैमनस्य के दुर्ग नहीं ढह पाए हैं।
भीष्म पितामह का तन छलनी करने को
अपनों ही ने मिलकर तीर चलाए हैं!
नए सूर्य-दर्शन का लक्ष्य सामने है,
क्यों प्रकाश के झंडे झुकने लगे अभी!
क्यों बगिया के सुमन बहकने लगे अभी!
22
टिप्पणियाँ