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हर पखवाड़े स्त्रियों का अपना स्तम्भमहिला पत्रकारों की स्थिति पर राष्ट्रीय महिला आयोग का सर्वेक्षणओह!तो यह है सच-निशा मित्तल साथ में दिल्ली ब्यूरोस्त्रीतेजस्विनीमंगलम्, शुभ मंगलम्विकास की दौड़ में अपने अधिकारों के लिए निरंतर प्रयासरत, अपनी पहचान को पूर्णता प्रदान करने के लिए आतुर नारी आज भी पुरुष प्रधान समाज में संघर्ष कर रही है। यद्यपि मीडिया ने महिलाओं में जागृति लाने तथा उन्हें सशक्त बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है किन्तु मीडिया में महिलाओं की स्थिति कैसी है, इसकी जानकारी लेने के लिए राष्ट्रीय महिला आयोग ने प्रेस इंस्टीटूट आफ इन्डिया के सहयोग से समाचार पत्र-पत्रिका प्रकाशन समूहों में कार्यरत महिला पत्रकारों के बारे में एक सर्वेक्षण कराया। देश के कोने-कोने में 3500 प्रश्नावलियों का वितरण कराया गया। किन्तु विडम्बना देखिए, निरंतर संपर्क में बने रहने तथा व्यक्तिगत प्रयासों के बाद भी मात्र 410 महिला पत्रकारों के उत्तर ही प्राप्त हो सके। अर्थात् इस सर्वेक्षण के परिणाम के रूप में केवल 11.5 प्रतिशत महिला पत्रकारों की ही भागीदारी रही। इसका कारण स्वयं महिला पत्रकारों में उदासीनता, नौकरी में असुरक्षा की भावना तथा “कुछ नहीं होने वाला” की सोच है। कई महिला पत्रकार प्रश्नावली में दिए गए प्रश्नों के उत्तर देने से डर रही थीं तो कुछ का कहना था कि वे पत्रकार हैं, महिला पत्रकार का ठप्पा वे नहीं चाहतीं।सर्वेक्षण में जिन बिंदुओं पर ध्यान केन्द्रित किया गया उनमें प्रमुख थे- महिला पत्रकारों के अधिकार, सुविधाएं, पदोन्नति, मातृत्व व शिशु संरक्षण अवकाश, रात्रि पाली में काम से सम्बंधित कठिनाइयां, यौन उत्पीड़न की समस्याएं तथा श्रमिक संगठन की सदस्यता आदि। इस सर्वेक्षण के निष्कर्ष कहीं सामान्य तथा कहीं चौंकाने वाले प्रतीत हुए।सर्वप्रथम यदि लिंग-भेद का मुद्दा लें तो देखने को मिलता है कि यद्यपि सिद्धांत रूप में महिला-पुरुषों का कार्यक्षेत्र समान है, परन्तु हिन्दी मीडिया में जहां महिलाओं का प्रतिशत औसत से काफी कम है, वहां अंग्रेजी मीडिया में यह ठीक है। कार्य-विभाजन की दृष्टि से देखा जाए तो महत्वपूर्ण कार्य सदैव पुरुषों को तथा अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण काम महिलाओं को दिए जाते हैं। कम महत्वपूर्ण काम महिलाओं को दिए जाने का कारण पारिवारिक उत्तरदायित्वों के कारण कार्यक्षमता पर प्रभाव पड़ना माना गया है।अपेक्षाकृत वेतन कम होना, अनुबंध के आधार पर नियुक्ति, नियुक्ति की शर्तों में पारदर्शिता न होना, नौकरी जाने की तलवार हर पल सिर पर लटकते रहना आदि समस्याएं मुख्य रूप से सामने आयीं। मातृत्व अवकाश भी बहुत कम महिला पत्रकारों को ही मिल सका, अधिकांश को सरलता से अवकाश नहीं मिला और यदि मिला भी तो उनकी वेतनवृद्धि या पदोन्नति पर उनका नकारात्मक प्रभाव पड़ा और सबसे चिंताजनक पहलू वह था, जिसमें महिला पत्रकारों को यह जानकारी थी ही नहीं कि मातृत्व अवकाश की सुविधा उन्हें प्राप्त हो सकती है। सर्वेक्षण में नवभारत टाइम्स की पूर्व मुख्य उप सम्पादक इरा झा ने अपनी आपबीती बतायी। इरा झा के अनुसार जब भी वह छुट्टी के लिए कहतीं तो अभद्र टिप्पणियां की जातीं। छुट्टी को महिला होने से जोड़ा जाता। यहां तक कि अपनी शादी के दिन भी इरा को कार्यालय जाकर काम निबटाना पड़ा। इरा आगे लिखती हैं, “जब मेरा बच्चा सिर्फ दो महीने का था, मुझे रात्रि पाली में काम करने को मजबूर किया गया और मां से दूर बच्चा दूध के लिए रोता रहता।” आखिर में सहने की सीमा जब चुक गई तो विरोध को स्वर देना शुरू किया, लिखित शिकायत भी की, लेकिन परिणामस्वरूप उन्हें नौकरी से निलम्बित कर दिया गया।सर्वाधिक चौंकाने वाले तथ्य यौन उत्पीड़न से सम्बन्धित समस्या के थे। इसके उत्तर में अधिकांश पत्रकार चुप्पी साध गयीं, क्योंकि उत्पीड़नकर्ता तो स्वयं उनके उच्च अधिकारी ही थे। लेकिन उन्होंने दबी जुबान से यह सच स्वीकार किया। सबसे अधिक दुखद स्थिति तो वह थी, जिसमें उन्होंने यौन उत्पीड़न को अपने कार्य का एक अंग ही मान लिया। बहुत कम अर्थात् केवल कुछ ने ही आवाज उठायी। लेकिन या तो सुनवाई नहीं हुई या नौकरी छोड़नी पड़ी। मात्र 1-2 प्रतिशत से कम मामलों में ही कुछ कार्रवाई हुई पर सजा किसी को नहीं मिली।सर्वेक्षण में इस संदर्भ में शकुन्तला सरूपरिया (स्थानीय प्रतिनिधि, दैनिक हिन्दुस्तान, उदयपुर) का उदाहरण दिया जाता है। 1996 से 2000 तक जब वह दैनिक भास्कर में थीं, तो तीन साल तक वहां वह अपने अधिकारी के यौन शोषण का शिकार होती रहीं।पदोन्नति पाने वाली महिला पत्रकारों की संख्या भी बहुत कम थी। पूर्ण सेवाकाल में कुछ ही भाग्यशाली महिला पत्रकार हैं, जिन्हें यथासमय पदोन्नति मिली। अधिकांश को तो मिली ही नहीं, अथवा एक या दो पदोन्नति मिली भी तो वेतन में कोई वृद्धि नहीं हुई।अंग्रेजी मीडिया में कार्यरत महिला पत्रकारों की स्थिति अपेक्षाकृत बेहतर थी, परन्तु वह भी स्थान-स्थान पर निर्भर करती है। कार्यरत महिला पत्रकारों की स्थिति तो कष्टदायी है। पामेला भगत द्वारा किए गए सर्वेक्षण पर आधारित लेख में कहा गया कि कई संस्थानों में पुरुष सहकर्मी उनकी उपस्थिति में ही इंटरनेट पर अश्लील फिल्में देखते हैं, अश्लील बातें करते हैं।अपवाद के रूप में मृणाल पांडे, लोगानायिकी, आर. पूर्णिमा तथा जय रानी, राशिदा भगत, के.एच.सावित्री जैसी अंगुलियों पर गिनने योग्य कुछ ही महिलाएं ऐसी हैं, जो असामान्य परिस्थितियों में भी ऊंचे स्थान पर पहुंचीं तथा उन्हें विशेष समस्या का सामना नहीं करना पड़ा।यद्यपि रपट में उत्पीड़ित महिला पत्रकारों के कई मामले सामने आए हैं। परन्तु दो मामले उल्लेखनीय हैं जिनमें एक भारतीय भाषा के समाचारपत्र में कार्यरत छायामुनि भुइयां का है तथा दूसरा टाइम्स आफ इंडिया में लम्बे समय तक कार्य करने वाली पत्रकार सबीना इन्द्रजीत का।छायामुनि भुइयां की कहानी भी कुछ कम आश्चर्यजनक नहीं। वे एक असमिया दैनिक में कार्यरत थीं। इनका चुनाव संयुक्त राष्ट्र सूचना सेवा कार्यक्रम के अन्तर्गत 11 सितम्बर को आतंकवादी हमले की प्रथम बरसी की “कवरेज” के लिए किया गया। उन्होंने बड़े परिश्रम व निष्ठा से अपना काम पूर्ण किया। उनके द्वारा अमरीका से भेजी गई रपटों को समाचारपत्र में प्रमुखता के साथ छापा गया। परंतु कार्यक्रम समाप्ति के बाद जब वह काम पर लौटीं तो उन्हें सेवामुक्त कर दिया गया, यहां तक कि उनका जो धन फैक्स करने या टेलिफोन, ई-मेल आदि में व्यय हुआ, वह भी नहीं मिला। यह पुरस्कार था कठोर परिश्रम व लगन का।संपूर्ण रपट के अध्ययन के पश्चात् कुछ सुझाव भी अंत में दिए गए हैं, जिनमें प्रमुख हैं-मूलभूत दैनिक आवश्यकताओं से सम्बद्ध सुविधाएं, विशेष रूप से शौचालय व भोजनालय की व्यवस्था होनी चाहिए, जिससे रात्रि-पाली में कार्य करने वाली महिलाओं को भोजन आदि के लिए परेशान न होना पड़े।नियोक्ता की ओर से यातायात की सुविधा दी जानी चाहिए।प्रबंधन के क्षेत्र में योग्यतानुसार महिलाओं की भागीदारी होनी चाहिए।सुदूर स्थानों पर स्थानांतरण कर उनका उत्पीड़न न किया जाए।सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशानुसार हर संस्थान में एक शिकायत पेटिका होनी चाहिए।विशिष्ट प्रकोष्ठों का गठन किया जाए, जिसमें निष्पक्ष लोग हों तथा पीड़ित महिला पत्रकारों की समस्याओं पर विचार हों।अनुशासन विषयक नियम हो।इस सर्वेक्षण ने छुपे सच पर से परदा हटा दिया है। महिला पत्रकार और मुखर होकर अगर अपनी बात सामने रखेंगी तो हो सकता है। उनकी समस्या का कुछ समाधान निकले।टाइम्स आफ इंडिया की विशेष संवाददाता सबीना इंद्रजीत को मिलीकिस बात की सजा?सबीना इन्द्रजीत 1983 में टाइम्स आफ इंडिया से जुड़ीं और मेहनत, सूझ एवं लेखन क्षमता के बल पर अपनी एक पहचान बनायी। उनकी तमाम महत्वपूर्ण रपटें प्रकाशित हुर्इं और चर्चित भी हुर्इं। उन्हें विशेष संवाददाता बना दिया गया, लेकिन उनकी धारदार कलम के साथ ही टाइम्स आफ इंडिया कर्मचारी संघ में उनका तीन बार उपाध्यक्ष चुना जाना और प्रेस परिषद् फिर भारतीय पत्रकार संघ की पदाधिकारी होना ही उनके लिए घातक बन गया। 1998 में प्रेस परिषद् में कई संगठनों की तरफ से शिकायतें पहुंचीं कि टाइम्स आफ इंडिया समूह के मालिक अशोक जैन अपने खिलाफ चल रहे विदेशी मुद्रा विनियमन कानून उल्लंघन के मामले में बचाव के लिए अखबार को मंच की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं ताकि जांच एजेंसी पर दबाव बनाया जा सके। यह मामला प्रेस परिषद् में भी उठा। टाइम्स आफ इंडिया के विरुद्ध निन्दा प्रस्ताव पारित किया गया। चंूकि सबीना परिषद् में सदस्य थीं, इसलिए टाइम्स प्रबंधन ने मान लिया कि इसमें सबीना का हाथ है। इस पर सबीना कहती हैं, “सच तो यह है कि जिस संस्थान का मामला परिषद् में जाता है, उसके साथ जुड़े सदस्य की उस मामले में राय नहीं ली जाती।” बस, इसके बाद प्रबंधन ने सबीना को सजा देने की ठान ली। उनका स्थानांतरण गुवाहाटी कर दिया गया। दिल्ली में टाइम्स आफ इंडिया के दरवाजे उनके लिए बंद कर दिए गए। सबीना कहती हैं, “उसके बाद से मेरी पत्रकारिता पर विराम लग गया। अब साढ़े पांच साल होने को हैं। एक बार मुझे प्रबंधन ने बातचीत के लिए बुलाया, लेकिन दरवाजे पर दरबान ने रोककर “विजिटर्स पास” लेने के बाद अंदर जाने के लिए कहा। मैं उस संस्थान की कर्मचारी, कर्मचारी संघ की उपाध्यक्ष, मैं विजिटर्स पास लेकर क्यों जाऊं? ऐसे ही दरियागंज में टाइम्स आफ इंडिया कार्यालय में मुझे कर्मचारी संघ की बैठक के लिए द्वार से अन्दर घुसने ही नहीं दिया गया। मैं वापस चली आई। उसके बाद मुझे चिट्ठी भिजवाई गई कि मैंने वहां दंगा-फसाद किया। मेरे तीन-तीन मामले अदालत में हैं। मैं अपनी लड़ाई हारी नहीं हूं। मैं एक बार तो जीतकर विशेष संवाददाता के रूप में वहां जाना ही चाहती हूं, ताकि मेरी व्यावसायिक प्रतिष्ठा बनी रहे। लेकिन यह भी सच है कि अब वहां पत्रकारिता का माहौल नहीं रहा। पत्रकारों की कलम जैसे प्रबंधकों ने अपने पास गिरवी रखवा ली है। वहां ठेके पर पत्रकार रखे जाते हैं, पत्रकारिता में खरापन नहीं रहा। समाचार भी विचारधारा विशेष के रंग में रंगे होते हैं।” सबीना को पिछले तीन साल से वेतन के नाम पर एक पाई भी नहीं मिली, लेकिन वह वहां कार्यरत हैं। कानूनी लड़ाई अभी जारी है। -प्रतिनिधि20
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