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कैथरीन हिलमैन बनीं सरला बहनसरल और सेवामयीवचनेश त्रिपाठी “साहित्येन्दु”अल्मोड़ा और पिथौरागढ़ की सीमा पर धरमघर में बने अपने आवास का नाम कैथरीन हिलमैन ने “हिमदर्शन-कुटीर” रखा था, जो कि सागर तल से 2300 मीटर की ऊंचाई पर था। सन् 1940 से सन् 1965 तक कौसानी ही सेवा उनकी किंवा कर्म-भूमि रही। वे लन्दन के जर्मन-परिवार में जन्मी थीं। वह अभी किशोरावस्था में ही थीं कि जब प्रथम विश्व युद्ध छिड़ा। जर्मन होने के कारण ब्रिटिश सरकार ने उनके पिता को नजरबंद कर दिया। इस स्थिति में उस जर्मन किशोरी का अंग्रेजों के प्रति विद्रोही विचारों का होना स्वाभाविक था। साथ ही वह देखती-सुनती थी कि उन दिनों इंग्लैण्ड के चर्चों में युद्ध में अंग्रेजों की विजय की प्रार्थनाएं होती थीं। वह सोचती थी कि ईश्वर क्या जर्मनों या रूस, जापान आदि देशों के विरुद्ध है? वह तो समस्त संसार का पिता है। फलत: इस स्थिति में वह तरुणाई में प्रवेश करते-करते ब्रिटिश सरकार के प्रति पूर्णत: विद्रोही भावनाओं से भर उठी थी। इसी मन:स्थिति में वह भारत आने के लिए व्यग्र हो उठी। अंतत: वर्षों बाद वही तरुणी मिस कैथरीन भारत में आ गई। प्रारम्भ में उसे उदयपुर (राजस्थान) के “विद्या-भवन” मैं शिक्षिका का कार्य मिला, जिसे डा. मोहन सिंह मेहता चलाते थे। उसके पश्चात् सन् 1938 में मिस कैथरीन सेवाग्राम आकर गांधी जी द्वारा संचालित शिक्षा क्षेत्र में एक प्रयोग “नयी तालीम” में शामिल हो गर्इं। वे अब बजाय जर्मन के पूर्णत: भारतीय बन गर्इं-गांधी जी ने उनका नया नाम रखा- “सरला बहन”। ये स्वयं को अब बजाय जर्मन के “विश्व नागरिक” कहती थीं। परन्तु सेवाग्राम की गर्म जलवायु और मलेरिया के प्रकोप से पीड़ित होकर वे सन् 1940 में अल्मोड़ा जिले के चुनौदा के “गांधी-आश्रम” में भेजी गर्इं ताकि वे वहां स्वास्थ्य लाभ कर सकें। इसके कई वर्ष पूर्व गांधी जी भी वहां आ चुके थे। यहीं रहकर गांधी जी ने “अनासक्ति योग” की भूमिका लिखी थी। कौसानी में सरला बहन ने पर्वतीय लोगों में सेवाकार्य प्रारम्भ ही किया था कि सन् “42 का “करो या मरो” और “अंग्रेजो! भारत छोड़ो” आंदोलन छिड़ गया-तब गिरफ्तार कार्यकर्ताओं के परिवारों के बीच जा-जाकर सरला बहन उनकी सेवा में जुट गर्इं- जिससे उन्हें भी गिरफ्तार करके कारावास की सजा दे दी गई। वे जेल पहुंच गर्इं सजा काटने। काफी दिनों बाद रिहा हुर्इं तो स्वतंत्रता सेनानियों के परिवारों में वे पुन: सेवाकार्यों में संलग्न हो गर्इं। साथ ही पर्वतीय महिला समाज के उत्थान हेतु उन्होंने कौसानी में ही “श्री लक्ष्मी आश्रम” तथा “कस्तूरबा महिला उत्थान मंडल” स्थापित किया। वे पर्वतीय क्षेत्र में खेती, गोपालन तथा वस्त्रोद्योग-योजना द्वारा शिक्षा कार्य करती रहीं। स्वतंत्रता सेनानियों के परिवारों की भी अनेक लड़कियां शिक्षा प्राप्त करने उनके पास आर्इं। उत्तराखण्ड के अन्य जिलों से भी लड़कियों का आना जारी रहा। सरला बहन की पींठ पर उन दिनों प्राय: एक थैला (पिट्ठू) लदा होता और इसी स्थिति में उन्हें पर्वत की पगडंडियों पर आते-जाते देखा जाता था। उनके कार्य से पर्वतीय महिलाओं में आत्म-जाग्रति हुई-उनकी शिष्याएं सामाजिक क्रांति और ब्रिटिश अत्याचार-शोषण के विरुद्ध विद्रोहिणी नेत्री बनीं। वे आश्रम की चार दीवारी तक ही सीमित नहीं रही थीं। सन् 1966 में “श्रीलक्ष्मी-आश्रम” छोड़कर वे बिहार, बंगाल, असम, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु और कर्नाटक तक प्रवास करती रहीं। उन्होंने “व्यावहारिक वेदान्त एक आत्मकथा”, “संरक्षण या विनाश” आदि 6 पुस्तकें भी हिन्दी में ही लिखीं। 81 वर्ष की आयु में श्वास रोग से ग्रस्त रहते हुए भी सरला बहन कभी चैन से नहीं बैठीं-उनका ग्रामों में आना-जाना जारी रहा।17
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