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महाराष्ट्र मेंमहा-युद्ध-मुम्बई प्रतिनिधिसुशील कुमार शिंदे

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Oct 10, 2004, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 10 Oct 2004 00:00:00

महाराष्ट्र मेंमहा-युद्ध-मुम्बई प्रतिनिधिसुशील कुमार शिंदे बाला साहब ठाकरेमहाराष्ट्र विधानसभा चुनावों का अजब नजारा है। भाजपा और शिव सेना पहले हिन्दुत्व के मुद्दे पर चुनाव लड़ने की बात करते थे और बाद में उसमें भी अनेक मुद्दे जुड़ते गए। दूसरी तरफ कांग्रेस सोनिया की छवि और शरद पवार के बचे-खुचे गढ़ों पर आस लगाए है। हाल ही में क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड के चुनाव में शरद पवार को कांग्रेस ने हरवा दिया। मात्र एक वोट से जगमोहन डालमिया ने कांग्रेस के रणवीर सिंह महेन्द्र को जिताया। कभी “महान मराठा” वगैरह-वगैरह कहे जाने वाले शरद पवार विदेशी मूल के मुद्दे पर सोनिया कांग्रेस से अलग हुए थे। फिर वापस आए और सत्ता की चाह ने उन्हें इतनी बार उलटा-पुलटा किया है कि अब वे किधर हैं, क्या कह रहे हैं, किसके समर्थन में हैं, किसका विरोध करते हैं, इसकी शायद उन्हें खुद जानकारी नहीं है। ऐसे में उनके कार्यकत्र्ता बाएं- दाएं, ऊपर-नीचे देखने के अलावा कुछ नहीं कर पा रहे हैं। जहां तक भाजपा का सवाल है, उसका केन्द्रीय “फोकस” गायब जैसा है। कभी अपनी मजबूती के साथ चुनाव मैदान में उतरने वाली यह पार्टी अब शिवसेना की नैय्या के सहारे चल रही है और इसके मजबूत गढ़ भी आएं-बाएं हैं। जीत गई तो केन्द्रीय राजनीति में दबदबा बढ़ेगा, अन्यथा “जिसे जो करना चाहिए था उसने वह नहीं किया” जैसी बातें शुरू होंगी। इन चुनावों में भी भाजपा फैशन डिजाइनर या चमक-दमक के उम्मीदवार लेकर मैदान में उतरने की कोशिश कर चुकी है, जो अब तक परंपरा जैसी बन चुकी है। रामायण धारावाहिक की “सीता” दीपिका चिखलिया से लेकर हेमा और दारा सिंह, जो भी मिला, साथ चलता गया। उम्मीद की जानी चाहिए कि राष्ट्रहित में राष्ट्रीयता और हिन्दुत्व के पैरोकार जीतेंगे। यहां हमारे मुम्बई प्रतिनिधि का बिना किसी लाग-लपेट के विश्लेषण प्रस्तुत है। -सं.महाराष्ट्र विधानसभा की वर्तमान दलगत स्थितिदल सदस्य कांग्रेस 73 शिवसेना 65 रा.कां.पा. 61 भाजपा 53 जद (एस.) 02 पी.डब्ल्यू.पी. 05 माकपा 02 भारतीय बहुजन महासंघ 03 निर्दलीय 12 अन्य 03 रिक्त 09 कुल 288 “कांटे की टक्कर” का असली अर्थ अगर जानना हो तो महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव पर नजर डालें। कौन जीतेगा, कौन हारेगा, अभी से यह बता पाना लगभग असंभव ही है। शरद पवार और सुशील कुमार शिंदे से लेकर बालासाहब ठाकरे और प्रमोद महाजन तक आज कोई भी नेता या राजनीतिक विश्लेषक विश्वासपूर्वक यह नहीं बता पा रहा है कि जीत किसकी होगी। महाराष्ट्र की राजनीति ऐसी कभी भी नहीं थी।लोकसभा चुनाव के आसपास ऐसा लग रहा था कि कांग्रेस तथा राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी गठबंधन को भारी नुकसान उठाना पड़ेगा। इसके बाद भी बहुत सी ऐसी बातें हुईं जिनसे कांग्रेस गठबंधन मुश्किल में पड़ता गया। इस परिस्थिति का स्वाभाविक लाभ भाजपा-शिवसेना गठबंधन को ही होना था। लेकिन जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव नजदीक आते गए, पासे पलटते दिखने लगे। मानसून की वर्षा अच्छी होने से लोग आनंदित हो उठे। आज की तारीख में स्थिति कांटे की टक्कर तक आ गयी है।इस चुनाव में क्या होगा, इस सवाल का जवाब जानने से पहले राज्य के चुनावी इतिहास पर एक नजर डालना आवश्यक होगा। पूर्ववर्ती मुम्बई प्रांत के विभाजन के बाद महाराष्ट्र तथा गुजरात की स्थापना 1 मई, 1960 को हुई थी। स्थापना काल से ही महाराष्ट्र कांग्रेस का गढ़ रहा है। शुरुआती दिनों में यशवंतराव चव्हाण के नेतृत्व में कांग्रेस ने गांव-गांव तक अपना संगठन फैलाया और मजबूत किया। सहकारिता का प्रयोग देश में पहली बार महाराष्ट्र में ही सफलतापूर्वक कार्यान्वित किया गया। आज यह क्षेत्र महाराष्ट्र की राजनीति का अहम हिस्सा बन गया है। सबसे निचले स्तर के सत्ता केन्द्र से लेकर मुख्यमंत्री पद तक की सत्ता कांग्रेस ने हमेशा अपने ही हाथ में रखी। 70 के दशक के अंतिम वर्षों में शरद पवार ने कांग्रेस में ही बगावत कर सत्ता हथियाई थी, जिसमें उन्हें तमाम विरोधी दलों का साथ मिला था। लेकिन इंदिरा गांधी जब वापस सत्ता में आयीं तब उन्होंने वह सरकार बर्खास्त कर दी थी, पर फिर भी मुख्यमंत्री शरद पवार यानी कांग्रेसी ही थे।कांग्रेस के इस निर्विरोध नेतृत्व को पहला झटका 1990 के विधानसभा चुनावों में लगा जब कांग्रेस अपने दम पर बहुमत प्राप्त कर नहीं सकी। 288 सीटों की विधानसभा में कांग्रेस को केवल 120 सीटें मिलीं और निर्दलीय उम्मीदवारों के बूते ही वह सरकार बना सकी। उसके बाद के पांच साल राज्य और देश की भी राजनीति को नया मोड़ देने वाले रहे। बाबरी ढांचा ढहा, मुम्बई में बम विस्फोट हुए, कांग्रेसियों के आपसी घमासान में प्रदेश के हितों की अनदेखी होती गयी और उसकी भारी कीमत कांग्रेस ने 1995 के चुनाव में चुकाई। भाजपा-शिवसेना गठबंधन ने 132 सीटें जीतीं और निर्दलीय सदस्यों के सहारे सत्ता हथियाई।1999 में विधानसभा चुनावों से केवल दो महीने पहले शरद पवार ने सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा उठाकर पुन: एक बार बगावत कर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की स्थापना की। चुनाव में दोनों कांग्रेस एक-दूसरे के खिलाफ लड़ी थीं। परिणामस्वरूप कांग्रेस को मात्र 75 और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को 61 सीटें मिलीं। पर बगावतबाजी के सिरमौर शरद पवार को घुटने टेककर कांग्रेस से हाथ मिलाना पड़ा और दोनों की साझा सरकार प्रदेश में फिर आ गयी।इस पृष्ठभूमि में आगामी विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। 1999 में दोनों कांग्रेस अलग-अलग लड़ी थीं। इस चुनाव में इन दोनों का बाकायदा गठबंधन हुआ है। यह मूलभूत फर्क बताया जा सकता है। इस दृष्टि से देखें तो कांग्रेस गठबंधन का पलड़ा भारी होना चाहिए, क्योंकि मराठी में जिसे “बेरजेचे राजकारण” यानी जोड़ने की राजनीति कहते हैं उसमें दोनों कांग्रेस इस बार सफल हुई हैं। कागजों पर यह समीकरण सही लगता है, पर वास्तविकता हमेशा कागजी बातों से परे रहती है।पिछले पांच साल से प्रदेश में कांग्रेस गठबंधन की सत्ता है। यही बात इस गठबंधन के लिए बड़ी समस्या बन रही है। क्योंकि इन पांच सालों में प्रदेश का शासन इतने घटिया ढंग से चलाया गया कि प्रदेश की जनता बिहार या उत्तर प्रदेश की राजनीति का अनुभव करने लगी। इन पांच सालों में राज्य पर कर्जे का बोझ 40 हजार करोड़ से बढ़कर लगभग एक लाख करोड़ पर जा पहुंचा। सत्ता पर आने के बाद पहले दो साल इस सरकार ने यह कहते हुए बिताये कि 40 हजार करोड़ रुपए का कर्जा भाजपा-शिवसेना सरकार से मिला है। पर धीरे-धीरे यह तर्क बंद हो गया क्योंकि पिछली सरकार से दोगुनी गति से यह बोझ बढ़ता गया। इन पांच सालों में राज्य में बिजली निर्माण की एक भी नयी इकाई शुरू नहीं हो पायी है। महाराष्ट्र देश का सबसे प्रगतिशील राज्य कहलाता है। पर मुम्बई को छोड़कर राज्य का कोई भी हिस्सा ऐसा नहीं बचा जहां दिन के 6-6, 8-8 घंटे बिजली न गई हो। महाराष्ट्र की जनता इस अनुभव से पहले परिचित नहीं थी। कर्जे में डूबे किसानों की आत्महत्याएं, दुर्गम इलाकों में रहने वाले सैकड़ों नन्हे बच्चों की भेाजन न मिलने से हुई मौत, बंद पड़े हजारों कारखाने तथा औद्योगिक इकाइयां, पूरे देश के अर्थतंत्र को हिला देने वाला लगभग 5 हजार करोड़ रुपये का फर्जी स्टाम्प पेपर घोटाला जैसे अनेक मुद्दों से इस सरकार की कारगुजारी भरी पड़ी है। ये सब बातें सामान्य जनता की रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़ी हुई हैं।हाल ही में सेल्युलर जेल में बनी स्वातंत्र्य ज्योत से स्वातंत्र्यवीर सावरकर की पट्टिका उखाड़ने की मणिशंकर अय्यर की करतूत से प्रदेश में काफी असंतोष उत्पन्न हुआ था। खासकर इस बात पर कि प्रदेश में कांग्रेस की सरकार होने के बावजूद उसके नेता इस मुद्दे पर अशोभनीय चुप्पी साधे हुए थे। कुल मिलाकर कांग्रेस गठबंधन का शासन जनता के लिए बेहद निराशापूर्ण रहा है। इस शासन को अगर तटस्थ दृष्टि से भी देखा जाए तो भी इस सरकार को प्रदेश की आज तक की सबसे नाकारा सरकार कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा।सरकार के इस निकम्मेपन का असर पिछले लोकसभा चुनाव में पड़ा। लोकसभा के चुनाव परिणाम सभी को चौंका देने वाले थे। केवल महाराष्ट्र में बताया जा रहा था कि भाजपा-शिवसेना गठंबधन प्रदेश में बहुमत प्राप्त करेगा। अपेक्षानुरूप ही इस गठबंधन ने कुल 48 में से 25 सीटें प्राप्त की थीं। इन चुनावों में भी दोनों कांग्रेस एकजुट होकर लड़ी थीं। फिर भी कांग्रेस को मात्र 13, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी को 9 तथा इस गठबंधन के सहयोगी दल, रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया (रामदास आठवले गुट) को एक सीट मिली। लोकसभा चुनाव में विदर्भ, मराठवाड़ा, उत्तर महाराष्ट्र तथा कोंकण में भाजपा-शिवसेना गठबंधन ने कांग्रेस गठबंधन पर निर्णायक बढ़त हासिल की थी। परन्तु पश्चिम महाराष्ट्र एवं मुम्बई में उसे भारी नुकसान उठाना पड़ा। राम नाइक, मनोहर जोशी, जयवंतीबेन मेहता आदि दिग्गजों को सत्ताविरोधी लहर का सामना करना पड़ा था। फिर भी उस समय विधानसभा के 288 में से 144 चुनाव क्षेत्रों में यह गठबंधन आगे था। विदर्भ में तो 11 में से 10 सीटें इस गठबंधन को मिली थीं।ऐसे में भाजपा-शिवसेना गठबंधन फिर एक बार सरकार बनाने की आस लेकर इस चुनाव में उतरा है। “अबकी बार हम ही सरकार बनाएंगे।” इस संकल्प के साथ यह गठबंधन तैयारी में जुटा है। पर उसका यह दावा कितना खरा उतरेगा? इस गठबंधन को इससे बड़ी आशा है कांग्रेस गठबंधन में हो रही बगावत से। बगावत का मुद्दा इस चुनाव में सबसे अहम सिद्ध हो रहा है। बगावत कांग्रेस के लिए कोई नया खेल नही है। कांग्रेसी राजनीति का यह अभिन्न अंग रहा है। पर इस समय बगावत एक विशेष पहलू है।शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के बारे में कांग्रेसी कार्यकर्ताओं में काफी असंतोष है। इसके दो कारण हैं। पवार ने सोनिया गांधी को उनके विदेशी मूल के मुद्दे पर चुनौती दी थी। इतना होने पर भी वे राज्य की सत्ता में शामिल हो गये, जिसकी वजह से अनेक कांग्रेसी कार्यकर्ताओं को विभिन्न पदों से वंचित रहना पड़ा। और तो और, उन्हें हमेशा शरद पवार का अक्खड़पन सहना पड़ा। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता तथा उपमुख्यमंत्री विजय सिंह मोहिते पाटिल के भाई प्रताप सिंह मोहिते पाटिल को भाजपा गठबंधन ने सोलापुर लोकसभा उपचुनाव में अपना उम्मीदवार बनाया था। कांग्रेस को उस सीट से हाथ धोना पड़ा था। फिर मई में हुए आम चुनाव में भी मुख्यमंत्री सुशील कुमार शिंदे की पत्नी उसी सोलापुर में पराजित हुईं। कांग्रेसियों का मानना है कि राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की सहायता मिलती तो दोनों की स्थिति आज काफी बेहतर हो सकती थी। शरद पवार की राजनीति पर आज प्रदेश का कोई नेता विश्वास नहीं करता। इसी अर्थ में उन्हें बगावत का सिरमौर कहा जा सकता है।अब जब इस चुनाव में कांग्रेस गठबंधन तथा भाजपा गठबंधन, दोनों के लिए करो या मरो जैसी स्थिति उत्पन्न हुई है, तो राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और शरद पवार दोनों ही कांग्रेस को बोझ जैसे लग रहे हैं। दोनों दलों में हुए समझौते के अनुसार राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी 126 स्थानों पर चुनाव लड़ रही है। स्पष्ट है कि कांग्रेस के उतने कार्यकर्ता चुनाव लड़ने से वंचित रह गये। यही असंतोष बगावत का रूप लेकर उभरा है। आज स्थिति ऐसी है कि जहां-जहां राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार खड़े हैं वहां कांग्रेसी ही उन्हें हराने पर तुले हैं। दूसरी ओर कांग्रेसी उम्मीदवारों के खिलाफ भी ऐसी ही हरकतें राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ता कर रहे हैं। भितरघात का यह संकट 80-90 सीटों पर मंडरा रहा है। राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख स्वयं बताते हैं, “कांग्रेस की 25 सीटों पर भितरघात की संभावना है।” राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता भी मानते हैं कि बगावत एक प्रमुख मुद्दा बन चुका है।एक और बात। अब जबकि दो कांग्रेस धड़े मैदान में हैं अत: सीटों का भी विभाजन हुआ है। कांग्रेस परंपरा के अनुसार कांग्रेस के खिलाफ कांग्रेस पार्टी का ही बागी उम्मीदवार और फिर राष्ट्रवादी कांग्रेस का बागी उम्मीदवार, यह त्रिकोणीय संघर्ष कांग्रेस गठबंधन में ही हो रहा है।दूसरी तरफ भाजपा गठबंधन में भी बगावत की घुसपैठ है। भाजपा ने अपने चार-पांच मौजूदा विधायकों को टिकट नहीं दिया तो वे खुलकर विरोध में आ गये। इनमें सबसे महत्वपूर्ण है मुम्बई के बोरिवली विधानसभा क्षेत्र के पदेन विधायक हेमेन्द्र मेहता। ऐसा ही सांताक्रूज चुनाव क्षेत्र में भी हुआ। वहां भाजपा के पूर्व विधायक अभिराम सिंह को इस बार टिकट नहीं दिया गया, उन्होंने भी अपना विरोध खुलकर मीडिया के सामने प्रदर्शित किया। शिवसेना में कभी बगावत संभव ही नहीं मानी जाती थी। पर वहां भी कोंकण के चिपलूण, मुम्बई के विले पार्ले , मराठवाड़ा तथा विदर्भ के कुछ स्थानों पर बगावत की घटनाएं हुई हैं। पर एक बात माननी होगी कि कांग्रेस गठबंधन की तुलना में भाजपा गठबंधन में बगावत काफी कम मात्रा में है। बगावत की इन घटनाओं ने यह सिद्ध किया है कि भाजपा तथा शिवसेना भी अब इस रोग से मुक्त नहीं रहे हैं।ये बागी उम्मीदवार अगर अच्छे वोट हथियाते हैं तो सभी राजनीतिक समीकरण पलट सकते हैं। साथ ही, 1990 से प्रदेश में निर्दलीय उम्मीदवारों का प्रभाव भी बढ़ता जा रहा है। “90 और “99 की कांग्रेस सरकारें तथा “95 की भाजपा-शिवसेना सरकार निर्दलियों के सहारे ही बन सकी थीं। ये निर्दलीय और कोई नहीं, बल्कि कांग्रेस के ही बागी उम्मीदवार थे। 1990 में 72, “95 में 76 तथा 1999 में 32 निर्दलीय उम्मीदवार चुनकर आए थे।बगावत का एक और भी पहलू है। कांग्रेस गठबंधन में मोटे तौर पर कांग्रेस, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, रिपब्लिकन पार्टी के अनेक गुट, शेतकारी कामगार पार्टी तथा वामपंथी दल आते हैं। लगभग किसी भी निर्णय पर इन दलों में आम सहमति कभी भी नहीं हुई। एनरान से लेकर कुपोषण से हुई बच्चों की मौत तक, हर मुद्दे पर सरकार के घटक बने ये दल एक-दूसरे के खिलाफ बयानबाजी करते रहे हैं। दूसरी तरफ भाजपा और शिवसेना में अच्छा तालमेल रहा है। मीडिया ने इन दोनों दलों में फूट डालने की भरसक कोशिश की, पर दोनों दलों के शीर्षस्थ नेता एक-दूसरे से हमेशा संपर्क में रहे हैं। सीटों के बंटवारे से लेकर साझा घोषणापत्र बनाने तक अनेक मुद्दों पर दोनों दलों ने काफी समझदारी दिखायी है। गठबंधन की राजनीति इन दोनों दलों ने कांग्रेस गठबंधन की अपेक्षा काफी अच्छी ढंग से अपनायी है। इन दलों का प्रचार भी काफी योजनापूर्वक चल रहा है।इस चुनाव में प्रदेश की राजनीति में एक नया अध्याय शुरू होने का संकेत मिल रहा है। यह अध्याय है मायावती की बहुजन समाज पार्टी के राज्य की राजनीति में प्रवेश का। हालांकि बसपा का महाराष्ट्र में अभी कोई खासा प्रभाव नहीं है। पर इस पार्टी ने लोकसभा चुनाव में अपनी मौजूदगी दर्ज करा दी थी। खासकर विदर्भ और मराठवाड़ा में बसपा सेंध लगा रही है और इसमें उसे अच्छी सफलता भी मिलती दिख रही है। लोकसभा चुनाव में बसपा के उम्मीदवार दूसरे या तीसरे स्थान पर भी नहीं रहे। पर उन्होंने कम से कम पांच जगहों पर जीत के समीकरण बिगाड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। बसपा की ताकत आज “उपद्रवकारी शक्ति” के रूप में है।उधर कांग्रेस ने राज्य के दलित वोटों को हमेशा ही अपनी जागीर समझा। रिपब्लिकन पार्टी के साथ उसने हमेशा सौतेला बर्ताव किया। रिपब्लिकन नेताओं को अपनी मुट्ठी में रखा। रिपब्लिकन पार्टी को आज तक 7-8 प्रतिशत से ज्यादा वोट कभी नहीं मिले हैं। फिर भी उसमें जितने नेता बने, उतने गुट बने। दलित ऐक्य की घोषणाएं केवल कागज पर रहीं। इस राजनीति से तंग आ चुकी दलित जनता अपने लिए एक नया विकल्प ढूंढ रही है। बसपा के रूप में उसे यह विकल्प मिलता दिख रहा है। अगर बसपा के रूप में दलित वोटों का ध्रुवीकरण हुआ तो रिपब्लिकन पार्टी की राजनीति का तो अंत हो ही जाएगा, कांग्रेस तथा भाजपा गठबंधन को भी अपनी दलित राजनीति पर गहरा चिंतन करना पड़ेगा। कुछ चुनाव सर्वेक्षण बता रहे हैं कि कांग्रेस गठबंधन शायद बहुमत जुटा ले। भाजपा गठबंधन का पलड़ा थोड़ा हल्का दिख रहा है, ऐसा कुछ सर्वेक्षणों का आकलन है। दूसरी बात यह है कि ये सब सर्वेक्षण उम्मीदवारों का चयन होने से पहले के हैं। स्वाभाविक है कि बगावत का जिक्र तक नहीं किया गया है। दोनों खेमों के दिग्गज जब मैदान में उतरेंगे तब माहौल बनना शुरू हो जाएगा। कांग्रेस के लिए सोनिया-मनमोहन का करिश्मा एक प्रमुख मुद्दा है तो दूसरी तरफ भाजपा, कांग्रेस सरकार के कुशासन को प्रमुख मुद्दा बना रही है। इस परिस्थिति में इस महा-युद्ध का निर्णय क्या होगा, समय ही बताएगा।8

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