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सम्पादकीय

by
Oct 10, 2004, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 10 Oct 2004 00:00:00

मातर: सर्वभूतानां गाव: सर्वसुखप्रदा:।गाएं सब प्राणियों की माताएं हैं तथा सब सुख प्रदान करने वाली होती हैं।-वेदव्यास (महाभारत, अनुशासन पर्व, 69, 7)गोरक्षा और मेनका का दु:खयह आश्चर्य का विषय है कि भाजपा ने अपनी ही पार्टी की नेता श्रीमती मेनका गांधी के गोरक्षा अभियान का जैसे साथ देना चाहिए था, नहीं दिया। यह उसी स्थिति में संभव है जबकि गोरक्षा का मुद्दा भाजपा के अंतर्मन की निष्ठा के बजाय चुनाव के समय का बेतरतीब सा वायदा हो। रेलमंत्री श्री लालू यादव ने राजग सरकार के पिछले फैसले को पलटते हुए रेल द्वारा पशु धन की आवाजाही पर लगी रोक को उठा लिया। इसका सीधा नतीजा यह निकलेगा कि गोधन बंगलादेश के बूचड़खानों में पहले से अधिक संख्या में जाएगा। श्रीमती मेनका गांधी ने इस बर्बरता को रोकने का बीड़ा उठाया, आन्दोलन शुरू किया। पर भाजपा क्यों साथ न आयी? चूंकि नास्तिकों और वामपंथियों का राजनीतिक फैसलों के गलियारों तथा अखबारों में दबदबा है इसलिए गोरक्षा की बात करने वालों का या तो मजाक उड़ाया जाता है या उनको वैसे ही अपमानित किया जाता है जैसे पाकिस्तान में मंदिर और सत्संग की बात करने वाले हिन्दुओं को। हां ऐसी कोई भी बात, जिससे प्रतीत हो कि मुसलमान खुश होंगे तो वह तुरंत सरकार और सेकुलर अखबारों को मान्य होती है। जैसे अभी हाल ही में कोलकाता से प्रकाशित होने वाले एक अंग्रेजी दैनिक ने अपने सम्पादकीय में नेपाल सरकार को सलाह दी है कि वह मुस्लिम देशों के साथ अपने संबंध सुधारने में समझदारी से काम ले और वहां मुसलमानों को ही राजदूत बनाकर भेजे। कोई भी सेकुलर अखबार किसी हिन्दू संस्कृति के प्रभाव वाले देश में हिन्दू या बौद्ध या सिख या जैन राजदूत ही भेजा जाए, ऐसी मांग नहीं कर सकता था। क्योंकि हिन्दू तो बस ऐसे ही हैं। हिन्दू बहुल राज्य में अगर मुसलमान मुख्यमंत्री हो जाए तो यह सेकुलरवाद की शान है, लेकिन मुस्लिम बहुल राज्य में मुसलमान के ही मुख्यमंत्री बनने को संवैधानिक अधिकार मान लिया जाता है। ऐसी स्थिति में आस्थावान हिन्दुओं को यदि राजनीतिक क्षेत्र में अपनी आवाज और अपनी चिंताओं के समाधान की मांग उठाने की आवश्यकता महसूस होती है, तो वह समझ नहीं पाता कि ऐसा कौन सा दल है जो उसकी बात सामने लाने में संकोच या हिचक महसूस नहीं करेगा।विदेशी भी गए, समितियां भीआखिर डा. मनमोहन सिंह ने सोचा- भाड़ में जाए योजना आयोग के सलाहकारों का सारा झंझट। न विदेशी विशेषज्ञ रखेंगे, न समितियों का ही तमाशा। वामपंथी दलों के साथ दिक्कत यह है कि वे सत्ता की जिम्मेदारी उठाए बिना सत्ता का स्वाद चखना चाहते हैं, उसका फायदा भी उठाना चाहते हैं और साथ ही साथ यह दिखाने की भी कोशिश करते हैं कि वे सरकार से स्वतंत्र अपनी ढपली बजाने वाले बहादुर हैं। यह तो दीगर है कि इसे मानता कौन है। कम्युनिस्टों ने हल्ला मचाया कि योजना आयोग में विदेशी विशेषज्ञ नहीं आने चाहिए, भले ही उनमें अधिकांशत: भारतीय मूल के विशेषज्ञ हों। पर उन्हें विदेशी मूल की नेता का दरबारी बनना मंजूर है। जिन राज्यों में उनका शासन है वहां विदेशी निवेश मंजूर है। उसके लिए उनका मुख्यमंत्री विदेश यात्राएं भी करता है। यहां तक कि वे अपनी सारी जिंदगी विदेशी विचारधारा और विदेशी नायकों के साये तले बिताना पसंद करते हैं। लेकिन स्वदेशी संस्कृति, विचार और आस्था से उन्हें नफरत है। इसलिए उनकी ऐसी किसी भी मांग की कोई साख नहीं सिवाय इसके कि वे एक राजनीतिक शोर और तमाशा करना चाहते थे।यह देखना रोचक है कि इन कम्युनिस्टों के आदर्श देश और आदर्श नायकों की कर्मभूमि, पितृभूमि, पुण्यभूमि चीन आजकल क्या कर रहा है। गत 30 सितम्बर को चीन सरकार ने ऐसे 84 विदेशी विशेषज्ञों को सम्मानित किया जो वहां अनेक वर्षों से कार्य कर रहे हैं। यह सम्मान समारोह चीन गणराज्य की 55 वीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में आयोजित किया गया था। 1991 से चीन सरकार ने लगभग 800 विदेशी विशेषज्ञों को सम्मानित किया है। चीन सरकार की विज्ञप्ति के अनुसार चीन में पिछले पचास वर्षों के दौरान 20 लाख विदेशी विशेषज्ञ काम कर चुके हैं। ये हैं कम्युनिस्टों के तथाकथित आदर्श और उनका वास्तविक व्यवहार।7

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