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हिन्दूभूमि

by
Sep 5, 2004, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 05 Sep 2004 00:00:00

वेद : ज्ञान राशिसुरेश सोनीहमारे प्राचीन वाङ्मय में वेद ज्ञान- राशि को विविध नामों से अभिव्यक्त किया गया है। उनमें से प्रमुख नाम व अर्थ निम्न हैं-वेद – का अर्थ है ज्ञान।मंत्र – का अर्थ है मनन करने का विचार।श्रुति – श्रवण से प्राप्त।निगम – अनुभूतिजन्य अभिव्यक्ति जिन ग्रन्थों में है।छंदस् – नाद रूप है। सम्पूर्ण वेद स्वरविज्ञान पर आधारित है।आम्नाय – मानवीय उन्नति के उपदेशों का समुच्चय।चार वेद- व्यापक अर्थ में तो वेद का अर्थ निरपेक्ष ज्ञान है, परन्तु उस निरपेक्ष ज्ञान की अनुभूति अपनी साधना व तपस्या द्वारा भिन्न-भिन्न ऋषियों ने की और अपने उस साक्षात्कार को वाणी द्वारा, मंत्रों के रूप में, ऋचाओं के रूप में अभिव्यक्त किया। वेदों में जो अभिव्यक्ति है वह तीन प्रकार से है- वैदिक पद्य को ऋक् या ऋचा कहते हैं। वैदिक गद्य को यजुष् कहा गया और जो गीतात्मक छन्दरूप पद हैं उन्हें साम कहा गया। इस दृष्टि से वेद राशि पद्य, गद्य व गेय तीन रूपों में होने से प्राचीन काल में “वेदत्रयी” शब्द का भी प्रयोग होता था। इन तीनों रूपों के मंत्रों के समूह को सूक्त कहा गया, जिसका अर्थ होता है उत्कृष्ट उक्ति। इन मंत्रों का संकलन आगे चलकर वेद के रूप में जाना जाने लगा।वेद मंत्रों का संकलन आजकल जिस रूप में मिलता है, उसे संहिता कहा जाता है। पूर्व में एक ही वेद ज्ञानराशि थी जो परम्परा से गुरु द्वारा शिष्य को, पिता द्वारा पुत्र को श्रुति या श्रवण द्वारा प्राप्त होती रही। अत: उन्हें श्रुति भी कहते हैं। विविध ऋषि वंशों में जो सूक्त परम्परा से चले आ रहे थे उस एक वेद राशि को सर्वसामान्य लोगों की सुविधा के लिए महर्षि वेदव्यास ने चार भागों में विभाजित किया जिसे हम लोग चार वेदों के रूप में जानते हैं। ये हैं- 1. ऋग्वेद 2. यजुर्वेद 3. सामवेद 4. अथर्ववेदवेदों का बाह्र परिचय – मंडल, सूक्त, मंत्र संख्याअ. ऋग्वेद – इस वेद में 10 मंडल, 64 अध्याय, 1028 सूक्त तथा 10552 मंत्र हैं।आ. यजुर्वेद – इसके दो भाग हैं- शुक्ल यजुर्वेद तथा कृष्ण यजुर्वेद। इसमें 40 अध्याय, 303 अनुवाक् तथा 1975 कण्डिका या मंत्र हैं।इ. सामवेद- इसमें 1875 मंत्र हैं परन्तु नये मंत्र केवल 75 हैं। शेष मंत्र ऋग्वेद से लिए गए हैं।ई. अथर्ववेद – इसमें 20 काण्ड, 731 सूक्त तथा 5977 मंत्र हैं। सभी वेद मंत्रों के साथ ऋषि, देवता तथा छंद का उल्लेख रहता है।ऋषि – उस मंत्र के द्रष्टा।देवता – उस मंत्र का प्रतिपाद्य विषय।छंद – उस मंत्र की अक्षर एवं स्वर रचना को इंगित करता है।वेदों के द्रष्टा ऋषि- वेदों के मंत्रद्रष्टा ऋषि अनेक हुए। इनमें पुरुष भी हैं, स्त्रियां भी हैं। लगभग 300 से अधिक ऋषि हुए। प्रमुख पुरुष मंत्रद्रष्टा हैं- जैसे वसिष्ठ, विश्वामित्र, अत्रि, अंगिरा, भृगु, भारद्वाज, वामदेव, कश्यप, नारद, मनु, गृत्समद, दीर्घतमस्, वैवस्वत मनु, शिवि, औशीनर, प्रतर्दन, मधुच्छन्दा, देवापि मेघातिथि, शुन:शेप, कण्व, गौतम, कुत्स्, कुक्षीवान् आदि।प्रमुख महिलामंत्र द्रष्टा- श्रद्धा, रोमशा, लोपामुद्रा, विश्ववारा, अपाला, घोषा, यमी, इन्द्राणी, उर्वशी, दिक्षिणा, सूर्या, आदि।जारी…लोकहित प्रकाशन, लखनऊ द्वारा प्रकाशित पुस्तक “हमारी सांस्कृतिक विचारधारा के मूल स्रोत” के मुख्य अंश से साभार।23

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