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सम्पादकीय

by
Sep 5, 2004, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 05 Sep 2004 00:00:00

तुम झूठ से शायद घृणा करते हो, मैं भी करता हूं। परंतु जो समाज व्यवस्था झूठ को प्रश्रय देने के लिए ही तैयार की गई है, उसे मानकर अगर कोई कल्याण कार्य करना चाहो, तो तुम्हें झूठ का ही आश्रय लेना होगा।-हजारी प्रसाद द्विवेदी(बाणभट्ट की आत्मकथा, पृ. 99)कश्मीर के हिन्दू मतदाता…?जब सबका ध्यान उत्तर प्रदेश की ओर है, कश्मीर घाटी में हो रहे चुनाव प्रचार का जायजा लेने की फुर्सत किसे होगी। लेकिन यह जरूरी है कि बाकी बातों के साथ-साथ इस बात पर कुछ विशेष ध्यान दिया जाए कि कश्मीर में चुनावों के दौरान वहां के नेता किस भाषा और शब्दावली का प्रयोग कर रहे हैं। समाचार पत्रों में छपी रपटों के अनुसार फारुख अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती-दोनों ने ही अलगाववादी शक्तियों के पक्ष में भाषण देते हुए वोट मांगे। उन्होंने अधिक से अधिक स्वायत्तता की मांग के अलावा आतंकवादियों के विरुद्ध सुरक्षाबलों की कार्रवाई की निन्दा की। कल तक जो फारुख अब्दुल्ला पाकिस्तान को सबक सिखाने की बात करते थे, उन्होंने अचानक उसी पाकिस्तान को अपना हमदम घोषित कर दिया। यह अजीब बात है कि कश्मीर घाटी में पाकिस्तान और इस्लामी आतंकवादियों के प्रति समर्थक रवैया अपनाकर ही वोट मांगे जाते हैं। उधर लद्दाख से सर्वदलीय “केन्द्र शासित प्रदेश बनाओ मोर्चा” की ओर से पूर्व कांग्रेसी नेता थुप्स्तान छेवांग चुनाव मैदान में हैं। हालांकि भाजपा ने उनकी उम्मीदवारी का समर्थन नहीं किया है और एवरेस्ट विजेता सोनम पालजोर को खड़ा किया है। लद्दाख के राजनीतिक गणित का हाल भी समाचारपत्रों में कम ही दिखाई देता है।इस परिदृश्य में एक गहरी अनुपस्थिति भी है, जो सबको समान रूप से खलनी चाहिए थी। पर ऐसा होता दिखा नहीं। कहां हैं कश्मीर के हिन्दू मतदाता? जब चारों तरफ “लोकतंत्र का उत्सव” मनाया जा रहा है, घाटी में चुनाव प्रचार की सरगर्मियों और नेताओं के दौरों पर हर चैनल और अखबार बढ़-चढ़ कर रपटें दे रहे हैं, किसी ने यह सवाल तक पूछने की जरूरत नहीं समझी कि कश्मीर के हिन्दू मतदाता घाटी में वोट क्यों नहीं दे पा रहे हैं और उनके लिए क्यों आज भी चुनाव आयोग दिल्ली और जम्मू में मतदान की “विशेष सुविधा” प्रदान करने पर विवश है? छोटे-छोटे मुद्दों पर हर रात जिन चैनलों पर तेज-तर्रार बहसें होती हैं, क्या आपने किसी भी चैनल पर घाटी के हिन्दू मतदाताओं की अनुपस्थिति के सवाल पर बहस सुनी है? ऐसा लगता है कि इन “जागरूक, मानवतावादी और जन-अधिकारों के लिए मसीहा की भूमिका लेने वाले” पत्रकारों के लिए सिर्फ गुजरात के दंगा पीड़ित, और उनमें भी सिर्फ एक मजहब वाले ही महत्व रखते हैं। इनके लिए तो कश्मीर में हिन्दू जैसे कभी थे ही नहीं। कश्मीरी हिन्दुओं का दर्द न तो कलम के मसीहा लिखते हैं और न ही राष्ट्रवादी-अराष्ट्रवादी राजनेताओं के लिए उन हिन्दुओं का दु:ख किसी चुनावी सभा में बोलने लायक या घोषणपत्र में लिखने लायक कोई मुद्दा ही है।लोकतांत्रिक महाभारतलोकसभा चुनावों का अंतिम दौर सामने है और उसी के साथ एक “युद्ध” जैसा माहौल बन गया है। आज की स्थिति में यह “लोकतांत्रिक महाभारत” ही कहा जाएगा, जिसमें एक ओर वे लोग हैं जिनकी भारत में आस्था है और दूसरी ओर अराजक सत्तालिप्सा के वकील धन और भुजबल के सहारे लड़ रहे हैं। बिहार और आन्ध्र प्रदेश में जिस प्रकार की कम्युनिस्ट हिंसा हुई है और छपरा में लोकतंत्र लहुलुहान किया गया, वह ही मतदाताओं को चौकन्ना करने के लिए पर्याप्त होना चाहिए। भगवान न करे, अगर ऐसे लोग सत्ता की बंदरबांट में शामिल हो गए तो देश के भविष्य के बारे में सोचते ही डर लगता है। कड़े राजनीतिक संघर्ष के बाद भाजपा के नेतृत्व में जो सरकार आयी, उसने अत्यन्त विषम परिस्थितियों में देश को स्थिरता, शांति और आगे बढ़ने की हिम्मत दी। सारी दुनिया ने माना कि भारत इस सरकार के शासन में तीव्रता से आगे बढ़ा। दूसरी ओर जो राजग के विरोध में हर प्रकार की संकीर्णता, जातीयता और प्रांतवाद उभारकर सत्ता में आने को लालायित हैं, न उनका कोई एक नेता है, न ही कोई कार्यक्रम और न ही देश के लिए महान कल्पना। इन छोटे-छोटे क्षेत्रीय क्षत्रपों की आपस में कभी नहीं बनी। लालू और मुलायम तो खुलकर परस्पर अविश्वास व्यक्त कर रहे हैं। यह श्री अटल बिहारी वाजपेयी और उनकी सर्वसमावेशी विचारधारा का ही प्रताप था कि मतभिन्नताओं के बावजूद विभिन्न दल केवल “भारत सर्वोपरि” के कार्यक्रम के आधार पर एकजुट हुए और देश की राजनीति में एक नया, साफ-सुथरा अध्याय लिखा। इस कार्य की निरन्तरता बने रहना भारत के भविष्य के लिए अनिवार्य आवश्यकता है। इस चुनावी महाभारत में यह बात ध्यान रखकर निर्णायक वार करना होगा कि यदि अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार नहीं बनी तो कौन सत्ता में आएगा।5

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