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अरबी, मंगोल, तुर्क और ईरानी आक्रांताओं की देन हैभारतीय मुसलमानों में जात-पात-मुजफ्फर हुसैनमानव के बीच भेदभाव को कभी उचित और न्यायिक नहीं ठहराया जा सकता। लेकिन हम देखते हैं कि जो आज वंचित समाज के लोगों पर आंसू बहाते हैं, वे ही संगठित और आर्थिक रूप से सक्षम होने पर स्वयं शोषक का रूप ले लेते हैं। ये नए राजा-महाराजा पुरानों को भी मात कर देते हैं। भारत के मुसलमानों में जिस प्रकार की जातीय भेदभाव, ऊंच-नीच है वह उनके आर्थिक विकास में बहुत हद तक बाधक है। लेकिन कोई मुस्लिम नेता इसके लिए उन लोगों को जिम्मेदार नहीं ठहराता है, जिनके कारण वे इस रोग से पीड़ित हैं। हिन्दुओं को जिम्मेदार ठहराकर वे अपने मन की भड़ास को तो शांत कर सकते हैं लेकिन इस रोग का इलाज नहीं कर सकते।पाकिस्तान के बुद्धिजीवी इस मामले में अधिक जागरूक और तटस्थ हैं। उनका कहना है कि यह ऊंच-नीच तो उन देशों में पहले से ही विद्यमान थी, जहां से इस्लाम आया है। इस्लामी आक्रांता अपने साथ इस बुराई को भारत लाए और सारे समाज में यह फैल गई। पाकिस्तान के प्रसिद्ध साप्ताहिक “अखबारे जहां” ने इस सम्बंध में गत 2 जनवरी को एक लेख प्रकाशित कर लोगों की आंखें खोल दी हैं। लेखक हसन निसार का कहना है कि मुस्लिम आक्रांता तो तब भारत में आए थे जब भारत अखंड था। इसलिए सच्चाई तो यह है कि सम्पूर्ण भारतीय उपखंड में इस ऊंच-नीच और भेदभाव के लिए विदेशी मुस्लिम उत्तरदायी हैं।वे लिखते हैं, कुछ तथ्य प्रकाश में आए हैं, जिससे पता चलता है कि मुस्लिम समाज में इस मनहूस ऊंच-नीच और जात-पात की नापाक व्यवस्था की जड़ें कितनी गहरी हैं? लोगों को मतान्तरित कर मुसलमान तो बनाया गया, लेकिन उनको अपने सम्प्रदाय में विदेशी मुस्लिमों ने स्थान नहीं दिया। स्वयं को ऊंचा बताने के लिए न तो उनसे रोटी-बेटी का सम्बंध रखा और न ही उन्हें अपने व्यवसाय से जोड़ा। अपनी विदेशी पहचान और अपनी विदेशी संस्कृति से इन मतान्तरित लोगों को कभी नहीं जोड़ा गया। इन विदेशी आक्रांताओं का यह मानना था कि यदि हम इन नव मतान्तरित मुस्लिमों से अपना सम्बंध जोड़ेंगे तो समाज में हमारा दबदबा नहीं रहेगा। वे मुस्लिम होने के बावजूद उनसे अलग हैं और उनकी संस्कृति भारतीय मुस्लिमों की संस्कृति से मेल नहीं खाती। ये विदेशी आक्रांता अपनी पठान, तुर्क, मंगोल और ईरानी नस्ल को भारतीय मुस्लिमों की नस्ल से अधिक ऊंची और प्रतिष्ठित मानते थे। इस्लाम उनके लिए सत्ता और प्रसिद्धि का माध्यम था इसलिए उसका उपयोग केवल अपनी शान, शौकत और दबदबा कायम करवाने के लिए किया। अपने को जमींदार, जागीरदार और भूमिपतियों के वर्ग से जोड़ा। किसान, दस्तकार और मजदूर वर्ग, जो भारतीय मुसलमानों का था, उससे कभी अपना नाता नहीं जोड़ा।ये विदेशी मुस्लिम आक्रांता जिहाद के समय भारतीय मुसलमानों को सामने कर देते थे। उनमें मजहबी उन्माद भरकर उनको मरने-कटने के लिए जिहाद का नारा बुलंद करते थे। जिहाद भारतीय मुसलमानों के लिए था, विदेशियों के लिए नहीं। अपनी सत्ता कायम रखने के लिए वे इन नव मतान्तरित मुसलमानों का उपयोग करते थे। यानी इन विदेशी आक्रांताओं ने इस्लाम का उपयोग अपना शासन चलाने और शासन कायम करने के उद्देश्य से किया था। भारत मे वे स्वयं को खिलजी, तुगलक, सैयद, लोदी, पठान और मुगल कहा करते थे। उनकी हुकूमत उनके वंश के नाम से जानी जाती थी न कि इस्लाम के नाम से। इन मुस्लिम आक्रांताओं की सीख भी इस प्रकार की रही कि जागीरदार केवल जागीरदार से ही सम्बंध रखेगा। यानी उच्च वर्ग का मुसलमान निम्न वर्ग से कोई सम्बंध नहीं रखेगा। इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि मुसलमान और मुसलमान के बीच अंतर बनाने का मुख्य कार्य विदेशी मुसलमानों ने किया है। मध्य एशिया और ईरान से आने वाले विदेशी सफेद चमड़ी के होते थे। स्थानीय मुस्लिमों का रंग काला और सांवला होने के कारण ये उन्हें अपने से नीचा समझते थे। उनके साथ उनका किसी प्रकार का व्यवहार नहीं था। वे स्वयं को शासक वर्ग का मानते थे। पाकिस्तान के प्रसिद्ध इतिहासकार डाक्टर मुबारक अली पूछते हैं कि भारतीय मुस्लिमों में सभी प्रकार की योग्यताएं होने के बावजूद उनमें एक भी साहित्यकार, नामचीन कवि, प्रशासक या बड़ा अधिकारी क्यों नहीं बन सका? विदेशी मुसलमानों ने अपने नामों के साथ समरकंदी, शीराजी और असफहानी जैसे शब्दों का प्रयोग कर एक विशेष प्रकार के मानस का प्रदर्शन किया है। इसलिए मुसलमानों में ऊंच-नीच और जात-पात के लिए कोई अन्य वर्ग जिम्मेदार नहीं है, बल्कि स्वयं विदेशी आक्रांता मुस्लिम हैं, इस तथ्य को स्वीकार करना चाहिए।13
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