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दिशादर्शन

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Sep 5, 2004, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 05 Sep 2004 00:00:00

जातिगत संकीर्णता से उबरेंमा.गो.वैद्यजाति और जातीयता आदि पर बहुत चर्चा होती है। जाति प्रथा उन्मूलन के लिए समाज-सुधारकों ने बहुत प्रयत्न भी किए। स्वामी दयानंद सरस्वती और उनके आर्य समाज ने इस बारे में, विशेषकर उत्तर भारत में बड़ा ठोस कार्य किया। डा. बाबासाहब अम्बेडकर ने तो जात-पात को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए ही कमर कसी थी। “एनिहिलेशन आफ कास्ट” नामक उनके एक लेख में यह बात स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। वास्तव में उन्होंने यह लेख एक भाषण के लिए तैयार किया था, जो उन्हें पंजाब के जाति-उन्मूलन मंडल के एक अधिवेशन में देना था। अधिवेशन के पूर्व ही बाबासाहब ने अपना भाषण अधिवेशन के आयोजकों के पास भेज दिया। आयोजकों ने उसे पढ़ा तो उन्हें यह भाषण इतना उग्र लगा कि उन्होंने अधिवेशन ही स्थगित कर दिया। बाद में बाबासाहब का यह भाषण पुस्तक रूप में प्रकाशित हुआ। बाबासाहब की जाति प्रथा उन्मूलन की परिपाटी उनके भक्तों और अनुयायियों को चलानी थी, पर वही लोग जातीय भावना से इतने ग्रसित हो गए हैं कि उन्होंने महान बौद्ध पंथ को एक जाति विशेष तक सीमित कर संकुचित कर दिया। आज जिन्हें हम दलित कहते हैं या पहले जिन्हें अस्पृश्य कहा जाता था, उनमें से केवल महार जाति के लोग ही बौद्ध बने, अन्य को वे बौद्ध मत की दीक्षा भी नहीं दे पाए। कारण अनेक हो सकते हैं पर मूलभूत कारण तो यही है कि बौद्ध बने महार जाति के लोग, अन्य जातियों के लोगों को अपने समकक्ष मानने के लिए तैयार नहीं हैं।लक्ष्य एक, मार्ग दोराष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने प्रारंभ से ही अपने विचार और व्यवहार में जात-पात को कोई स्थान नहीं दिया है। एक समय था जब जाति- व्यवस्था की उपयोगिता मानी जाती थी, पर आज वह समाप्त हो गई है, अनावश्यक हो गई है और उसे भूल जाना या उसकी परवाह ही करना उसके उन्मूलन का सर्वोत्तम उपाय है। संघ के अनेक स्वयंसेवकों ने बिना कोई प्रचार किए अनेक अन्तरजातीय विवाह किए हैं और कर भी रहे हैं। हालांकि कुछ हद तक हम जाति-व्यवस्था के ऋणी भी हैं। दिल्ली में सात सौ वर्षों तक मतान्ध कट्टर शासकों के होते हुए भी दिल्ली के आस-पास का क्षेत्र मुस्लिमबहुल नहीं बन पाया। इसका कारण जाति-व्यवस्था ही थी और उसी व्यवस्था ने समाज को कवच देकर उसे बचाए रखा। पूर्व के कुछ देशों और मध्य एशिया में इस्लाम ने प्रभाव डाला, पर वहां भी जाति-व्यवस्था पूर्णत: समाप्त नहीं हो पाई। कालांतर में इसी जातीय भावना और रूढ़ियों से समाज खंडित होने लगा तथा समाज सुधारकों को जाति- व्यवस्था के पूर्ण उन्मूलन के लिए प्रयास करने पड़े। उनके तरीके भी अलग-अलग थे। जाति-व्यवस्था तो कालबाह्र हो ही गई थी फिर भी उसे मानने वाले हिन्दू समाज पर तीव्र प्रहार करना एक तरीका था तो दूसरा तरीका था उसे भूल जाना या उसकी चिंता ही न करना था। दूसरे शब्दों में पहला तरीका था- किसी एक पक्की रेखा को खींचकर दूसरी को मिटा देना तो दूसरा तरीका था उसी रेखा पर पहले से लम्बी एक और रेखा खींचकर पहली रेखा को छोटा बना देना, उसे गौण बना देना तथा दूसरी नई लम्बी रेखा के प्रति निष्ठावान रहना। संघ ने दूसरा तरीका ही अपनाया है। हिन्दू समाज के अन्तर्गत जितनी भी जातियां हैं, उन पर उनसे ज्यादा बड़ी हिन्दुत्व की लंबी रेखा खींच दी और उसी हिन्दुत्व के प्रति निष्ठा रखी। इससे जातिवाद की पहली रेखा एकदम छोटी, गौण, नगण्य होकर लुप्तप्राय: हो गई है।एक बात तो सर्वमान्य है कि जाति-व्यवस्था का अब कोई अर्थ नहीं रह गया है। पहले विविध व्यवसायों के आधार पर जातियां बनी थीं और अपने-अपने व्यवसाय के अनुकूल अभिमान भी रहता था। पर अब तो व्यवसाय भी किसी जाति विशेष के लिए नहीं रहे हैं। छोटे-छोटे गांवों में भी एक जाति का युवक किसी भी दूसरे व्यवसाय के लिए प्रयासरत रहता है और उसमें निपुणता प्राप्त कर आजीविका ढूंढ लेता है। अब तो जाति के अनुसार न तो व्यवसाय रह गए हैं और न व्यवसाय के अनुसार जातियां। वैसे तो यह अच्छी बात है, पर हमारे राजनीतिज्ञों को यह नहीं सुहाई। अन्यथा सरकार को जाति के अनुसार आरक्षण और राजनीति में आरक्षण की आवश्यकता ही क्यों पड़ती? एक ओर तो समाजवाद का ढोल पीटा जा रहा है और दूसरी ओर समता, समरसता में बाधक शक्तियों को पनपाने का दोगला व्यवहार हो रहा है। ग्राम पंचायत या जनपद के चुनावों में यह बात स्पष्ट दिखाई देती है। यहां भी जाति-अनुसार आरक्षण किए गए हैं। कहीं महिलाओं के लिए, कहीं अनुसूचित जातियों के लिए तो कहीं अनुसूचित जनजातियों के लिए। अब एक नया वर्ग अन्य पिछड़ी जाति के लिए भी निर्मित कर दिया गया है। मेरी व्यक्तिगत राय है कि राजनीतिक आरक्षण देना ही गलत है। हर मतदाता के मत का मूल्य एक समान होता है। चाहे वह प्रधानमंत्री हो या कोई चपरासी। राजनीतिक क्षेत्र में ऐसे आरक्षण की कोई आवश्यकता ही नहीं है। किसी भी आरक्षित-उम्मीदवारी के लिए उस उम्मीदवार को अपनी जाति का प्रमाणपत्र देना पड़ता है अर्थात् उसे उसकी जाति का स्मरण दिलाया जाता है। जातियों को समाप्त करने का यह तो कोई उपाय नहीं। जातिरूपी शस्त्र की धार इससे अधिक तेज होती है।सरकार का कर्तव्यसमाज में सामंजस्य, समरसता, सौहार्द निर्माण करने की जिम्मेदारी भले ही अकेले सरकार की न हो पर कम से कम इस एकता में बाधक शक्तियों को प्रतिबंधित करने का काम तो उसका ही है। शासकीय व्यवस्था में जाति-अनुसार आरक्षण को समाप्त हो ही जाना चाहिए। बहुसदस्यीय पंचायत एक अच्छी प्रणाली है। विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों में भी इसे लागू किया जाना चाहिए। इससे निर्वाचित उम्मीदवारों को सभी वर्गों के हितों की ओर ध्यान देना पड़ेगा। सभी स्थान सबके लिए कर देने चाहिए। मेरा मानना है कि महिलाओं के लिए भी पृथक आरक्षण अनावश्यक है। जहां आवश्यक प्रतीत होता है, वहां सरकार महिला प्रतिनिधियों की नियुक्ति भी कर सकती है। जाति-अनुसार आरक्षण से जाति व्यवस्था को अधिक बल मिलता है। अत: जात-पात और उनसे उपजने वाले भेद-भुला देना ही अधिक श्रेयस्कर है। देश प्रगति के पथ पर ्अग्रसर है, नित नई दिशाओं में सफलता के मार्ग खुल रहे हैं। अत: जातिगत संकीर्णता से ऊपर उठकर ही इस विकृति पर विजय प्राप्त की जा सकती है।4

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