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गवाक्ष

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Aug 8, 2004, 12:00 am IST
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दिंनाक: 08 Aug 2004 00:00:00

शिवओम अम्बरसुभद्रा कुमारी चौहान :राष्ट्रीयता और स्वाभिमान की पहचानक्यों हर उपवन में नहीं वसंत?यह वर्ष कवयित्री श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान का जन्मशती वर्ष है। 16 अगस्त, 1904 को जन्मी सुभद्रा जी का काव्य यद्यपि छायावादी कालखण्ड में विकसित हुआ (वह महादेवी जी की सहपाठिनी तथा अनन्य सखी थीं), पर उनका स्वर अपने युग के प्रचलित प्रतिमान से अलग हटकर था। उनकी भाषा में छायावाद की आकाशी उड़ान की दार्शनिक भंगिमा के स्थान पर माटी की महक और अपने परिवेश के यथार्थ की लहक थी। उनकी अमर रचना “खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी” यद्यपि अंग्रेज सरकार द्वारा प्रतिबन्धित की गई थी लेकिन उससे पूर्व ही वह जन-जन का कंठहार बन चुकी थी। “वीरों का कैसा हो वसन्त” में उनके द्वारा उठाये गये शाश्वत प्रासंगिकता वाले प्रश्न हमें सदैव दोहराने होंगे-गलबांहें हों या हों कृपाणचल चितवन हों या धनुष-बाणहो रस-विलास या दलित-त्राणअब यही समस्या है दुरन्तवीरों का कैसा हो वसन्त?भारतवर्ष स्वतंत्र हो चुका है। जिस आजादी का स्वप्न सुभद्रा कुमारी जैसी राष्ट्रचेता प्रतिभाओं ने देखा था, वह अर्धशती की जय-यात्रा पूरी कर चुकी है किन्तु आज भी वसन्त हर उपवन में नहीं आ सका है, क्योंकि हम आत्म-मंथन की प्रक्रिया भुला बैठे हैं, सुभद्राजी की तरह वसन्त के रूपाकार के सन्दर्भ में प्रश्न नहीं उठाते!नामवर जी का प्रलापअभिव्यक्ति-मुद्राएंजिस्म कागज का जान कागज की,जिन्दगी दास्तान कागज की। -इकराम राजस्थानीकभी इसकी तरफदारी, कभी उसकी तरफदारी,इसे ही आज कहते हैं जमाने में समझदारी। -कमलेश भट्ट कमलचाहे महफिल में रहूं चाहे अकेले में रहूं,गूंजती रहती हो मुझमें एक शहनाई-सी तुम।-डा. कुंअर बेचैनमैं खिलौनों की दुकानों का पता पूछा किया,और मेरे फूल-से बच्चे सयाने हो गये। -प्रभात शंकरस्वर्ग में बैठे “निराला” आज खुश होंगे जरूर,उनके प्यारे वंशधर अब चल रहे हैं कार में। -डा. उर्मिलेश”जनमत” पत्रिका के हाल ही के अंक में सुप्रसिद्ध समालोचक नामवर सिंह जी ने तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी के सूफी काव्य-युग को नवजागरण का संवाहक मानने की घोषणा करते हुए अचानक विवेच्य विषय की पटरी से उतरकर गोस्वामी जी की श्री रामनिष्ठा पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया। उनके शब्द हैं- “…बनारस के सारे देवी-देवताओं को विनयपत्रिका में जगह क्यों दी? साठ पर उन्होंने लिखा, अन्नपूर्णा पर लिखा, भैरव पर लिखा। कोई देवता नहीं बचे बनारस के जिस पर उन्होंने न लिखा हो, तो पूछें कि- हे महाराज, विनयपत्रिका तो आप राम को भेंटने चले तो उसके पहले साठ लोगों पर जल चढ़ाने की क्या जरूरत थी? कोई परम्परा के निर्वाह के लिए ही तो कर रहे थे। जिसका मतलब यह हुआ कि राम के प्रति तुलसी की आस्था विचलित थी और उन देवी-देवताओं की पूजा भी। बाबा में हिम्मत नहीं थी कि उन्हें छोड़ दें।”वाग्वीर नामवर जी को गोस्वामी जी पर टिप्पणी करने से पहले उनकी काव्य-दृष्टि को समझने की चेष्टा करनी चाहिए थी। विनयपत्रिका में जिस राजदरबार का रूपक बांधा गया है, उसमें सीधे-सीधे सम्राट के समक्ष जाकर खड़ा होना संभव ही नहीं था, पहले सामान्तों को प्रणाम करना कर्तव्य था। किन्तु विनयपत्रिका के पहले पद से ही उनकी प्रार्थना हर देवता से यही थी-“मांगत तुलसिदास कर जोरेबसहिं रामसिय मानस मोरे।”रही बात साठ देवताओं की तो “मानस” में तो उन्होंने प्रेत-पितर-गन्धर्व-किन्नर- रजनीचर सबको प्रणाम निवेदित किया है, “सीयराममय सब जग जानी” की मान्यता को जीते हुए। हां, नामवर जी की अधकचरी जानकारी वाली टिप्पणी पढ़कर मुझे एक शेर याद आ गया-कामयाबी का नया नुस्खा मिला है मुझको,मैंने अपने से बड़े शख्स को गाली दी है।22

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