संस्कृति सत्य
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संस्कृति सत्य

by
Aug 8, 2004, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 08 Aug 2004 00:00:00

वचनेश त्रिपाठी “साहित्येन्दु”शहीद रोशनलाल…जैसी मां की इच्छा!!श्री धनीराम मेहरा की अमृतसर की गली नैनसुख में रेशमी वस्त्रों की दुकान थी। उनकी पत्नी श्रीमती ललिता देवी का बंगाल की क्रांतिकारी संस्था “अनुशीलन समिति” के कुछ क्रांतिकारियों से संपर्क था। वे क्रांतिकारियों की आर्थिक सहायता करती थीं, उनकी दुकान के मुनीम हीरा लाल कपूर और केशवराम भी क्रांतिकारी दल को सहयोग देते थे। ललिता देवी के चार पुत्र थे, अत: वे चाहती थीं कि उनका एक बेटा देश की आजादी के लिए काम करे। वे अपने दूसरे पुत्र रोशनलाल को देश के लिए बलिदान हुए क्रांतिवीरों की कहानियां प्राय: सुनाया भी करती थीं। सुनाने के बाद उससे पूछतीं, “बोल! क्या तू भी इनके जैसा बनेगा?” और रोशनलाल उत्साह से कह उठता, “हां मां, मैं भी क्रांतिकारी बनूंगा।”सन् 1928 की बात है। ललिता देवी ने सूरत के एक क्रांतिकारी श्री दया शंकर (उपनाम दयानन्द) से कहा, “मेरे चार लड़के हैं, मैं चाहती हूं कि मेरा पुत्र रोशनलाल देश के लिए काम करे।” पर कुछ दिनों बाद ही ललिता देवी संसार छोड़ गईं। मां की मृत्यु के दो वर्ष बाद ही रोशनलाल का सम्पर्क क्रांतिकारी शंभुनाथ आजाद से हुआ और तब रोशनलाल भी क्रांतिकारी दल के सक्रिय सदस्य बन गए। उस समय उनकी आयु 17 वर्ष थी। अमृतसर में सन् 1930-31 में चले सत्याग्रह आंदोलन में पुलिस ने सत्याग्रहियों पर ऐसा क्रूरतापूर्ण दमनचक्र चलाया कि उस कोतवाली का नाम “बूचड़खाना” (यानी कसाईखाना) पड़ गया। फलत: इस दमन का उत्तर रोशनलाल और उसके साथी उमाशंकर ने पुलिस कोतवाली (अमृतसर) पर बम फेंककर दिया। उन्हीं दिनों मद्रास के अंग्रेज गर्वनर ने इस सन्दर्भ में यह बयान दिया कि “मद्रास प्रान्त के लोग ब्रिटिश हुकूमत के प्रति अत्यंत वफादार हैं।” गर्वोक्ति भरे इस बयान को पढ़कर अमृतसर के इन युवकों ने संकल्प लिया कि वे मद्रास जाकर वहां भी पंजाब-बंगाल की तरह क्रांति की अलख जगाएंगे। पर इसके लिए धन चाहिए था। रोशनलाल ने एक दिन अपने पिता की तिजोरी से पांच हजार आठ सौ रुपए निकाले और पांच हजार पार्टी के लिए शंभुनाथ आजाद को दे दिए और शेष आठ सौ रुपए अपने पास रख लिए और घर छोड़ दिया।रोशनलाल सीतानाथ डे के साथ दक्षिण के उटकमंड की यात्रा पर चल पड़े। मद्रास पहुंचकर वहां की “रामपेठ बाजार” से आगे मजदूर बस्ती में किराए पर एक छोटा सा घर लिया और वहीं रहने लगे। उनके एक साथी हीरानन्द वात्स्यायन ने सुझाव दिया कि अभी केवल यहां के गवर्नर पर बम फेंकने के बजाय बंगाल का भी यहां गर्वनर जब जल्दी ही यहां आए तब दोनों पर बम एक साथ फेंका जाए। फलत: पूर्वयोजना स्थगित कर दी गई। इन लोगों के पास पैसा समाप्ति पर था। अत: चार साथियों को छोड़कर शेष सभी ने ऊटी बैंक का खजाना लूटा, जिसमें शंभुनाथ आजाद के अलावा सभी साथी गिरफ्तार हो गए। पर बैंक लूट कांड में रोशनलाल, गोविन्द राम, इंद्र सिंह और हीरालाल कपूर नहीं थे। 30 अप्रैल, सन् 1933 को सब लोग शाम को तम्बूचट्टी स्ट्रीट के एक नए मकान में आ गए। तय हुआ कि बम बनाकर ऊटी-केस के साथी क्रांतिकारियों को हवालात से रिहा कराएंगे। अत: मद्रासी चूड़ीदार ढक्कन वाले लोटे में मसाला भरकर एक छोटा दस्ती बम बना लिया गया। वह 1 मई, 1933 का दिन था। वे रात 8 बजे मद्रास बन्दरगाह की पूर्व दिशा में रामपुरम क्षेत्र के पास सागरतट पर बनी प्रस्तर प्राचीर के अंतिम छोर पर बम का परीक्षण करने पहुंचे। गोविन्दराम वर्मा और इन्द्र कुमार सिंह उसी दीवार की पश्चिमी दिशा में चौकसी हेतु नियुक्त हुए ताकि बम का परीक्षण करने के बाद जब रोशनलाल इधर से लौटें तो उन्हें सकुशल साथ वापस ले चलें। पर होनी में कुछ और था। रोशनलाल के रास्ते में पत्थरों व चिकनी चट्टानों के खण्ड पड़े थे, चलते-चलते रोशनलाल का पैर फिसल गया और उनके नीचे चट्टानों पर गिरने के साथ ही उनके हाथ में बम फूट गया। बम के टुकड़े उनके पूरे शरीर में गहराई तक प्रवेश कर गए। बलिदान हो गए रोशनलाल वर्मा बम परीक्षण के प्रयास में। उस रात मद्रास के रामपुरम क्षेत्र में दृश्य यह था कि जनता दर्शन के लिए शहीद के शव के निकट उमड़ रही थी और पुलिस दल उस भीड़ पर लाठियां चला रहा था। अंतत: रोशनलाल वर्मा अपनी मां की इच्छानुसार ही देश की स्वतंत्रता की बलिवेदी पर बलिदान हुए।16

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