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मंथन

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Aug 8, 2004, 12:00 am IST
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दिंनाक: 08 Aug 2004 00:00:00

देवेन्द्र स्वरूप

राष्ट्रपति की चेतावनी और

दो पाटन में फंसे अर्जुन

केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह आजकल भारी संकट में हैं। एक तो उम्र और फिर सेहत साथ नहीं दे रही। सभा-समितियों में झपकी लग जाती है। पार्टी उनकी वरिष्ठता को सम्मान नहीं देती। अब वे अपने अस्तित्व की घोषणा कैसे करें, अपने महत्व को प्रदर्शित कैसे करें? उन्हें वामपंथियों के दबाव में आकर ऐसे निर्णय लेने पड़ रहे हैं, जिन्होंने उनकी अपनी स्थिति को अत्यधिक हास्यास्पद बना दिया है। वामपंथियों के लिए राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान प्रशिक्षण परिषद् (एन.सी.ई.आर.टी.) के निवर्तमान निदेशक डा. जगमोहन सिंह राजपूत एक हौवा बन गए थे, उन्हें वे अपना शत्रु क्रमांक एक देखते थे। आखिर इससे बड़ा अपराध क्या हो सकता है कि कोई निदेशक शिक्षा के पाठक्रम में नैतिक मूल्यों को स्थापित करने का प्रयास करे, तीस साल से चल रही उनकी पाठपुस्तकों को हटाकर उनके स्थान पर राष्ट्रभक्ति की प्रेरणा देने वाली नयी पाठपुस्तकें अल्पकाल में ही लागू करके दिखा दे, अपने निर्णयों पर सर्वोच्च न्यायालय की मुहर लगवा ले, मीडिया में उनके प्रत्येक तर्क की धज्जियां उड़ा दे। वामपंथियों को आशा थी कि अर्जुन सिंह के मंत्री बनते ही वे डा. राजपूत को फांसी के फंदे पर लटकवा देंगे, उन्हें निलम्बित कर देंगे, उनकी पेंशन ओर ग्रेच्युटी जब्त करा देंगे। किन्तु डा. राजपूत ने अर्जुन सिंह के मंत्री बनने से पहले अपना निदेशककाल पूरा होते ही सेवानिवृत्ति के निर्णय की लिखित सूचना मंत्रालय को भेज दी थी। यद्यपि वे एक वर्ष तक और प्रोफेसर बने रह सकते थे, किन्तु उन्होंने ससम्मान 13 जुलाई को एन.सी.ई.आर.टी. से विदा ले ली और वामपंथी टोला हाथ मलता रह गया। उनके गाल पर इससे भी भारी तमाचा मारा यूनेस्को ने, सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद डा. राजपूत को पुरस्कार से सम्मानित करके। क्या हो गया है इन अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं को कि वे भारत के वामपंथियों के चश्मे से दुनिया को देखने को तैयार नहीं हैं?

“खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे” वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए वामपंथियों ने अर्जुन सिंह पर दबाव डाला कि डा. राजपूत के नेतृत्व में एन.सी.ई.आर.टी. में इस समय जो भी पुस्तकें प्रकाशनाधीन हों उन सबको तुरन्त रोक दिया जाए। बेचारे अर्जुन सिंह करते भी क्या, उन्होंने तुरंत आदेश भिजवा दिया कि ऐसी सभी पुस्तकों का प्रकाशन रोक दिया जाए। इन पुस्तकों में एक पुस्तक है वेदांत, जिसके लेखक हैं कांग्रेस के बड़े नेता और राज्यसभा के सदस्य डा. कर्ण सिंह। वेदांत से वामपंथियों को भले ही चिढ़ हो, पर कांग्रेस के अनेक नेताओं व भारत की जनता और विश्वभर के अध्यात्म प्रेमियों को तो बहुत प्यार है। दूसरी पुस्तक है दक्षिण के महान सन्त तिरुवल्लुवर की उक्तियों की। दक्षिण ही नहीं पूरा भारत तिरुवल्लुवर से प्रेरणा लेता है, उनके वचनामृत का पान कर आध्यात्मिक आनंद का अनुभव करता है। वामपंथी दबाव से हड़बड़ाए अर्जुन सिंह ने इन दोनों पुस्तकों के प्रकाशन पर रोक के आदेश जारी करवा दिए। किन्तु शीघ्र ही उन्हें अपने थूके को चाटना पड़ा और आदेश वापस लेना पड़ा। प्रकाशनाधीन पुस्तकों में एक पुस्तक है जिसमें भारतीय शिक्षकों एवं शिक्षाविदों को विश्वभर में शिक्षा के क्षेत्र में हो रहे चिन्तन एवं परिवर्तनों से अवगत कराने हेतु यूनेस्को जैसी अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं के शिक्षा सम्बंधी दस्तावेजों का संकलन किया गया है। चौथी पुस्तक में भारत के उन अध्यापकों के जीवन वृत्त एकत्र किए गए हैं, जिन्होंने भारत के स्वाधीनता संघर्ष में भारी योगदान दिया और सादगी व त्यागपूर्ण जीवन का उदाहरण प्रस्तुत किया। ये दोनों ही ज्ञानवद्र्धक और प्रेरणादायी पुस्तकें वामपंथियों की आंखों की किरकिरी बन गईं, क्योंकि इनका संकलन व संपादन डा. राजपूत के द्वारा हो रहा था। सन्दर्भ ग्रंथ के रूप में ये पुस्तकें डा. राजपूत के नाम को अमर कर देतीं। इसलिए वामपंथियों ने हुक्म दिया कि इन पुस्तकों का प्रकाशन रोक दो और बेचारे अर्जुन सिंह ने सर झुकाकर उसे मान लिया। अब किरकिरी किसकी हो रही है, मजाक किसकी बन रही है? वामपंथियों की नहीं, अर्जुन सिंह की- उनकी कुर्सी की।

इससे भी बड़ी मुसीबत तो अर्जुन सिंह के लिए इतिहास की पाठपुस्तकें बन गयी हैं। वामपंथियों के छह वर्ष लम्बे अभियान का एक ही नारा था, हमारी लिखी पुस्तकों को हटाने का मतलब होगा शिक्षा का भगवाकरण। अब भगवे रंग से वामपंथियों को भले ही नफरत हो, पर भारत का विशाल जनसमूह तो इस रंग को पूजता है और इस विशाल जनमन की भावनाओं पर हमला करके कांग्रेस पार्टी सत्ता में आने का सपना कैसे देख सकती है, इसलिए अर्जुन सिंह ने भगवाकरण शब्द को मानव संसाधन विकास मंत्रालय के शब्द कोश से निकाल दिया उसकी जगह “विषकरण” शब्द डाल दिया। पर वामपंथियों की मुख्य मांग तो यह है कि हमारी पुस्तकों को तुरंत वापस लाओ, जोशी युग की पुस्तकों को तुरन्त हटाओ। अर्जुन सिंह बुरे फंस गए। एक और शिक्षा सत्र का मध्य आ गया, इस समय पाठपुस्तकों में परिवर्तन का अर्थ होता लाखों-करोड़ों छात्रों के कैरियर को खतरे में डालना। इस संकट से निकलने के लिए अर्जुन सिंह ने तीन इतिहासकारों की एक समिति बनायी, जिसे स्पष्ट निर्देश दिया गया कि शिक्षा सत्र के मध्य में वर्तमान पुस्तकों को हटाना संभव नहीं है अत: यदि उनमें कोई साम्प्रदायिक अंश है तो यह समिति उन अंशों को रेखांकित करके उनके वैकल्पिक पाठ सरकार को दे दे ताकि उन्हें शिक्षकों एवं प्राचार्यों को भेजा जा सके। किन्तु समिति वर्तमान पाठपुस्तकों में ऐसा कोई अंश नहीं ढूंढ़ पाई। उन्होंने फतवा दे दिया कि ये सभी पुस्तकें हटा दी जाएं और निजी प्रकाशकों की पुस्तकों को प्राचार्यों व शिक्षकों को भेज दिया जाय, जिनमें वे अपनी मनपसन्द पुस्तकें छांट कर पढ़ाना आरंभ कर दें। यह सिफारिश मंत्रालय के निर्देश का उल्लंघन तो थी ही, क्रियान्वयन की दृष्टि से बहुत ही हास्यास्पद भी थी।

मंत्रालय के आग्रह पर समिति ने अपनी रपट में इन पाठपुस्तकों में आपत्तिजनक अंशों को चिन्हित करने का प्रयास किया। किन्तु इस प्रयास ने इन विद्वान इतिहासकारों और मंत्री जी की स्थिति को बहुत ही विषम बना दिया। प्राचीन भारतीय इतिहास के विशेषज्ञ प्रो. एस. सेत्तार ने कक्षा 11 की प्राचीन भारत पुस्तक पर तो कोई टिप्पणी ही नहीं की। कक्षा 6 की पुस्तक पर टिप्पणी की गई तो उसके लेखक प्रो. मक्खनलाल ने उनकी प्रत्येक आपत्ति का सप्रमाण खंडन कर दिया। मध्यकालीन भारत के विशेषज्ञ माने जाने वाले प्रो. जे.एस. ग्रेवाल तो भारी मुसीबत में फंस गए। उन्होंने अपनी रपट में डा. मीनाक्षी जैन द्वारा कक्षा 11 के लिए लिखित “मध्यकालीन भारत” पुस्तक पर जो आपत्तियां उठायीं, प्रत्येक आपत्ति के साथ जो पृष्ठ संख्या दी वह डा. मीनाक्षी जैन की पुस्तक में थी ही नहीं। खोज करने पर पता चला कि उन्होंने मूल पुस्तक को पढ़ने का कष्ट ही नहीं उठाया और इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस के नाम पर बनायी गयी समिति की “इन्डेक्स आफ एरर्स” (भूलों की तालिका) शीर्षक रपट में प्रो. इरफान द्वारा की गई आलोचना को ज्यों का त्यों दोहरा दिया और वह भी इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस द्वारा प्रकाशित पुस्तक में नहीं तो उसके उत्तर में एन.सी.ई.आर.टी. द्वारा प्रकाशित “फैलेसीज इन इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस रिपोर्ट” शीर्षक पुस्तक से। क्योंकि उनके द्वारा दी गई प्रत्येक पृष्ठ संख्या इसी पुस्तक से ले ली गई थी।

प्रसिद्धि पाने के उत्साह में उन्होंने अपनी यह रपट “इंडियन एक्सप्रेस” नामक दैनिक पत्र में भी छपवा दी। डा. मीनाक्षी जैन ने प्रत्येक आपत्ति के उत्तर में अपनी पुस्तक के अंशों को हूबहु उद्धृत करके प्रो. ग्रेवाल और “इंडियन एक्सप्रेस” को झूठा सिद्ध कर दिया। झूठा प्रचार करने के लिए उनके विरुद्ध कानूनी कार्रवाई करने की घोषणा कर दी। इस धमकी से घबराकर “इंडियन एक्सप्रेस” ने 23 जुलाई को उनके उत्तर को प्रकाशित तो किया किन्तु छठे पृष्ठ पर इस तरह छापा कि किसी पाठक की निगाह उस पर पढ़े ही नहीं। पर डा. मीनाक्षी जैन और प्रो. मक्खनलाल के लिखित प्रमाण सहित खंडन इन विद्वानों की प्रतिष्ठा को कम करते हैं। अर्जुन सिंह जी ने इस समिति की रपट को एन.सी.ई.आर.टी. की पुनर्गठित कार्यसमिति में रखा। कार्यसमिति में उनके द्वारा नियुक्त चार वामपंथी सदस्यों यथा जे.एन.यू. की डा. मृदुला मुखर्जी आदि के पूरा जोर लगाने पर भी कार्यसमिति तीन दिन बहस करके भी पाठपुस्तकों को इस वर्ष हटाने का निर्णय नहीं ले पायी। किन्तु एन.सी.ई.आर.टी. की कार्यसमिति के निर्णय के आधार पर अर्जुन सिंह ने संसद में जो अधिकृत वक्तव्य प्रस्तुत किया वह यह बताने के लिए पर्याप्त है कि वामपंथी दबाव में आकर वे कितने हास्यास्पद और अविवेकपूर्ण निर्णय लेने को बाध्य हैं। अर्जुन सिंह जी ने वक्तव्य दिया कि वर्तमान पाठपुस्तकें इस सत्र में चलती रहेंगी, किन्तु उनमें व्याप्त सांप्रदायिक दृष्टि से छात्रों को मुक्त करने के लिए पुरानी वामपंथी पाठपुस्तकों को उन्हें संदर्भ ग्रंथ के रूप में उपलब्ध कराया जायेगा। इसके लिए प्रत्येक पुरानी पाठपुस्तक की पांच-पांच प्रतियां प्रत्येक विद्यालय को नि:शुल्क भेजी जाएंगी। हजारों स्कूलों को ये पाठपुस्तकें नि:शुल्क भेजने के लिए प्रत्येक पाठपुस्तक की हजारों प्रतियों का पुनर्मुद्रण करना होगा। उसके उत्पादन का पूरा व्यय राजकोश पर पड़ेगा। पुनर्संस्करण होने के कारण उनके लेखकों को भारी रायल्टी देनी होगी, अर्थात् एक प्रकार से वे पुस्तकें पिछले दरवाजे से वापस लायी जा रही हैं।

इससे वामपंथियों की आत्मा (आत्मा को तो वे मानते ही नहीं इसलिए उनके भीतर बैठा माक्र्स) तो प्रसन्न हो जाएगी किन्तु बेचारे छात्रों और शिक्षकों का क्या होगा, यह कोई नहीं सोच रहा। क्या कोई सोच सकता है कि छठी कक्षा का अबोध बालक पहले अपनी निर्धारित पाठपुस्तकें पढ़े फिर उसमें सांप्रदायिकता ढूंढने के लिए रोमिला थापर द्वारा लिखित पाठपुस्तक को संदर्भ ग्रंथ के रूप में टटोले? छठी कक्षा का छात्र क्या हुआ पूरा “रिसर्च स्कालर” हो गया? शायद इससे अर्जुन सिंह और उनकी पींठ पर सवार वामपंथी चाबुक गर्व के साथ कह सकेंगे कि हमारे कारण शिक्षा का स्तर इतना ऊंचा उठ गया कि छठी कक्षा के अबोध बालक भी शोध छात्र बन गए।

इससे वामपंथियों और अर्जुन सिंह का परिवर्तन का शौक तो पूरा हो गया किन्तु छात्रों, उनके अभिभावकों और शिक्षकों में भारी बेचैनी पैदा हो गयी है। वे इन शेखचिल्ली निर्णयों के विरुद्ध संगठित संघर्ष पर उतर आये हैं। इस आत्मघाती शिक्षा नीति के विरुद्ध कई मोर्चो पर एक साथ शिक्षा बचाओ आन्दोलन प्रारंभ हो गया है। राजधानी दिल्ली में हजारों छात्रों ने जन्तर-मन्तर पर प्रदर्शन करके इस नीति को समाप्त करने की मांग उठायी। कुछ दिनों बाद सैकड़ों अध्यापकों ने सड़क पर उतर कर अपनी व्यथा को प्रगट किया। 18 जुलाई को नरेन्द्र कोहली, मृदुला सिन्हा, कमल किशोर गोयनका आदि अनेक मूर्धन्य साहित्यकारों ने राजघाट पर महात्मा गांधी की समाधि के सामने धरना देकर देशवासियों को आगाह करने और वर्तमान सरकार की अन्तरात्मा को झकझोरने की कोशिश की। 24 जुलाई को कान्स्टीटूशन हाल में खचाखच भरे सभाकक्ष में पायनियर के संपादक चंदन मित्रा, पूर्व सांसद एवं वरिष्ठ पत्रकार दीनानाथ मिश्र, लंदन से इतिहास में पी.एच.डी. अर्जित करने वाले प्रसिद्ध पत्रकार स्वप्न दासगुप्ता, निर्भीक पत्रकार संध्या जैन और डा. जे.एस. राजपूत ने वामपंथी मस्तिष्क की शव परीक्षा की, और उनके द्वारा उत्पन्न वैचारिक महाभारत के महत्व पर प्रकाश डाला। पायनियर के वरिष्ठ संपादक उदयन नम्बूदरी ने सभा का संचालन किया।

यह विरोध प्रदर्शन दिल्ली तक ही सीमित नहीं है। सरकार की शिक्षा नीति से पूरा देश प्रभावित है। अत: पूरे देश में जगह-जगह शिक्षा बचाओ आंदोलन प्रारंभ हो गया है। राजस्थान के छात्रों और अभिभावकों ने एक जनहित याचिका के माध्यम से राजस्थान उच्च न्यायालय की शरण ली है। 28 जुलाई को न्यायालय ने उनकी याचिका विचारार्थ स्वीकार कर ली है और 11 अगस्त को उस पर सुनवाई निश्चित की है। टेलीविजन और समाचारपत्र भी इस विषय को अपने-अपने ढंग से उठा रहे हैं।

वामपंथियों के दबाव में आकर अर्जुन सिंह राष्ट्र की नई पीढ़ी को जिस अंधेरे रास्ते पर धकेलने में लग गए हैं उससे राष्ट्र के प्रबुद्धजन” समाजसेवी और यहां तक कि सन्तजन भी बहुत चिन्तित हो गए हैं। उन्होंने अपनी यह चिन्ता राष्ट्रपति डा. अब्दुल कलाम तक पहुंचाने का निश्चय किया। उन्होंने राष्ट्रपति के नाम एक पांच पृष्ठ लम्बे पत्र में अपनी यह चिंता प्रगट की। इस पत्र पर दक्षिण के प्रसिद्ध संत स्वामी दयानंद सरस्वती, क्षेत्रोपासना (चेन्नै) की अध्यक्ष प्रो. प्रेमा पांडुरंग, अमृत विश्वविद्यापीठम् के मुख्य कार्याधिकारी बह्मचारी अभय मित्र चैतन्य, नृत्योदय (चेन्नै) की निदेशक पद्म विभूषण डा. पद्मा सुब्राह्मण्यम, विवेकानन्द केन्द्र (कन्याकुमारी) के अध्यक्ष पद्मश्री पी. परमेश्वरन, सी.पी. रामास्वामी अय्यर प्रतिष्ठान (चेन्नै) के निदेशक डा. नन्दिता कृष्ण, प्रख्यात पत्रकार श्रीमती तवलीन सिंह, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रो. कपिल कपूर एवं मकरंद परांजपे और आर्य वैद्य फार्मेसी (कोयम्बतूर) के प्रबंध निदेशक श्री पी.आर. कृष्ण कुमार जैसे महत्वपूर्ण नामों ने हस्ताक्षर किए। यह पत्र स्वयं स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सोमवार 26 जुलाई को राष्ट्रपति से मिल कर उन्हें भेंट किया। राष्ट्रपति राष्ट्र की इस चिन्ता से व्यथित हैं। उन्होंने 28 जुलाई को सी.बी.एस.ई. के हीरक जयन्ती समारोह में श्री अर्जुन सिंह की उपस्थिति में अपनी इस व्यथा को उड़ेला। राष्ट्रपति जी ने बताया कि उन्हें देशभर के छात्रों, अभिभावकों और शिक्षकों के पांच सौ से अधिक चिंता-पत्र प्राप्त हुए हैं। उन्होंने सरकार को चेतावनी दी कि पाठपुस्तकों का परिवर्तन राजनीति प्रेरित नहीं होना चाहिए। अराजनीतिक शिक्षाविदों को गंभीरता से विचार करके पाठक्रम और पुस्तकों का चयन करना चाहिए।

पता नहीं राष्ट्रपति की इस चेतावनी का अर्जुन सिंह पर कितना असर हुआ है, किन्तु आज के अखबारों में उनके मंत्रालय ने एक विज्ञापन प्रकाशित करके अपनी सफाई देनी चाही है। एन.सी.ई.आर.टी. कार्यसमिति के निर्णयों को दिया गया है। उन्हें पढ़ने से स्पष्ट है कि सत्र 2005-2006 से वामपंथी पाठपुस्तकों को थोड़े संशोधन के साथ वापस लाने का निर्णय है। यह मुट्ठीभर वामपंथियों के सामने निर्लज्ज आत्मसमर्पण है और शिक्षा के कम्युनिस्टीकरण का कुचक्र है। राष्ट्र को पूरी ताकत के इस कुचक्र को पराजित करना होगा। (30-7-2004)

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