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शिबू सोरेन प्रकरण
दूध के धुले तो लालू भी नहीं हैं!
शिबू सोरेन प्रकरण से किसको कितना लाभ हुआ है? कोई भी कदम उठाने में लम्बे समय तक ना-नुकुर करते रहने के कारण बेचारे डा. मनमोहन सिंह की छवि पर बट्टा लग गया। न ही विपक्ष को कुछ मिला; ईमानदारी से कहूं तो झामुमो के विरुद्ध आरोपों से जनता को कोई विशेष सरोकार भी नहीं था। (भगवान करे जनता की भावना आंकने में मैं सही न ठहरूं!) न ही करदाताओं को कुछ लाभ हुआ जिन्होंने संसद- जिसके रखरखाव पर प्रतिदिन लाखों रु. खर्च होते हैं- को हफ्तों तक बाधित होते देखा। विडम्बना यह है कि इस सबमें अंतत: एकमात्र व्यक्ति, जिसके चेहरे पर मुस्कान दिखाई दी, हैं हमारे रेलमंत्री।
बिहार और झारखण्ड में विधानसभा चुनावों में एक साल से भी कम समय बचा है। ऐसे में लालू प्रसाद यादव नैतिकता की ऊंची पायदान पर पहुंचने का मौका हथिया ले गए। निश्चित तौर पर, फरार केन्द्रीय मंत्री को लालू यादव की बहुचर्चित अपील, “वैसा ही करो जैसा मैंने किया और चारा घोटाले में गिरफ्तारी का वारंट जारी होने पर समर्पण किया” के पीछे यही बात थी। (बहरहाल, दिल्ली में एक अफवाह खूब उड़ रही है कि पहले राजद ने झामुमो नेता को किसी भी कीमत पर गिरफ्तारी से बचने की सलाह दी थी; अगर यह सही है तो निश्चित रूप से यह धूर्तता की पराकाष्ठा ही कही जाएगी।) सोरेन प्रकरण पर मची हाय-तौबा का लाभ उठाने की जुगत में लालू प्रसाद यादव ने मन ही मन तीन उद्देश्य ठान लिए थे। पहला था, भाजपा द्वारा बनाए गए माहौल में से अपना फायदा निकालना, दूसरा था, कुछ पुराने अपमानों का बदला चुकाने के लिए शिबू सोरेन को थोड़ा उमेठना और तीसरा और मुख्य उद्देश्य था कांग्रेस को अपने ऊपर और अधिक आश्रित करना। मुझे लगता है कि वे अपने सभी उद्देश्यों की पूर्ति करने में सफल रहे।
निश्चित रूप से लालू यादव झारखण्ड की अर्जुन मुण्डा सरकार पर सोरेन के खिलाफ राजनीतिक बदले की भावना अपनाने का आरोप मढ़ेंगे। वे खीसें निपोरते हुए यह भी कहेंगे कि राज्य की भाजपा सरकार ने आखिर दो दशक से भी ज्यादा समय से दबे रहे मामले को फिर से क्यों उघाड़ा। (इससे बेहतर सवाल तो यह होगा कि हत्या के एक मामले को अदालत तक पहुंचने में इतना समय क्यों लगा!) उन्हें लगता है कि यह झारखण्ड में उन्हें फायदा पहुंचाएगा, जहां भाजपा पिछले लोकसभा चुनावों में राज्य की 14 सीटों में से केवल कोडरमा की एक सीट जीत पाई थी।
लालू यादव को उम्मीद है कि सोरेन के विरुद्ध यह मामला उन्हें हाल-फिलहाल उलझाए रखेगा। राजद अध्यक्ष झारखण्ड (जो 3 साल पहले तक बिहार का ही हिस्सा था) में पार्टी के प्रभाव को फिर से जमाने की आशा बांधे बैठे हैं। रेल मंत्री ने झारखण्ड की खनिज सम्पदा को बिहार के ही अधीन रखने की खूब पैरवी की थी। यहां तक कि उन्होंने एक ऐसा बेढब प्रस्ताव तक पेश कर दिया कि, झारखण्डियों के “मुक्ति” प्राप्त कर लेने के बावजूद झारखण्ड अपने राजस्व का एक हिस्सा बिहार के लिए सुरक्षित रखे। आज राजद नेता के सामने झारखण्ड में अपने पुराने घर को अपने ही सहयोगी की कीमत पर फिर से जमाने का सुनहरी मौका मिला है।
लेकिन, जैसा कि मैंने कहा, लालू यादव का प्रमुख निशाना कांग्रेस ही थी। रेलमंत्री को एक तो खतरा इस बात का था कि सोरेन के गिरफ्तारी का वारंट जारी होते ही सोनिया गांधी कुछ निर्णयात्मक कदम उठाएंगी। जब कांग्रेस इस मुद्दे पर टाल-मटोल करती रही और तब तक कदम उठाने से बचती रही जब तक कि डा. मुरली मनोहर जोशी ने राज्यसभा में डा. मनमोहन सिंह के “फरार” होने का सवाल नहीं उठा दिया, लालू यादव कैमरों के सामने जाकर सोरेन के लिए उपदेश झाड़ते रहे।
राजद के साथ गठजोड़ न तो कांग्रेस को सुहाता है, न ही वाममोर्चे को। लेकिन दोनों ही पक्ष जानते हैं कि वे बिहार की 40 में से अधिकांश सीटें तब तक नहीं खो सकते जब तक कि भाजपा का कोई संयुक्त मोर्चा नहीं खड़ा हो जाता। लालू यादव, जिनके मन में उक्त दोनों दलों की भावनाओं को लेकर कोई भ्रम नहीं है, अपने सहयोगियों के कद को बौना बनाए रखने पर आमादा हैं। आम चुनाव में उन्होंने कांग्रेस को केवल चार ही सीटें दीं और जब कांग्रेस ने उसमें से तीन जीत लीं तो वह बहुत कसमसाए भी थे। चूंकि अब शिबू सोरेन बिहार के वनवासी क्षेत्रों में चुनाव प्रचार में बंध जाएंगे, कांग्रेस का एक दमदार सहयोगी झामुमो उससे दूर होता जाएगा, जिसका अर्थ होगा लालू पर कांग्रेस का और अधिक आश्रित होते जाना। मुझे तो लगता है, झारखण्ड विधानसभा चुनावों में सोनिया गांधी राजद को अधिक सीटें देने को मजबूर हो जाएंगी।
“जिम्मेदारी विहीन सत्ता” भोगने के माकपा के फैसले ने इतना तो तय कर ही दिया है कि लालू यादव की राजद सत्तारूढ़ संप्रग गठबंधन की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनें। शिबू सोरेन रूपी ग्रहण का शायद यही अर्थ है कि लालू यादव बिहार में लगातार चौथी बार सत्ता हासिल करने की सुघड़ स्थिति में हैं। (25.7.04)
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