|
लोकसभा – राज्यसभा या धनपति सभा
ललित सूरी
विजय माल्या
जया बच्चन
अनिल अम्बानी
देश में यह संभवत: पहली बार हो रहा है कि लोकसभा और राज्यसभा में देश के प्रमुख राजनीतिक दलों ने उन लोगों को भेजा है जिनकी एकमात्र नहीं तो सबसे बड़ी योग्यता है- उनका पैसा। इनके कोठी, कार, बंगलों, नगदी और उद्यमों का राजनेताओं पर इतना जबरदस्त प्रभाव है कि दलों की नीतियां, कार्यक्रम और कार्यकर्ता उनके लिए कोई मायने ही नहीं रखते। इस स्थिति तक पहुंचने और उसे बनाए रखने के लिए उस दल के शिखर के दो-तीन नेताओं से मधुर संबंध बनाए रखना और उनकी राजनीतिक, आर्थिक आवश्यकताओं का पूरा किया जाना ही पर्याप्त माना जाता है। उसके बाद तो एक मुठ्ठी में राजनीति और दूसरी में तिजोरी होती है। इस बार देश के प्रमुख उद्योग समूह रिलायन्स इन्डस्ट्रीज के उपाध्यक्ष श्री अनिल अम्बानी ने राज्यसभा के लिए उत्तर प्रदेश से निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में नामांकन भरा और समाजवादी पार्टी के सहयोग से चुनकर उच्च सदन में पहुंच गए। नामंकन भरते समय श्री अम्बानी ने अपनी जो सम्पत्ति घोषित की, उसके अनुसार उनकी कुल वार्षिक आय लोकसभा एवं राज्यसभा के सभी सांसदों को मिलने वाले कुल वेतन से कहीं अधिक है। श्रीमती जया बच्चन भी उत्तर प्रदेश से समाजवादी पार्टी के टिकट पर राज्यसभा पहुंची हैं। 91 लाख रुपए के केवल आभूषण रखने वाली श्रीमती बच्चन के पति, प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता श्री अमिताभ बच्चन के पास 10 मंहगी कारें हैं और 123.92 करोड़ रुपए के शेयर आदि। (देखें बाक्स) होटल व्यवसायी ललित सूरी भी राज्यसभा में पहुंचे हैं। शराब की प्रमुख कम्पनी मैकडॉवेल्स समूह के अध्यक्ष श्री विजय माल्या और लाटरी किंग मणि कुमार सुब्बा पहले से ही राज्यसभा में हैं।
अनिल अम्बानी समाजवादी पार्टी की किस नीति और रीति को बताएंगे या बनाएंगे? विजय माल्यो विभिन्न राजनीतिक दलों को कितना खुश करके राज्यसभा की सीट जीत पाए, कह नहीं सकते। लेकिन जिस दिन भारत के तत्कालीन उपराष्ट्रपति कृष्णकांत का निधन हुआ था, उस दिन भी राज्यसभा में श्री माल्या के जीतने का जश्न बदस्तूर जारी था। दूसरी ओर बीकानेर संसदीय क्षेत्र से नवनिर्वाचित फिल्म अभिनेता धर्मेन्द्र, गुरदासपुर से विनोद खन्ना अथवा राज्यसभा में हेमामालिनी, ललित सूरी, दारा सिंह या नजमा हेपतुल्ला क्या भाजपा के कार्यकर्ताओं की प्रेरणा बनेंगे या भाजपा का मत विस्तार करने में मदद देंगे? क्या कोई कार्यकर्ता सहजता से उनके बंगलों के नजदीक भी पहुंच पाएगा? ऐसा क्यों होता है कि हर दल के नेताओं का दोस्त वही बनता है जो करोड़पति हो या जो उनके खर्चे वहन कर सके? इस सम्बंध में हमने पूर्व कृषि मंत्री एवं योजना आयोग के निवर्तमान सदस्य श्री सोमपाल शास्त्री, श्री भारतेन्दु प्रकाश सिंहल (गत 4 जुलाई को राज्यसभा की सदस्यता से सेवानिवृत्त हुए उ.प्र. के पूर्व पुलिस महानिदेशक) एवं माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ नेता तथा राज्यसभा सदस्य श्री नीलोत्पल बसु से बातचीत की। यहां प्रस्तुत है उनके विचार।
प्रस्तुति : जितेन्द्र तिवारी
धर्मेन्द्र
नवीन जिन्दल
नवजोद सिद्धू
ज्योर्तिमयी सिकदर
जयाप्रदा
विनोद खन्ना
गोविन्दा
राज बब्बर
अब वह गंभीरता कहां?
-भारतेन्दु प्रकाश सिंह
पूर्व सांसद (भाजपा), राज्यसभा
बड़े-बड़े धनपतियों का राज्यसभा में पहुंचना इस बात का प्रमाण है कि आज के जमाने में रुपया खुदा हो गया है। आर्थिक सहयोग देकर चाहे कोई भी धनपति राज्यसभा में अपनी सीट पक्की करा सकता है। मैं इसे भारतीय राजनीति की एक बड़ी त्रासदी मानता हूं कि जब अपना, अपनी पार्टी का, उसकी नीतियों और सिद्धान्तों तथा विचारधारा का आकर्षण खत्म होने लगा तो फिल्मी कलाकारों को आगे रखकर भीड़ बटोरी जा रही है। और फिर कृतज्ञतावश उन फिल्मी कलाकारों को लोकसभा-राज्यसभा का टिकट दिया जा रहा है। राजनीति की यह प्रवृत्ति हमें कहां ले जाएगी, कुछ कहा नहीं जा सकता।
वैसे भी राज्यसभा को “हाउस आफ एल्डर्स” कहा जाता है। यहां वे लोग चुनकर आते थे या नामित करके भेजे जाते थे जो अनुभवी और अपने विषय के विशेषज्ञ होते थे। अब या तो यहां पूंजीपति और फिल्मी कलाकार आ रहे हैं या फिर राजनेताओं के अनुभवहीन युवा पुत्र या रिश्तेदार। अब सदन में गंभीर चर्चा की अपेक्षा कैसे की जा सकती है। अब तो राज्यसभा में भी वैसा ही शोर-शराबा होने लगा है जैसा लोकसभा में होता है। राज्यसभा की एक प्रमुख विशेषता थी- गंभीरता, अब वह दिखती नहीं है।
वैसे भी ये पूंजीपति और फिल्मी कलाकार सदन में बहुत कम आते हैं। सदन की चर्चा में हिस्सा लेने लायक न इनका अध्ययन होता है, न अनुभव। इसलिए मेरा प्रत्येक राजनीतिक दल से प्रश्न है कि आखिर आप इन्हें सदन में किस अपेक्षा से भेज रहे हैं? यह तर्क देना ठीक नहीं है कि ये अपने क्षेत्र के सफल लोग हैं और इनके अनुभवों का लाभ सदन को मिलेगा। लाभ तो तब मिलेगा जब ये सदन में उपस्थित रहेंगे। राजनीतिक दलों के चुने हुए प्रतिनिधियों में से ही उन लोगों को उंगलियों पर गिना जा सकता है जो दिल्ली में रहते हुए भी सदन की दिनभर की कार्यवाही में पूरे समय उपस्थित रहे हों। कई बार तो संसदीय कार्यमंत्री को भोजनावकाश के बाद गणपूर्ति (कोरम) करने में बहुत कठिनाई हो जाती है, जबकि राज्यसभा की कार्यवाही चलाते रहने के लिए मात्र 25 सदस्यों का होना अनिवार्य है। और फिर ये फिल्मी कलाकार लोग यदि 30-40 दिन के सत्र में 3-4 दिन ही आएंगे तो इनका सदन की कार्यवाही में क्या योगदान होगा? है तो यह अप्रिय प्रसंग, पर प्रख्यात गायिका लता मंगेशकर जब राज्यसभा के कई सत्रों में नहीं आयीं और पुन: एक सत्र के प्रारंभ में व्यवस्था के अनुसार उपसभापति ने सभी सदस्यों से अस्वस्थता के आधार पर पूरे सत्र का अवकाश देने पर राय मांगी, तो अनेक सदस्यों ने उसका विरोध किया। यह तो ऐसे ही होता जा रहा है जैसे पद्मश्री या पद्मभूषण की उपाधि मिल गई, वैसे ही राज्यसभा सदस्य हो गए। मैं यह तो नहीं कहता कि राज्यसभा अब धनपति सभा बनती जा रही है, पर यह सही है कि अब यहां धनपतियों और उन लोगों का वर्चस्व स्थापित होता जा रहा है, जिनकी राजनीति से इतर ख्याति है।
यह प्रवृत्ति सही नहीं
-नीलोत्पल बसु
सांसद (माकपा), राज्यसभा
पिछली सरकार जब राज्यसभा के निर्वाचन का संशोधन विधेयक लायी थी, तभी हमने सचेत किया था कि इससे विधायकों के वोट खरीदे जाने की प्रवृत्ति बढ़ेगी। जब यह प्रावधान किया गया कि खुला मतदान बंद करके गुप्त मतदान होगा और राज्य के निवासी होने का प्रतिबंध समाप्त कर दिया जाएगा, तभी हमने कहा कि अब तक खुदरा (रिटेल) में बिक्री होती है, तब थोक (होलसेल) में बिक्री होगी। स्वभाविक रूप से जो अधिक सम्पन्न होगा, थोक में खरीद सकेगा, वह इसका लाभ उठाएगा। और जो बड़े दल हैं वही इसके लिए जिम्मेदार भी हैं। उन्हें ही इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।
मेरा अब तक का अनुभव कहता है कि ऐसे लोगों से सदन को अथवा दल को भी कोई ठोस योगदान नहीं मिलता। सदन की चर्चा-बहस में इनकी कोई भूमिका नहीं होती। इनमें से अनेक लोग अपने क्षेत्र में उच्च शिखर पर हो सकते हैं, पर जब वे सदन में आएंगे ही नहीं तो उनके अनुभव का लाभ क्या मिलेगा। इनमें से कुछ सदस्य ऐसे हैं जिनकी प्रति घंटे की आमदनी लाखों में है। और यहां दिनभर सदन में बहस करने के बाद 500 रु. दैनिक भत्ता मिलता है। सरकार का वेतन और राज्यसभा का भत्ता उनके द्वारा यहां बिताए गए समय में होने वाली कमाई की क्षतिपूर्ति तो कर नहीं सकता। इसलिए स्वाभाविक रूप से व्यवसायी लोग अपने व्यवसाय को ही संभालेंगे।
वैसे भी समाज में प्रदूषण की जो प्रक्रिया है, उसका प्रतिबिम्ब राजनीति में देखने का मिल रहा है। पहले चुने जाने वाले कम से कम राजनीतिक कार्यकर्ता हुआ करते थे, राजनेता हुआ करते थे, जिनका समाज से कोई सम्बन्ध होता था। अब तो समाज के ऐसे कथित उच्चवर्ग के लोग आ रहे हैं, जिनकी न तो कोई प्रतिबद्धता है और न ही सामाजिक आंदोलन अथवा राजनीतिक प्रक्रिया से जिनका कोई लगाव है। पिछले कुछ वर्षों से यह प्रवृत्ति बढ़ रही है और यह किसी भी स्थिति में सही नहीं है। नए कानून से इस प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलेगा, इसीलिए हमने तब भी इसका विरोध किया था। तत्कालीन कानून मंत्री अरुण जेटली ने तब कहा था कि यह राज्यसभा के चुनावों में भ्रष्टाचार को समाप्त करने वाला ऐतिहासिक कदम होगा। उप प्रधानमंत्री श्री आडवाणी ने भी इसका पुरजोर समर्थन किया था। अब उन्हें इस पर पुनर्विचार करना चाहिए।
कम से कम हमारे दल पर तो इस प्रवृत्ति को बढ़ाने में सहायक होने का आरोप नहीं लगाया जा सकता। हम अपने दल के निष्ठावान और अनुभवी कार्यकर्ताओं को ही चुनते हैं। हमारे वैचारिक विरोधी भी यह आरोप नहीं लगा सकते कि हम इस तरह के लोगों को बढ़ावा देते हैं। जरूरत है कि सभी राजनीतिक दल इस विषय पर आपस में विचार-विमर्श करें, क्योंकि यह पूरी राजनीतिक व्यवस्था के लिए एक प्रश्नचिन्ह है। एक प्रकार से यह राजनीतिक व्यक्ति को जनता से अलग करने की नकरात्मक प्रक्रिया चल रही है। उसमें इस तरह के उदाहरणों की बड़ी भूमिका होगी।
दरअसल कुछ लोगों का विचार है कि इन सब कारणों से बेहतर होगा कि राज्यसभा को ही समाप्त कर दिया जाए। हमारे संविधान निर्माताओं ने बहुत विचार-विमर्श के बाद दो सदनों की व्यवस्था की थी, और यह भारत के लिए बहुत आवश्यक भी है। विविधता से भरे इस विशाल देश में हो सकता है लोकसभा में एक दल का प्रचण्ड बहुमत हो जाए और वह जो चाहे कानून बना दे। ऐसे में उस पर पुनर्विचार करने वाला एक अन्य सदन होना ही चाहिए। सामान्यत: अब राज्यसभा में किसी एक दल का बहुमत नहीं होता, क्योंकि सब प्रदेशों में एक ही दल की सरकार नहीं है। राज्यसभा में किसी दल का बहुमत होगा भी तो बहुत कमजोर, हल्का। ऐसे में कोई कानून बनाना या संविधान संशोधन करना सरल नहीं होगा। इसलिए जरूरी है कि एक ऐसा सदन हो जो किसी भी निर्णय पर पुनर्विचार करे। हालांकि राज्यसभा को समाप्त करने की बात बहुत कमजोर स्वर में कही जा रही है, पर यह जरूरी है कि दोनों सदन रहें और अपनी गरिमा तथा गंभीरता बनाकर रखें। यह प्रत्येक राजनीतिक दल की जिम्मेदारी है कि वह इन सदनों की प्रतिष्ठा बनाए रखे।
लोकसभा में फिल्मी सितारे, धनपति
और खिलाड़ी
सांसद का नाम
निर्वाचन क्षेत्र
दल
1. श्री राज बब्बर आगरा
(उ.प्र.)
समाजवादी पार्टी
2. श्री धर्मेन्द्र
बीकानेर(राजस्थान)
भाजपा
3. श्री सुनील दत्त
मुंबई उत्तर-पश्चिम (महा.)
कांग्रेस
4. श्री गोविंदा
मुंबई उत्तर (महा.)
कांग्रेस
5. श्री नवीन जिंदल (उद्योगपति)
कुरुक्षेत्र (हरियाणा)
कांग्रेस
6. श्री विनोद खन्ना
गुरदासपुर (पंजाब)
भाजपा
7. श्रीमती जयाप्रदा
रामपुर (उ.प्र.)
समाजवादी पार्टी
8. श्री नवजोत सिद्धू (क्रिकेट खिलाड़ी)
अमृतसर (पंजाब)
भाजपा
9. सुश्री ज्योर्तिमयी सिकदर(धाविका)
कृष्णानगर (प. बंगाल)
माकपा
10. श्री मणि कुमार सुब्बा (लाटरी किंग)
तेजपुर (असम)
कांग्रेस
राज्यसभा में पूंजीपति और फिल्मी सितारे
1. श्री अनिल अम्बानी (रिलायन्स उद्योग समूह के उपाध्यक्ष) निर्दलीय (समाजवादी पार्टी द्वारा समर्थित)
2. श्रीमती जया बच्चन (फिल्म अभिनेत्री) समाजवादी पार्टी
3. श्री ललित सूरी (होटल व्यवसायी) निर्दलीय (भाजपा समर्थित)
4. श्रीमती हेमामालिनी (फिल्म अभिनेत्री) भाजपा
5. श्री दारासिंह (फिल्म अभिनेता) भाजपा
6. श्री शत्रुघ्न सिन्हा (फिल्म अभिनेता) भाजपा
7. श्री विजय माल्या (शराब व्यवसायी) निर्दलीय
8. श्री यूसुफ सावर खान उपाख्य दिलीप कुमार (फिल्म अभिनेता) कांग्रेस
9. श्री प्रेमचन्द गुप्ता (बिहार के व्यवसायी) राष्ट्रीय जनता दल
10. श्री दासारी नारायण राव (आन्ध्र प्रदेश के फिल्म निर्देशक) कांग्रेस
इनके चुने जाने का संदेश गलत!
-सोमपाल शास्त्री
पूर्व सांसद एवं पूर्व सदस्य, योजना आयोग
राज्यसभा में इस बार जिस प्रकार से पूंजीपति और चकाचौंध वाले लोग चुनकर आए, उसे मैं देश, राजनीति एवं समाज के लिए अच्छा संकेत नहीं मानता। मेरा यह आशय कदापि नहीं है कि किसी को प्रतिनिधि सभा में इसलिए आने से वंचित किया जाए कि वह पूंजीपति है। ऐसा नहीं है कि इससे पूर्व पूंजीपति-उद्योगपति राज्यसभा या लोकसभा में कभी नहीं रहे हों। घनश्याम दास बिड़ला, राधेश्याम मोरारका आदि अनेक प्रतिष्ठित लोग इस सदन में रहे हैं। परन्तु इस बार जिन कारणों से इस प्रकार के लोग चुनकर आए हैं, वह चिंतनीय है। और इस बार तो लोकसभा और राज्यसभा में फिल्मी कलाकर भी बड़ी संख्या में पहुंचे हैं। कांग्रेस की इस प्रवृत्ति से सभी पहले से ही परिचित थे, दुर्भाग्य से भाजपा ने भी उसका अनुकरण करना प्रारंभ कर दिया। अनेक बार तो बड़ी विचित्र स्थिति हो जाती है, जैसे होटल व्यवसायी श्री ललित सूरी का राज्यसभा के लिए भाजपा के समर्थन से चुना जाना। सभी जानते हैं कि वे पक्के कांग्रेसी हैं, स्व. राजीव गांधी के मित्र रहे हैं और उसका लाभ वे उठाते रहे हैं। पहले वे उड़ीसा से राज्यसभा के लिए भाजपा प्रत्याशी घोषित हुए और बाद में उत्तर प्रदेश से भाजपा के समर्थन से चुनकर आ गए। इससे पार्टी कार्यकर्ताओं और सामाजिक क्षेत्र में यह संदेश जा सकता है कि अब इन्हीं बातों का महत्व है। कार्यकर्ताओं को तर्क-वितर्क या कारण बताकर नहीं समझाया जा सकता, उसके लिए सामने की परिस्थितियां ही अनुमान होती हैं। इसलिए कारण कुछ भी रहे हों, इन लोगों के चुने जाने का अच्छा संदेश नहीं गया है।
यह तो भविष्य ही बताएगा कि पूंजीपतियों, उद्योगपतियों और फिल्मी कलाकारों की भारतीय राजनीति में बढ़ती संख्या से क्या प्रभाव पड़ेगा। वे अपने क्षेत्र में सफल हैं, उच्च शिखर पर हैं, यहां भी बदलाव लाएंगे, इसलिए चुने गए हैं- इस तर्क में भी कोई दम नहीं है। पुराने अनुभव नहीं बताते कि इन लोगों का कोई विशेष प्रभाव पड़ा हो। हां, लोगों के बीच यह संदेश जरूर गया है कि ये अपनी धन सत्ता के प्रभाव से किसी भी दल को अपनी जेब में रख सकते हैं। और सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि इसमें कोई भी दल अपवाद स्वरूप नहीं बचा। जहां भी लोकतांत्रिक व्यवस्था है, वहां लम्बी बहस के बाद उच्च-सदन के निर्णय का महत्व समझा गया। पहली सोच यह थी चुनाव जीतकर आए जन प्रतिनिधियों द्वारा दिए गए निर्णयों पर एक दूसरा सदन भी विचार करे। इसलिए इस सदन में अप्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली से ऐसे लोगों को चुनकर भेजा जाता है जो जनता के बीच से चुनाव जीतकर आ नहीं सकते। अथवा ऐसे लोग जिन्होंने चुनाव लड़ा लेकिन किन्हीं कारणें से चुने नहीं जा सके जबकि उनका सदन में होना आवश्यक हो। दूसरा, समाज और क्षेत्र विशेष के विशेषज्ञों को इस सदन के लिए चुने जाने को प्राथमिकता दी जाती थी। ऐसे लोग चुनावी प्रपंच से बचना चाहते हैं। इसीलिए 12 लोगों को नामांकित करने का प्रावधान भी किया गया। तीसरा, राज्यसभा राज्यों की परिषद् है, जिसमें राज्य विधानसभा के प्रतिनिधि (विधायक) इन्हें चुनते हैं। इसीलिए लोकसभा से इसका स्वरूप भिन्न होता है। चौथी विशेषता यह है कि राज्यसभा निरन्तर बना रहने वाला सदन है, इसके एक-तिहाई सदस्य ही सेवानिवृत होते हैं और द्विवार्षिक चुनाव प्रणाली से सदन की संख्यापूर्ति होती है। इस सदन का महत्व तब बहुत अधिक होता है जब लोकसभा भंग हो और किन्हीं कारणों से नियत समय पर चुनाव सम्पन्न न हो सकें। देश में युद्ध अथवा प्राकृतिक आपदा जैसी कोई आपात स्थिति आ गयी तो यह सदन अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह करता है। इन सब दृष्टियों से देखें तो प्रश्न उठता है श्री अनिल अम्बानी, श्रीमती जया बच्चन या श्री ललित सूरी का चुनाव किस दृष्टि से उचित है? यह व्यवस्था तो नानाजी देशमुख सरीखे समाज विज्ञानियों के लिए है, जो समाज के लिए कुछ करना चाहते हैं और चुनावी प्रपंच में भी नहीं पड़ना चाहते। इस बहस का कोई अर्थ नहीं है कि लोकसभा चुनाव हार चुके प्रत्याशियों को राज्यसभा में नहीं भेजा जाना चाहिए। इसे उस दल के विवेक पर छोड़ देना चाहिए। उस दल को अपने जिस सदस्य की सदन में उपस्थिति आवश्यक लगती है, उसे चुनने का विशेषाधिकार होना ही चाहिए।
इस बार राज्यसभा का जो स्वरूप उभरकर आ रहा है, उससे सन् 1990-91 में अमरीकी गुप्तचर संस्था सी.आई.ए. की भारत की राजनीति पर एक रपट का स्मरण हो आया। वह रपट संभवत: तब इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित हुई थी। उस रपट में लिखा था कि आगामी 10-15 वर्षों में भारत की राजनीति पर पूंजीपतियों और बाहुबलियों का आधिपत्य हो जाएगा। और आज ऐसा ही होता दिखाई दे रहा है। राज्यसभा ही नहीं, इस बार लोकसभा चुनावों के बाद भी लोगों में इसकी चर्चा चल पड़ी है। फिल्म अभिनेता सुनील दत्त, गोविन्दा, धर्मेन्द्र और अभिनेत्री जयाप्रदा आदि के चुने जाने का क्या अर्थ है? आज भारतीय राजनीति में महत्वाकांक्षी लोगों की संख्या बढ़ने लगी है, जिनकी समाज, विचारधारा और संस्कृति के प्रति कोई प्रतिबद्धता नहीं है, जो साधन-सम्पन्न हैं और अपने व्यवसाय में ही जुटे हैं- यह एक घातक प्रवृत्ति है।
18
टिप्पणियाँ