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जागरण साहित्यपुस्तक-परिचयपुस्तक का नाम : राष्ट्रसंरक्षण पोवाडालेखक : स्वामी वरदानन्द भारतीपृष्ठ संख्या : 28मूल्य : प्रचार एवं आचरणप्रकाशक : प्रबोध प्रकाशनद्वारा डा. ग.प्र. परांजपे1327 ई.,सदाशिव पेठ,पुणे-411030ब्राह्मलीन स्वामी वरदानन्द भारती जी प्रखर राष्ट्रभक्त सन्त थे। हिन्दुत्व का प्रखर अभिमान उनके ह्मदय में था तो भारत का सर्वांगीण सर्वतोमुखी विकास उनका अभीष्ट। क्यों भारत अभी तक विश्व के समुन्नत राष्ट्रों की पंक्ति में नहीं खड़ा हो पाया, इसका कारण वे स्वाभिमानशून्यता और आत्मविस्मृति में देखते थे। उनसे अधिक मिलना तो नहीं हुआ पर जब भी वे मिले तो सिर्फ भारत के बारे में ही चर्चा की। मुझे लगता है कि जब वह देव-चिन्तन भी करते होंगे तो वह भारत चिन्तन का ही एक रूप होता होगा। उन्होंने अनेक पुस्तकें लिखीं। भारत के प्रति उनकी वेदना काव्य रूप में भी प्रकट हुई, यह देखकर सुखद आश्चर्य ही हुआ। मराठी भाषा में पोवाडा काव्य शैली है, जिसे वीर गीति काव्य भी कहा जा सकता है। उत्तर में आल्हा का चलन है। इसके अन्तर्गत वीर रस से ओत-प्रोत भावनाएं व्यक्त की जाती हैं। मराठी में स्वामी वरदानन्द जी ने राष्ट्रसंरक्षण पोवाडा लिखा तो काफी लोकप्रिय हुआ। हिन्दी में भी उसका अनुवाद प्रस्तुत किया गया है। अग्निधर्मा सन्तों की जाज्वल्यमान परम्परा में वरदानन्द जी का स्थान अप्रतिम है। उनकी प्रिय पंक्तियां संत तुकाराम जी की हैं, जिनमें तुकाराम कहते हैं-“धर्माचे रक्षण।करणे पाखांड खंडण।।हेच आम्हां करणे काम।बीज वाढवावे नाम।।तीक्ष्ण उत्तरे।हाती घेऊन बाण फिरे।।नाही भीडभार।तुका म्हणे साना थोर।।(धर्म का पालन करते-करते पाखंडी का खंडन करना हमारा काम है। आत्मोद्धार के लिए भगवन्नाम का चिंतन और उसी का प्रचार करना भी कर्तव्य है। पाखंडों का खंडन करने पैने उत्तर रूप बाण हमारे पास हैं। तुकाराम कहते हैं ऐसे उत्तर देते समय पाखंडी को अन्य लौकिक स्थिति बड़ी है या छोटी-देखने की आवश्यकता नहीं।)दया तिचे नाव भूतांचे पालन। आणिक निर्दालन कंटकांचे।तेथ पैजाराचे काम। व्हावे अधमासी अधम।।(दया वही है जो जीवों के पालन के साथ-साथ दुष्टों का घात भी कर सकती है। बिच्छू अगर देवघर में आया तो भी उसे मृत्युदंड देना योग्य होता है, क्योंकि अधम से अधम जैसा ही व्यवहार करना चाहिए।)मराठी में रचित उनके पोवाडा के हिन्दी अनुवाद का तात्पर्य यह है कि हिन्दू मन जागो; सिवाय इसके अन्य कोई साधन नहीं। हिन्दी के पाठकों को यह वीर गीति काव्य की शैली में एक नया अनुभव होगा, तो भाव की दृष्टि से जागरण साहित्य में इसकी गिनती होगी। त.वि.27
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