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नेपाल में बेगम हजरत महल का मकबरा माओवादियों द्वारा ध्वस्तयही है इनका सेकुलरवाद ?बहादुरशाह जफरमुस्लिम समाज के सामने दो घटनाएं प्रस्तुत हैं, जिसे पढ़कर वे तय करें कि मुस्लिम स्वतंत्रता सेनानियों का सम्मान कौन करता है?कुछ दिन पूर्व केन्द्रीय रेलमंत्री लालू प्रसाद यादव ने बहादुर शाह जफर को साम्प्रदायिक बादशाह कहा। उर्दू प्रेस ने इसकी घोर निंदा की लेकिन मुस्लिम बुद्धिजीवियों और केन्द्र की सरकार में बैठे मुस्लिम हितों की सुरक्षा का दावा करने वाले किसी भी मंत्री ने इस पर खेद नहीं जताया।नेपाल में पिछले दिनों माओवादियों ने बेगम हजरत महल की कब्रा को ध्वस्त कर दिया, लेकिन भारत सरकार ने इस महान महिला के अपमान पर अपनी कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की।… दूसरी तरफ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अ.भा. सह सम्पर्क प्रमुख श्री इन्द्रेश कुमार ने राष्ट्रवादी मुस्लिम आन्दोलन के कार्यकर्ताओं को इस वर्ष मार्च में यह सुझाव दिया कि वे देशभर में बहादुर शाह जफर और बेगम हजरत महल सहित सभी स्वतंत्रता सेनानियों का स्मरण कर उन्हें श्रद्धाञ्जलि अर्पित करें। इसी के अंतर्गत मेरठ में मौलाना उमेर अहमद नक्शबंदी की अध्यक्षता में एक विशाल सभा बुलाई गई। इन्दौर में भी राष्ट्रवादी मुसलमानों ने एक विशाल कार्यक्रम आयोजित किया। यदि रा.स्व.संघ मुस्लिमविरोधी है तो फिर उनकी इस ह्मदय विशालता को क्या कहा जाएगा?पिछले दिनों नेपाल में माओवादियों ने बेगम हजरत महल के मकबरे को नष्ट कर दिया। भारत सरकार को इसकी जानकारी होने के बावजूद भारत यात्रा पर आए नेपाल के प्रधानमंत्री से इस सम्बंध में एक शब्द भी नहीं कहा गया। वीर सावरकर और अन्य क्रांतिकारियों से केन्द्र सरकार में शामिल दलों को जो घृणा है, उसे वोट बैंक की राजनीति के कारण समझा जा सकता है, लेकिन अफजल खान की चिंता करने वाले लोगों को यह याद क्यों नहीं आया कि बेगम हजरत महल एक ऐसा नाम है जिसके बिना 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की कहानी अधूरी है। हजरत महल के पति वाजिद अली शाह ने अपनी बेगम को 1847 में ही तलाक दे दिया था, फिर भी वह वीरांगना अवध के क्षेत्र में अंग्रेजों को अपनी ताकत का लोहा मनवाती रही। नाना साहब, तात्या टोपे और रानी लक्ष्मीबाई की तरह उन्होंने भी अंग्रेजों की गुलामी स्वीकार नहीं की। वह अंतिम समय तक लड़ती और जूझती रहीं। उनका अय्याश पति नवाब वाजिद अली लखनऊ से भागकर कलकत्ता चला गया और 1856 में अवध पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया। लेकिन बेगम हजरत महल ने अवध के तख्त पर अपने अव्यस्क पुत्र को उत्तराधिकारी बनाकर अंग्रेजों को यह चुनौती दी कि अवध ब्रिटिश सत्ता का गुलाम नहीं है। बेगम हजरत महल लखनऊ में डटी रहीं और निरन्तर 6 माह तक अंग्रेंजों का सामना करती रहीं। जब स्वतंत्रता संग्राम असफल हो गया तो बेगम बूंदी चली गईं लेकिन अंग्रेजों के हाथों नहीं आईं। पहले तो अंग्रेजों ने बेगम को पकड़ने के लिए पुरस्कार घोषित किया लेकिन जब सफलता नहीं मिली तो उन्होंने बेगम को प्रति वर्ष 12 लाख की पेंशन देने की घोषणा की, लेकिन इस स्वाभिमानी महिला ने इसे ठुकरा दिया। अंग्रेजों ने उसका पीछा जारी रखा, इस बीच बेगम छिपती-छिपाती नेपाल पहुंच गईं। वहां अंग्रेजों ने उन्हें पकड़ लिया। नेपाल में उसने अपने धन से एक इमामबाडा खरीदा था, जहां 17 अप्रैल, 1879 में उनकी मृत्यु के बाद दफना दिया गया। आज नेपाल में दफन इस वीरांगना का नाम लेने वाला भी कोई नहीं है। भारत में भी अब कितने लोग हैं जो उनके बारे में जानते हैं। समय के साथ उस इमामबाड़े में से लोगों ने आने-जाने का रास्ता बना लिया। आम रास्ता हो जाने के कारण बेगम की कब्रा अत्यंत जर्जर अवस्था में थी। पिछले दिनों नेपाल के माओवादियों ने कब्रा ध्वस्त कर दी। अब लगता है कि एक दिन यह रही सही निशानी भी समाप्त हो जाएगी। भारत में माओ के समर्थक हर बात में मुसलमानों का पक्ष लेते हैं। किसी भी मुस्लिम नेता और बादशाह की चर्चा इस प्रकार से करते हैं मानो वह लेनिन या माक्र्स का कोई सगा-सम्बंधी हो। कोई भारत के इन लाल भाइयों से पूछे कि क्या एक महिला की निशानी को नष्ट करना ही साम्यवादियों की सभ्यता है और संस्कृति है?हजरत महल के पोते युवराज अंजुम कद्र ने इस सम्बंध में अनेक बार भारत सरकार से गुहार लगाई थी, लेकिन सेकुलरवाद का दम भरने वाले कांग्रेसियों ने उनकी कभी नहीं सुनी। 1957 में जब प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का शताब्दी समारोह सारे देश में बड़े पैमाने पर मनाया गया, उस समय भी पंडित जवाहर लाल नेहरू का ध्यान इस ओर दिलाया गया। उन्होंने युवराज अंजुम से वादे तो खूब किए लेकिन यह वादा न उन्होंने निभाया, न उनकी पुत्री (इंदिरा गांधी) ने और न नाती (राजीव गांधी) ने। यहां तक कि किसी कांग्रेस सरकार ने स्वतंत्रता की इस महान योद्धा पर दो पैसे खर्च करने की भी जहमत नहीं दिखाई। पिछले दिनों जब उपराष्ट्रपति श्री भैरोंसिंह शेखावत ने रंगून की यात्री की तो वर्षों से बहादुर शाह जफर की कब्रा के विवाद को निपटाया और वहां फिर से भारत सरकार की ओर से भवन बनवाने की घोषणा की। ईमानदारी से विश्लेषण करें कि राष्ट्र की अस्मिता से जुड़ी इन स्मृतियों को सुरक्षा प्रदान करने वाले कौन हैं? कांग्रेसियों और माक्र्सवादियों की नकली पंथ-निरपेक्षता मुसलमानों की आंखों में आखिर कब तक धूल झोंकती रहेगी?यहां एक सवाल और उठता है कि जो अफजल खान शिवाजी की हत्या करना चाहता था, उसे जब छत्रपति ने मौत के घाट उतार दिया तब भी उसके शव का अपमान नहीं किया। यदि वह शव वहां पड़ रहता तो कुत्ते और गिद्ध नोच-नोचकर खा जाते। लेकिन छत्रपति शिवाजी ने उदारता और समधर्म समभाव की भावना के कारण आदेश दिया कि जाओ उसे मेरे प्रतापगढ़ किले के नीचे दफ्न कर दो। लेकिन छत्रपति की उदारता का दुरूपयोग करते हुए वहां अफजल खान के अनुयाइयों ने समाधी बनाने का षड्यंत्र रचा। केवल इतना ही नहीं, किसी सूफी-संत के समान वार्षिक उर्स जैसा आयोजन शुरू कर दिया। आक्रमणकारी अफजल खान से वह मौलाना अफजल खान बन गया। यानी छत्रपति के दुश्मन को सम्मान दिया जाने लगा। कांग्रेस के राज में वहां अफजल खान ट्रस्ट बन गया। अब उसकी विशाल समाधी निर्माण कर उसे शहीद का दर्जा दिए जाने का प्रयास किया जा रहा है। वास्तव में जो देशभक्त मुसलमान हैं उनके प्रति आज के मुसलमान और सेकुलर उदासीन हैं और जो क्रूर एवं आक्रांता हैं, उनके प्रति वे प्रेम और सम्मान दर्शाते हैं। इस वृत्ति को कोई क्या कहेगा? भारत पर हमला करने वाले उनके दोस्त और जिन्होंने भारत के प्रति अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिए वे दुश्मन। इस अंतर को समझना होगा। अन्यथा तो आने वाली पीढ़ी को भारत का इतिहास क्या पढ़ाया जाएगा, यह लिखने और बताने की आवश्यकता नहीं है।14
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