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सलमान रुश्दीक्यों बदल गया सुर?-सुधाअपनी जान किसे प्यारी नहीं होती? यदि सलमान रुश्दी को अपने ऊपर लटकती तलवार से बचने के लिए झूठ बोलना पड़ रहा है तो इसमें आश्चर्य की बात नहीं है। बल्कि गैलीलियो ने सच पर अड़े रहकर नाहक अपनी जान गंवा दी। अगर वह वैज्ञानिक उन मूर्ख सत्ताधारियों की सीमाएं समझ कर उनकी हां-में-हां मिला देता और सलमान रुश्दी की तरह झूठ बोलकर अपने सत्यकथन को भविष्य में उजागर होने के लिए छोड़ देता, तो हो सकता था उसकी जान बच गई होती। इससे धरती का अपनी धुरी पर घूमना रुक तो नहीं जाता! इसी तरह भारत के मुसलमानों को मजबूरन “सेकुलर” कहने का झूठ यदि सलमान रुश्दी के प्रति खौफनाक इस्लामी रुख में तनिक कमी ले आता है तो इससे यहां के मुसलमानों का कट्टरपन बाधित तो नहीं हो रहा है; इससे यहां मुसलमानों द्वारा जानबूझकर की जा रही अबाध सन्तानोत्पत्ति पर रोक तो नहीं लग रही है; इससे उनके प्रति हिन्दुओं का भाईचारा कम तो नहीं रहा है! सब कुछ यथावत् मुसलमानों के पक्ष में चल रहा है। बल्कि राजनीतिक दल उनका वोट लेने के लिए उन्हें सहला रहे हैं, संभवत: कइयों को दाऊद इब्राहिम और तेलगी बनने की सुविधाएं यहां मिली ही हुई हैं। इसलिए यदि मैं सलमान रुश्दी की वकील होती तो उन्हें यही झूठ बोलने की सलाह देती। हिन्दू होने के बावजूद यह खतरा मैं उठाती, क्योंकि इस्लामी आकाओं को खुश करने के लिए बोले गए इस झूठ से हिन्दू या भारतीय सनातन धर्म का भी कुछ नहीं बिगड़ सकता।सलमान रुश्दी का सन्दर्भित कथन लगभग यह है- “अधिकतर भारतीय मुसलमान सेकुलरवाद को अपनाते हैं, क्योंकि एक हिन्दूबहुल देश में यही उनकी सर्वोत्तम सुरक्षा है”!!- यह कथन उस मुसलमान लेखक का है जो इस्लामी आतंक से बचने के लिए हिन्दुओं के बीच पनाह लेता छिपता फिरा। देशों और संस्कृतियों के मौलिक गुणों को नष्ट करने का अभियान इस्लाम का मजहबी कर्मकाण्ड है। कट्टर इस्लामी बर्बरता के कारण संसार के कितने वैभव विलुप्त हो गए, इसका आकलन नहीं किया जा सकता। भारत ने भी जिहादी इस्लामी आक्रमणों के कारण बहुत कुछ खोया है। लेकिन यहां जिस चीज को कोई नहीं मिटा पाया, वह है सनातन भारतीयता। सलमान रुश्दी का इशारा उसी की ओर है। उनके कथन का निहित भाव है कि भारत में जो हवा बहती है उसमें हिन्दुत्व की प्राणवद्र्धक सुगन्ध है और यहां के मुसलमानों को भी उसी में सांस लेने की विवशता है। और यहां तो उस वायु के पुत्र रामदूत महावीर हनुमान हैं; अत: उस हवा का इस्लामीकरण असम्भव है। रावण अंगद के पांव नहीं हिला पाया था; भारतीय संस्कृति उसी तरह की चुनौती अपशक्तियों को देती रही है।अपने को “पंथनिरपेक्ष मानवतावाद” का बालक बताने वाले सलमान रुश्दी अब उस “बिरादरी के अंग” बनने को तैयार हो गए हैं, क्योंकि संकट बहुत लम्बा खिंच गया। वे कहते हैं कि “अब मैं इस्लाम के भीतर का वासी हूं- वासी बन गया हूं”। यही होता रहा उन देशों और संस्कृतियों की मौलिकता का जिन्हें मिटा कर इस्लाम की “बिरादरी” फैलाई गई। लेखक का ताजा विचार पुंज होता है। उसके शब्दों को सत्य का वाहन बनने का सौभाग्य मिलता है। और, सत्य सदा मधुर ही नहीं होता। सलमान रुश्दी के उपन्यास “द सैटेनिक वर्सेज” के सत्य भी इस्लाम के लिए कटु हैं। लेकिन उस कटु सत्य को अपनी सशक्त सहज मेधा से व्यक्त कर देने वाले सलमान रुश्दी ने अब घुटने टेक दिए हैं। हो सकता है अब वे उपन्यास नहीं बल्कि फरमाइशी फतवे लिखें। इस्लाम ने उनकी प्रतिभा का “हलाल” शरई रीति से कर दिया। धीरे-धीरे सारा रक्त बह गया और अब सलमान रुश्दी का “प्रेत” टन-टन बोलेगा। भारत के हिन्दूबहुल देश होने पर अफसोस जाहिर करते हुए वह बंगलादेश के “इस्लामी आतंकवादी शिविरों की हिम्मत बढ़ाने के लिए मंत्र पाठ” करेगा।आत्मरक्षा उचित है। लेकिन इसके लिए किए गए समझौतों की भी एक सीमा होनी चाहिए। आत्मसम्मान और प्रतिभा को भूमिसात करने के बदले मिला जीवनदान निष्प्राण कहा जाता है। जिस जोर-जबरदस्ती के लिए इस्लाम बदनाम है, सलमान रुश्दी का आत्मसमर्पण उसका ताजा-तरीन उदाहरण है।11
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