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मंथन

by
Jun 6, 2004, 12:00 am IST
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दिंनाक: 06 Jun 2004 00:00:00

देवेन्द्र स्वरूपयह बाजी सुरजीत के नामसंयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की एक बैठक में (बाएं से) सोनिया गांधी, हरकिशन सिंह सुरजीत और डा. मनमोहन सिंह13 मई, 2004 का दिन भारतीय वामपंथ को गदगद करने वाला था। जिस भाजपानीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को सत्ता से हटाने के लिए वामपंथी छह साल से षड्ंत्र रच रहे थे, वह अन्तत: सत्ता के बाहर हो गया था। स्वयं वाममोर्चा लोकसभा में साठ स्थान पाकर अपनी सफलता के शिखर पर था। कांग्रेस गठबंधन केवल 219 स्थान पाकर सरकार बनाने के लिए पूरी तरह वाममोर्चे की कृपा पर आश्रित था। 88 वर्षीय वामपंथी नेता हरकिशन सिंह सुरजीत अब परदे के पीछे की राजनीति से बाहर निकलकर खुले में आ गए थे। आन्ध्र प्रदेश का चुनाव परिणाम घोषित होते ही सोनिया गांधी ने सबसे पहले सुरजीत की चौखट पर माथा टेका। यह स्वीकारोक्ति थी कि वे अपनी भारी विजय का श्रेय सुरजीत की व्यूहरचना को देती हैं। सत्ता के टुकड़े पाने के लिए लालायित सभी राजनीतिज्ञों ने सुरजीत के घर चक्कर लगाने शुरू कर दिए। सुरजीत “क्वीन मेकर” के रूप में उभर आए। मीडिया उनके पास मंडराने लगा। टेलीविजन कैमरे उन पर केन्द्रित हो गए। 1996 की ऐतिहासिक भूल को सुधारने का अवसर सामने खड़ा था। भाजपा के सत्ता में वापस लौटने के रास्तों को सदा-सर्वदा के लिए बंद करने की संभावनाएं स्पष्ट थीं।सुरजीत के बूढ़े प्राणों में असामान्य ऊर्जा भर गयी थी। पन्द्रह दिन पहले ही जो शरीर अस्वस्थ होकर लुधियाना के अस्पताल में भरती था, इन दिनों उसकी दिमागी फुर्ती और श्रम शक्ति नौजवानों को भी लज्ज्ति करने वाली थी। सोनिया को प्रधानमंत्री बनाने की घोषणा दोनों बूढ़े-सुरजीत और ज्योति बसु लगातार करते आ रहे थे। वे कांग्रेस संसदीय दल की नेता चुनी जा चुकी थीं, उनकी ताजपोशी में अब कुछ ही घंटों की देर थी। कांग्रेस अध्यक्ष के नाते उन्होंने वाममोर्चे को सरकार में शामिल होने का औपचारिक निमंत्रण दे दिया था। अपने को “किंग मेकर” समझने वाले वी.पी. सिंह गिड़गिड़ा रहे थे कि वाममोर्चे को सरकार में शामिल होना ही चाहिए। 200 से अधिक वामपंथी बुद्धिजीवियों, कलाकारों और पत्रकारों ने संयुक्त वक्तव्य जारी करके आग्रहपूर्वक अनुरोध किया कि वामपंथ को यह स्वर्णावसर किसी भी हालत में गंवाना नहीं चाहिए अन्यथा यह पुरानी ऐतिहासिक भूल को दोहराना होगा। एक-दो बुद्धिजीवियों ने तो आत्महत्या की धमकी भी दे दी थी। स्वयं वाममोर्चे की एक महत्वपूर्ण घटक यानी 1999 की चार सीटों से बढ़कर दस सीटों पर पहुंचने वाली भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी सरकार में शामिल होने के लिए व्याकुल थी। उसके महासचिव ए.बी.वर्धन ने सरकार में शामिल होने की अपनी तैयारी की सार्वजनिक घोषणा भी कर डाली थी। माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने भी अक्तूबर, 1998 में अपने संविधान में संशोधन करके अपने दलीय वर्चस्व के बिना भी किसी गठबंधन सरकार में सम्मिलित होने की संवैधानिक बाधा को हटा दिया था। ज्योति बसु दिल्ली पहुंच चुके थे। वे और सुरजीत पूरे संकेत दे रहे थे कि वे सोनिया के नेतृत्व वाली सरकार में शामिल होने के पक्ष में हैं।ज्योति बसु, सुरजीत और वर्धन जैसे शीर्ष नेताओं की सार्वजनिक अभिव्यक्तियों के बावजूद निर्णय नहीं हो पा रहा था। एक निर्णय जरूर लिया गया कि इस बार वाममोर्चे के चारों घटक माकपा, भाकपा, फार्वर्ड ब्लाक और आर.एस.पी. (रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी) सामूहिक निर्णय लेंगे। अलग-अलग निर्णय नहीं लेंगे। आर.एस.पी. और फार्वर्ड ब्लाक की स्थिति पहले से स्पष्ट थी कि वे सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनाने और कांग्रेसनीत सरकार में सम्मिलित होने को तैयार नहीं हैं। किन्तु वर्धन की भाकपा पर अंकुश लगाना जरूरी था, क्योंकि भाकपा 1971 से आपातकाल तक इन्दिरा गांधी की सरकार का हिस्सा थी, जबकि भाकपा उसके खिलाफ लड़ रही थी। 1996 में भी माकपा संयुक्त मोर्चा सरकार से बाहर रही, जबकि भाकपा उसमें सम्मिलित हुई। इस बार वाममोर्चे की आन्तरिक फूट को ढके रखने का पुख्ता इंतजाम किया गया। वाममोर्चे की 60 में से 43 स्थानों वाली माकपा की इच्छा का खुला विरोध करना इस बार वर्धन के बस में नहीं था, इसलिए वे केवल यही दोहराते रह गए कि हम सरकार में जाना तो चाहते हैं, मगर अकेले नहीं जाएंगे। सबके साथ ही जाएंगे।इसका अर्थ हुआ कि वाममोर्चे के सरकार में सम्मिलित होने का निर्णय केवल माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी पर निर्भर करता था। उसने पहले यह प्रश्न 17 सदस्यीय पोलित ब्यूरो के सामने रखा। पूरे एक दिन की लम्बी बहस के बाद उसने इस प्रश्न को 77 सदस्यीय केन्द्रीय समिति के पाले में फेंक दिया। दो दिन लम्बी बहस के बाद केन्द्रीय समिति ने फैसला किया कि उनकी पार्टी सरकार में सम्मिलित नहीं होगी। वी.पी. सिंह और राम विलास पासवान के अनुरोध धरे रह गए। सैकड़ों वामपंथी बुद्धिजीवियों, कलाकारों और पत्रकारों की फौज सन्न रह गयी। वे समझते थे कि भारत में वामपंथ उनके कंधों पर टिका है, वे वामपंथ की राजनीति के मार्गदर्शक एवं प्रवक्ता हैं। किन्तु माकपा की केन्द्रीय समिति के इस निर्णय ने उन्हें उनकी हैसियत बता दी। स्पष्ट कर दिया कि पार्टी का राजनीतिक गणित उन पर नहीं संगठन पर निर्भर करता है। बुद्धिजीवियों की यह फौज न संगठन खड़ा करती है, न जनाधार जुटाती है। आखिर क्यों दिल्ली में ऊंचे-ऊंचे पदों पर बैठी यह विशाल फौज पार्टी के लिए नगरपालिका का एक स्थान जीतने लायक भी जनाधार अब तक नहीं जुटा पायी?इसलिए केन्द्रीय समिति के निर्णय को समझने के लिए वाममोर्चे की जीत के स्वरूप और इस जीत के पीछे खड़े जनाधार के चरित्र को समझना होगा। वाममोर्चे को 60 में से 35 स्थान प. बंगाल में मिले हैं। इनमें 26 माकपा को, 3 भाकपा को, 3 फार्वर्ड ब्लाक और 3 आर.एस.पी. के खाते में आये हैं। 18 स्थान केरल में मिले हैं। इनमें माकपा को 13, भाकपा को 3, केरल कांग्रेस (जोसेफ) को 1 और जनता दल (एस) को 1 स्थान मिले हैं। जनता दल (एस) और केरल कांग्रेस केरल में उनके साथ हैं पर वाममोर्चे का अंग नहीं हैं। माकपा ने 2 स्थान त्रिपुरा में जीते हैं। शेष स्थानों में से 4 (2 माकपा 2 भाकपा) तमिलनाडु में द्रमुक गठबंधन की कृपा से मिले हैं। पिछली बार वहां केवल 1 स्थान माकपा को भीख में मिली थी। 2 स्थान (1 माकपा, 1 भाकपा) आन्ध्र प्रदेश में भी कांग्रेस के साथ गठबंधन के कारण वाममोर्चे की झोली में आये हैं। क्योंकि इसके पहले वे आन्ध्र प्रदेश में कई चुनावों में एक भी स्थान नहीं जीत पाए हैं। झारखण्ड में माकपा द्वारा जीते गए एक स्थान को पार्टी अपनी विजय कह सकती है, क्योंकि वहां कांग्रेस से तो समझौता था पर झारखण्ड मुक्ति मोर्चा से समझौता नहीं हो पाया था। इस प्रकार देखें तो प. बंगाल, त्रिपुरा और केरल के अलावा कहीं भी वाममोर्चा अपने जनाधार के बल पर चुनाव जीतने का दावा नहीं कर सकता। ऐसा नहीं कि उसने कोशिश न की हो। पूरे भारत में माकपा ने 70 और भाकपा ने 35 उम्मीदवार मैदान में उतारे थे। पंजाब, असम, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, गोवा, बिहार, महाराष्ट्र आदि अनेक राज्यों में उन्होंने भाग्य आजमाया। बिहार में लालू यादव और उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की इच्छा के विरुद्ध भाकपा ने छह-छह प्रत्याशी खड़े किए, माकपा ने भी लालू से समझौता करके बिहार में एक और उत्तर प्रदेश में दो प्रत्याशी मैदान में उतारे। किन्तु ये सभी उम्मीदवार हार गए। इन दोनों दलों को इस बात का श्रेय देना पड़ेगा कि वे केवल अपने तपे हुए कार्यकर्ताओं को, अपने जनाधार वाले सुनिश्चित चुनाव क्षेत्रों में ही खड़ा करते हैं। किन्तु क्या बात है कि भाजपा और राजग के विरोध की आंधी में भी वाममोर्चा अपनी ताकत से बंगाल, त्रिपुरा और केरल के बाहर कोई स्थान नहीं जीत पाया। वहां स्थान के लिए उसे दूसरे दलों के समर्थन की वैसाखी लगानी पड़ती है? क्या केवल बंगाल, त्रिपुरा और केरल को ही उनकी विचारधारा स्वीकार्य है। क्या सचमुच वहां भी उनकी विजय का मुख्य कारण विचारधारा नहीं कुछ और है?इस विजय की कारण-मीमांसा करने के पूर्व यह देखना आवश्यक है कि इन तीनों राज्यों में वाममोर्चे का मुख्य प्रतिद्वन्द्वी भाजपा नहीं, कांग्रेस है। ये सब स्थान उन्होंने कांग्रेस से छीने हैं, केरल में तो कांग्रेस को पूरी तरह खा ही गए। प. बंगाल के 42 स्थानों में केवल छह कांग्रेस को (पिछली बार से दुगुने) मिले हैं और त्रिपुरा में भी दोनों स्थानों पर कांग्रेस ही मुख्य प्रतिद्वंद्वी थी। कम्युनिस्टों ने भाजपा के विरुद्ध अपनी लड़ाई में सेकुलरिज्म को मुख्य मुद्दा बनाया था और वे कांग्रेस को भाजपा विरोधी सेकुलर मोर्चे का अगवा मानते हैं, तब उन्होंने इन तीन राज्यों में कांग्रेस के साथ मिलकर सेकुलर मोर्चा क्यों नहीं बनाया? क्यों वे कांग्रेस के साथ स्थानों का बंटवारा करने को तैयार नहीं हुए? केन्द्र में कांग्रेस को सहयोग और तीनों राज्यों में कांग्रेस का विरोध सेकुलरिज्म की यह कैसी राजनीति है? वस्तुत: वाममोर्चे की मुख्य चिन्ता इन तीनों राज्यों में अपनी स्थिति को बचाए रखना है। और केन्द्र में कांग्रेसनीत सरकार में सम्मिलित होकर वे इन राज्यों में कांग्रेस का विरोध किस आधार पर कर पाएंगे? इस असमंजस से बाहर निकलने का एक ही उपाय था केन्द्र में भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के लिए कांग्रेसनीत गठबंधन का बाहर से समर्थन करना और इन राज्यों में कांग्रेस के विरुद्ध संघर्ष का बिगुल बजाते रहना।पाञ्चजन्य (16 मई) में हम स्पष्ट कर चुके हैं कि बंगाल में वाममोर्चे की विजय का कारण विचारधारा या नीतियां नहीं, अपितु प्रशासन का राजनीतिकरण, पुलिस का ट्रेड यूनियनस्वरूप व पार्टी संगठन का माफियाकरण है। इसी का प्रमाण है कि जब इस बार विपक्षी दलों की गुहार सुनकर चुनाव आयोग ने बंगाल में प्रशासन तंत्र के दुरुपयोग को रोकने के लिए कुछ कड़े कदम उठाने चाहे, अपने विशेष पर्यवेक्षक वहां भेजे तो वाममोर्चे के संयोजक विमान बोस ने पर्यवेक्षकों का गला पकड़ने का सार्वजनिक आह्वान कर डाला, जिससे क्षुब्ध होकर आयोग ने उनकी गिरफ्तारी के वारंट जारी करवा दिए। विमान बोस कुछ समय के लिए भूमिगत हो गए। आज (28 मई) के समाचारपत्रों के अनुसार उन्होंने अब आत्मसमर्पण किया है। चुनाव परिणाम निकलने के बाद अब पुन: आतंक का खेल शुरू हो गया है। प्रदेश कांग्रेस के सचिव मानस भूईया ने चिन्ता प्रगट की है कि माकपा के माफिया कैडर ने एक कांग्रेसी कार्यकत्र्ता अदिकंद दोलोई को पेट्रोल छिड़ककर जिन्दा जला दिया और कांग्रेस समर्थकों की 40 दूकानें लूटीं। कांग्रेस अध्यक्ष सोमेन मित्र ने माकपा की गुंडागर्दी के विरुद्ध राज्यव्यापी बंद बुलाने की धमकी दी है। मालदा, मुर्शिदाबाद, दोनों मिदनापुर और नदिया जिलों से माकपाई माफिया के आतंक के कारण कांग्रेसी कार्यकर्ता छोड़कर भाग रहे हैं। विजय का उन्माद माकपा पर इस कदर हावी है कि 23 मई को कोलकाता के शहीद मीनार पार्क में आयोजित विजय रैली में मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने गर्वोक्ति की कि बंगाल और केन्द्र दोनों अब हमारी मुट्ठी में हैं। केन्द्र की सरकार हमारी कठपुतली मात्र है। हम कहें बैठो तो वह बैठेगी, हम कहें खड़े हो तो वह खड़ी रहेगी। मुख्यमंत्री के मुख से निकले ऐसे उद्गारों से ज्योति बसु जैसे शीर्ष नेता चिन्तित हो गए, क्योंकि वे नहीं चाहते कि केन्द्र सरकार समय से पहले गिर जाए और केन्द्र में उनकी कांग्रेस के साथ दोस्ती इतनी जल्दी टूट जाए।इसी प्रकार केरल में तो वाममोर्चे की हार- जीत पूरी तरह मजहबी और जातिगत समीकरणों पर निर्भर करती है। वहां 45 प्रतिशत मतदाता मुस्लिम और ईसाई हैं। ईसाई समाज कैथोलिक और सीरियाई चर्चों में विभाजित है। हिन्दू समाज नायर और एडवा जातियों में विभाजित है। कांग्रेसनीत संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चा और वाम लोकतांत्रिक मोर्चा अपने-अपने पक्ष में इन मजहबी और जातीय समीकरणों को बैठाने में लगे रहते हैं। दोनों के बीच हार-जीत का अन्तर बहुत कम रहता है। 1999 के लोकसभा चुनावों में सं लो.मो.को 11 और वा.लो.मो. को 9 स्थान मिले थे। 2001 के विधानसभा चुनावों में स.लो.मो. ने 140 में से 100 स्थान जीते थे। किन्तु इस बार वाममोर्चे ने लोकसभा की 20 में से 18 स्थान जीत लिए। यहां तक कि मुस्लिम लीग के अजेय गढ़ मंजेरी में भी वे जीते। केवल एक स्थान पोनानी लीग को मिला और भवतुपुडा नामक स्थान पर केरल कांग्रेस (मणि) के विद्रोही और भाजपा समर्थित पी.सी. थामस माकपा के प्रत्याशी पी.एम. इस्माइल से केवल 529 मतों के अन्तर से जीत पाए। केरल में इस चमत्कार का रहस्य क्या है। वामपंथी पाक्षिक (फ्रंट लाईन 21 मई) में सविस्तार बताया गया है कि किस प्रकार वाममोर्चे ने इस बार कुछ उग्रवादी और कट्टरपंथी मुस्लिम संगठनों, जैसे- कोयम्बटूर बम विस्फोट के आरोप में जेल में बंद मेहदवी की पी.डी.पी. और मुस्लिम उग्रवादी संगठन पी.डी.एफ. व मुस्लिम लीग से टूटकर बनी इब्राहीम सुलेमान सेठ की इंडियन नेशनल लीग ने पूरी ताकत से वाममोर्चे का समर्थन किया। पायनियर (15 मई) की रपट के अनुसार भवतुपुडा में जब पी.सी. थामस भारी विजय की ओर बढ़ते दिखाई दिए तो पी.डी.एफ. के कार्यकर्ताओं ने घर-घर जाकर उस क्षेत्र के 2 लाख मुस्लिम मतदाताओं को माकपा प्रत्याशी इस्माइल के पक्ष में एकमुश्त मतदान करने का आग्रह किया। माकपा के सेकुलरिज्म के नारे का एक मात्र अर्थ है मुस्लिम एवं ईसाई मतों को मजहब के नाम पर जुटाना। इस बार कैथोलिक चर्च ने अधिकृत अपील जारी की कि कैथोलिक मतदाता कांग्रेस के विरुद्ध कम्युनिस्टों को वोट दें। इधर कांग्रेस के भीतर एंटोनी- करुणाकरण विवाद के कारण हिन्दू मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग दोनों मोर्चों से ऊब कर भाजपा की ओर मुड़ गया। इस सबका परिणाम हुआ कि सं.लो.मो.के मतों में 8.57 प्रतिशत गिरावट आयी, जबकि वा.लो.मो.के मतों में केवल 2.48 प्रतिशत की वृद्धि हुई, राजग के मतों में 75 प्रतिशत की वृद्धि हुई। इस वृद्धि से भाजपा को तो स्थान नहीं मिलें पर कांग्रेस के स्थान वाममोर्चे की झोली में चले गए। अब वाममोर्चे की नजरें दो वर्ष बाद होने वाले विधानसभा चुनावों पर हैं। तब तक उन्हें वर्तमान मजहबी समीकरण बनाए रखना है। वे स्वयं को कांग्रेस से अधिक सेकुलर अर्थात् अल्पसंख्यक समर्थक सिद्ध करने की कोशिश में लगे हैं। इस दृष्टि से उन्हें मनमोहन मंत्रिमंडल में केरल के मुस्लिम लीगी सांसद ई. अहमद की उपस्थिति खतरा बन गयी है। क्योंकि इससे मुस्लिम मतदाताओं का बहुमत कांग्रेस की ओर झुक सकता है। कितनी हास्यास्पद स्थिति है कि मजहबी राजनीति का खुला खेल खेलने वाले कम्युनिस्ट स्वयं को सेकुलर और कांग्रेस को साम्प्रदायिक कहें। उनके लिए दूसरा खतरा यह है कि कहीं सोनिया और उनके बच्चों की वर्तमान लोकप्रियता बंगाल और केरल के विधानसभा चुनावों में उनके लिए महंगी न पड़े।इसलिए उनकी रणनीति है कि इन तीनों राज्यों के विधानसभा चुनावों तक केन्द्र सरकार को बाहर से समर्थन देकर यह आभास पैदा किया जाए कि इस सरकार की समस्त जनहितैषी नीतियों का श्रेय वाममोर्चे को जाता है, जबकि उसकी भूलों और असफलताओं के लिए वे जिम्मेदार नहीं हैं। अभी से उन्होंने अपने मतभेद प्रदर्शित करना शुरू कर दिया है जैसे ई. अहमद की नियुक्ति, हारे हुए व्यक्तियों-शिवराज पाटिल और पी.एम. सईद को मंत्रिमंडल में लेना, सोमनाथ चटर्जी को लोकसभा अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठने देकर वे देश और विदेश में इस सरकार पर अपने वर्चस्व को प्रदर्शित कर सकेगी। न्यूनतम साझा कार्यक्रम को मौखिक समर्थन देकर भी उसके दस्तावेज पर हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की संचालन समिति से भी उन्होंने स्वयं को बाहर रखा है। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन और वाममोर्चे के बीच समन्वय समिति का रूप क्या बनेगा, यह भी स्पष्ट नहीं है। देखना यह है कि कांग्रेस कम्युनिस्टों के जाल में फंसकर आत्महत्या करती है या केरल, बंगाल व त्रिपुरा को उनसे मुक्त कराती है।(28-5-2004)32

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