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स्त्री

by
Jun 6, 2004, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 06 Jun 2004 00:00:00

हर पखवाड़े स्त्रियों का अपना स्तम्भतेजस्विनीकितनी ही तेज समय की आंधी आई, लेकिन न उनका संकल्प डगमगाया, न उनके कदम रुके। आपके आसपास भी ऐसी महिलाएं होंगी, जिन्होंने अपने दृढ़ संकल्प, साहस, बुद्धि कौशल तथा प्रतिभा के बल पर समाज में एक उदाहरण प्रस्तुत किया और लोगों के लिए प्रेरणा बन गयीं। क्या आपका परिचय ऐसी किसी महिला से हुआ है? यदि हां, तो उनके और उनके कार्य के बारे में 250 शब्दों में सचित्र जानकारी हमें लिख भेजें। प्रकाशन हेतु चुनी गयी श्रेष्ठ प्रविष्टि पर 500 रुपए का पुरस्कार दिया जाएगा।श्रीमती आशा कोटियाएक बाजू उखड़ गया तो क्या…-श्रीति राशिनकरव्यक्ति के जीवन में यूं तो उतार-चढ़ाव आते ही रहते हैं, लेकिन ऐसे विरले ही होते हैं जो अकेले ही जीवन में आए हर तूफान का सामना करने में सफल होते हैं।प्रकृति-प्रदत्त अनुपम शरीर लेकिन उसी प्रकृति के क्रूर अन्याय से शरीर का कोई भी अंग छिन जाए, यह कल्पना भी असहनीय है। लेकिन कुछ लोग हैं, जो ऐसे हादसों से गुजरकर भी अपने आपको तो संभालते ही हैं, साथ ही समाज के हर वर्ग की सेवा करने, उसे आगे बढ़ाने के लिए उतनी ही तत्परता से जुट जाते हैं, ऐसा ही प्रेरणादायी व्यक्तित्व है श्रीमती आशा कोटिया का।सेवा, त्याग एवं परिश्रम का व्रत लेकर चलने वाली आशा जी का जन्म रतलाम (म.प्र.) में हुआ। इन्दौर (म.प्र.) के क्रिश्यचन कालेज से अर्थशास्त्र में एम.ए. किया। स्कूल एवं कालेज के दिनों से वे विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लेती रहीं।जनजागरण का अलख – आशा कोटिया नुक्कड़ नाटक करती हुईंसफल नृत्यांगना बनने के उदे्श्य से आशा ने बचपन से ही नृत्य सीखना शुरू किया और फिर नृत्य में “विशारद” किया। लेकिन उम्र के अठारहवें वसंत में ही एक ह्मदयविदारक दुर्घटना में अपना एक हाथ गवां बैठीं। उम्र के चौदहवें वर्ष में विवाह के बाद अठारह वर्ष की उम्र में इस भीषण दुर्घटना ने उन्हें एक तरह से तोड़ दिया।ऐसे में उन्हें सहारा दिया सिर्फ उनके पति श्री कैलाशचंद्र कोटिया ने। आशा कोटिया हमेशा कहती हैं, “आज मैं जो भी हूं सिर्फ अपने पति के कारण।” वह बताती हैं कि इलाज के दौरान उन्हें पूना मिलेट्री अस्पताल में ऐसे एक व्यक्ति मिले जो हमेशा कहते थे कि तुमने केवल अपना एक हाथ खोया है न कि पूरी जिन्दगी। उनके शब्दों ने युवती आशा को नई प्रेरणा दी। उसके बाद तो उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा।आज आशा कोटिया देश के भावी नागरिकों को साक्षर बनाने के लिए जी-जान से जुटी हैं। इस कार्य के लिए 5 सितम्बर, 1996 को उन्हें राष्ट्रपति पदक से अलंकृत किया गया।साक्षरता अभियान हो, रंगकर्म हो या सामाजिक चेतना के लिए संघर्ष, श्रीमती आशा कोटिया सदा आगे रहती हैं।साक्षरता का अलख जगाने के उद्देश्य से झाबुआ के माछलिया घाट में जाकर वनवासियों के बीच उन्होंने कई नाटकों का मंचन किया। प्रारम्भ में तो यहां के लोगों ने इसका विरोध किया, उन पर पत्थर भी फेंके लेकिन उनका आत्मविश्वास नहीं टूटा और इन स्थानों पर सफलता से नुक्कड़ नाटकों का मंचन हुआ।श्रीमती कोटिया मानती हैं कि समाज में शिक्षक के रूप में बहुत कार्य किया जा सकता है। बच्चों को संस्कारित करने का कार्य शिक्षक का है, इसीलिए उन्होंने शिक्षण का व्यवसाय अपनाया। लेखन, रंगकर्म, समाज सेवा जैसे विभिन्न आयामों को उन्होंने अपनी जिंदगी में ढाला है। लिखने में भी रुचि है। कम आयु से ही उन्होंने लिखना प्रारम्भ कर दिया था। लघुकथा, कहानियां, कविताएं, व्यंग्य सभी विधाओं में उनकी लेखनी चली है।सन् 1984 के दंगों के समय उन्होंने इन्दौर की जनता में जागृति के लिए नुक्कड़ नाटकों का मंचन किया। वे कहती हैं, “यह जरूरी नहीं कि अचानक ही जनसाधारण में जागृति आ जाए लेकिन एक भी इंसान जागता है तो हम सवेरे की कल्पना कर सकते हैं।”बच्चों को संस्कारित करने, उनमें छिपी प्रतिभा को उभारने की दृष्टि से श्रीमती कोटिया ने सन् 1990 से अपने दिवंगत पति की स्मृति में “हल्ला-गुल्ला” बाल शिविर का आयोजन करना प्रारम्भ किया। पर्यावरण के बारे में लोगों को जागरूक बनाना व बच्चों में छिपी प्रतिभा को निखारना शिविर का मुख्य उद्देश्य है। शिविर में बच्चों को अभिनय, संगीत, नृत्य, मंचसज्जा का प्रशिक्षण भी दिया जाता है।वे बच्चों के बारे में जितनी चिंतित रहती हैं, उतनी ही स्त्रियों के उत्पीड़न के विरुद्ध भी सक्रिय रहती हैं।समाज हित में उनके कार्यों को रेखांकित करने के उद्देश्य से राष्ट्रपति पदक के अलावा उन्हें अनेक राज्यस्तरीय पुरस्कारों से भी सम्मानित किया जा चुका है। उन्होंने हर दुख को चुनौती मानकर उसका बड़े ही आत्मविश्वास के साथ मुकाबला किया। यह उनका आत्मविश्वास ही है कि उन्हें इन्दौर की व्यस्ततम सड़कों पर एक हाथ से कार चलाते देखा जा सकता है। वे इस बात का प्रमाण हैं कि प्रकृति के अन्याय को न मानते हुए आत्मविश्वास का सम्बल लेकर उस पर विजय भी प्राप्त की जा सकती है।उन्हें मिले एक अभिनंदन पत्र के ये शब्द उल्लेखनीय हैं- “जिस प्रवाह से विकलांगों के कल्याण कार्य के लिए आपकी कलम अनवरत् चल रही है, वह अभिनंदनीय तो है ही, साथ में प्रेरणा-स्त्रोत है मानवता के लिए, एक प्रकाशपुंज है विकलांगता और अधंकार के लिए।”18

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