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सत्य सदा सूली चढ़ा-महेश शुक्लजितनी ऊंची सभ्यता, उतने बौने लोग।खुशी छीन कर ले हंसी, यही रहा संयोग।।कहां गयी शुभकामना! कहां गए संवाद।बार-बार फिर किसलिए! गूंगों से फरियाद।।जितने ऊंचे लोग हैं, उतने निम्न विचार।सबके अपने स्वार्थ हैं, मुंह देखे व्यवहार।।राजनीति में प्रश्न पर, उत्तर कुछ निरुपाय।चाहे कोई वंश हो, सत्य सदा असहाय।।सत्य सदा सूली चढ़ा, पीकर के विषपान।कौन करे इस दौर में! अब सच का यशगान।।उनके मृत सिद्धान्त हैं, जिनके ऊंचे बोल।बेच-बेच कर खा रहे, धरती का भूगोल।।नहीं तमाशा देखते, जो अपना घर फूंक।उनके घर आती नहीं, कभी बावली भूख।।पत्थर होता तो चलो! सुन लेता चुपचाप।मगर आज इनसान का, मिला मुझे अभिशाप।।22
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