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कन्या भ्रूण हत्या-दोषी कौन?
पुस्तक-परिचय
पुस्तक का नाम : अजन्मा अभिशाप
लेखक : मुनि लोक प्रकाश “लोकेश”
सम्पादक : मुनि कुमुद कुमार
प्रकाशक : आदर्श साहित्य संघ,
210, दीनदयाल उपाध्याय मार्ग
नई दिल्ली-110002
पृष्ठ : 156
मूल्य : 50 रुपए
साहित्यकार जब संत हो तो उसका लोक कल्याणकारी भाव अधिक प्रगाढ़ होता है। सुविख्यात मुनि श्री लोकप्रकाश “लोकेश” आधुनिक युग के ऐसे ही साहित्यकार हैं। उनकी सद्य: प्रकाशित कृति “अजन्मा अभिशाप” एक ज्वलन्त समस्या-भ्रूण हत्या को केन्द्र में रखकर लिखा गया एक बोधपरक उपन्यास है। जिस प्रकार कन्या भ्रूण हत्या का जघन्य अपराध हो रहा है, उससे लेखक का चिन्तित होना स्वाभाविक है।
भ्रूण हत्या जैसे जघन्य कृत्य से समाज को सावधान करने हेतु “अजन्मा अभिशाप” को सार्थक प्रयास माना जा सकता है। उपन्यासकार के शब्दों में यह एक उपन्यास ही नहीं अपितु मानवता की रक्षा का आह्वान भी है। प्रस्तुत उपन्यास में लेखक ने सेठ मान सिंह प्रधान के परिवार को केन्द्र में रखकर उपन्यास का कथानक रचा है। सेठजी की पुत्रवधू विशाखा अपनी बुआ और प्रभा आंटी की प्रेरणा से अपनी कोख उजाड़ लेती है अर्थात भ्रूण हत्या करा लेती है। यह रहस्य बहुत दिन बाद अनावृत होता है। जब विशाखा की जेठानी संजना को तृतीय संतान के रूप में लड़की पैदा होती है तो प्रभा आंटी के मुख से अकस्मात् निकलता है कि विशाखा ने मेरी बात मान ली और वह सुखी है, तुमने मेरी बात नहीं मानी तो ये तीसरी लड़की पैदा हुई। सभ्य परिवार में किसी बहू ने भ्रूण हत्या कराई हो तो उसकी प्रतिक्रिया होनी ही थी। और यदि इस अपराध की प्रेरणास्रोत तथाकथित समाज सेविका, भ्रूण हत्या निरोधक संस्था की अध्यक्षा और पार्षद अर्थात प्रभा आंटी हों तो किसी साधारण प्रतिक्रिया से लक्ष्य हासिल नहीं हो सकता। अत: लेखक को प्रभा आंटी की करतूतों को बेनकाब करने के लिए जतिन जैसे सुप्रसिद्ध पत्रकार की सर्जना करनी पड़ी। लेखक ने बड़ी ही कुशलता से इस तथ्य तो प्रतिपादित किया है कि यदि रक्षक ही भक्षक हो जाएं तो समाज एवं राष्ट्र की दुर्दशा अवश्यम्भावी है। प्रभा आंटी के माध्यम से लेखक ने राजनीतिज्ञों को सावधान किया है और उन्हें अपने कर्तव्य का अहसास कराया है। इसी चरित्र के माध्यम से लेखक ने यह भी संदेश दिया है कि आखिर नारी ही नारी जाति के अस्तित्व को मिटाने के लिए तत्पर क्यों है? कहीं ननद के रूप में, कहीं सास के रूप में और कहीं किसी संस्था की प्रधान के रूप में नारी ही नारी का शोषण कर रही है। इसी तथ्य को अखिल के मुख से लेखक इस प्रकार प्रस्तुत करता है- “हमारे समाज में नारी शोषण के लिए पुरुष वर्ग से ज्यादा नारी जाति ही दोषी है।”
लेखक ने उपन्यास का रोचक एवं शिक्षाप्रद अन्त किया है। अतत: अश्रुपूरित नेत्रों से विशाखा कहती है- “बुआजी, हम सभी को माफी उस आत्मा से मांगनी होगी। वह अपराध हमने प्रकृति के प्रति किया है। जीवन देने और लेने का अधिकार हमारा नहीं है। अंधी तो मैं भी हो गई थी और यह पाप मैं अब तक छिपाये रही। मेरी आत्मा कई बार कचोटती है मुझे।”
मुनिश्री लोकप्रकाश “लोकेश” के “अजन्मा अभिशाप” उपन्यास का यही दर्द है और यही संदेश भी। आवरण पृष्ठ आकर्षक, नयनाभिराम और शीर्षक को सार्थकता प्रदान करता है। कुल मिलाकर यह उपन्यास पठनीय और संग्रहणीय तो है ही, मार्गदर्शक भी है।
-डा. आनन्द प्रकाश त्रिपाठी
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