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हर पखवाड़े स्त्रियों का अपना स्तम्भ
मेरी सास, मेरी मां, मेरी बहू, मेरी बेटी
जब भी सास- बहू की चर्चा होती है तो लगता है इन सम्बंधों में सिर्फ 36 का आंकड़ा है। सास द्वारा बहू को सताने, उसे दहेज के लिए जला डालने के प्रसंग एक टीस पैदा करते हैं। लेकिन सास-बहू सम्बंधों का एक यही पहलू नहीं है। हमारे बीच में ही ऐसी सासें भी हैं, जिन्होंने अपनी बहू को मां से भी बढ़कर स्नेह दिया, उसे आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया। और फिर पराये घर से आयी बेटी ने भी उनके लाड़-दुलार को आंचल में समेट सास को अपनी मां से बढ़कर मान दिया। क्या आपकी सास ऐसी ही ममतामयी हैं? क्या आपकी बहू सचमुच आपकी आंख का तारा है? पारिवारिक जीवन मूल्यों के ऐसे अनूठे उदाहरण प्रस्तुत करने वाले प्रसंग हमें 250 शब्दों में लिख भेजिए। अपना नाम और पता स्पष्ट शब्दों में लिखें। साथ में चित्र भी भेजें। प्रकाशनार्थ चुने गए श्रेष्ठ प्रसंग के लिए 200 रुपए का पुरस्कार दिया जाएगा।
सास कम, मां अधिक
श्रीमती शालिनी सूद अपनी सासू मां श्रीमती स्नेह सूद के साथ
विवाह से पहले मैंने अपनी सहेलियों के मन में ससुराल का डर जागते देखा था। हालांकि मेरा विवाह जब तय हुआ तो ससुराल के बारे में मुझे कोई विशेष डर नहीं लगा, क्योंकि मेरा विवाह परिचित परिवार में ही तय हुआ था। मेरे पति श्री रोबी और सासू मां श्रीमती स्नेह सूद को हमारा परिवार शुरू से जानता था। आज सोचती हूं कि मैं कितनी भाग्यशाली हूं कि जैसा सोचती थी वैसी ही ससुराल और सास मुझे मिली।
आज हमारे विवाह को दस वर्ष हो गए हैं, पर शादी से पहले की मेरी देर से जागने की जो आदत थी, वह आज भी नहीं बदली। लेकिन सासू मां ने कभी भी मेरी इस आदत को लेकर कुछ नहीं कहा, जबकि वह खुद सुबह जल्दी जाग जाती हैं।
यही बात खान-पान के बारे में भी है। मेरे पति या बच्चे भले ही मेरे बनाए खाने को लेकर टीका-टिप्पणी करते हों, लेकिन सासू मां ने मुझे कभी इस बात का अहसास नहीं होने दिया कि मेरी पाक कला में कहीं कोई कमी है। आज भी मुझे मक्के की रोटी बनाने में कठिनाई होती है। मेरी मां हमेशा कहती थीं कि इतनी बड़ी हो गई लेकिन अभी तक रोटी बनाना तक नहीं आता। लेकिन सासू मां ने कभी इस बारे में मुझसे कुछ नहीं कहा। आज भी हमारे घर में जब मक्के की रोटी बनती है तो सासू मां ही बनाती हैं।
मुझे अपनी मां की याद अपने बैठे राघव को जन्म के समय आई थी। बच्चे की मालिश, उसको नहलाना-धुलाना, खान-पान इन सबका ध्यान नानी ही रख सकती हैंं, ऐसा मुझे लगा था। लेकिन मेरी इस धारणा को सासू मां ने झुठला दिया। न केवल राघव, बल्कि केशव भी अपनी दादी के दुलार में ही बड़ा हुआ। आज सासू मां के पास दोनों को छोड़कर मैं अपने कामों के लिए आराम से बाहर जा सकती हूं। हमारे लिए इतना सब करने के बाद भी सासू मां ने हमारे व्यक्तिगत जीवन में कभी दखल नहीं दी, न ही कभी मुझे कोई उपदेश देने का प्रयत्न किया। इसका अर्थ यह बिल्कुल नहीं है कि हम सास-बहू में कभी नोंक-झोंक होती ही नहीं है। सासू मां हर काम बड़े धीरज के साथ आराम से निपटाती हैं, जबकि मैं बहुत जल्दी काम निपटाना चाहती हूं, ताकि अखबार या किताबें पढ़ने, सहेलियों के साथ बातचीत करने के लिए समय बचे। बस, यहीं आकर थोड़ी झड़प होती है। लेकिन इन दस वर्षों में मैंने जाना है कि वे बहुत सहज, सरल और आत्मीय हैं।
एक बार सासू मां ने मुझसे कहा था कि वह ऐसी बहू चाहती थीं जो घरेलू भी हो और मिलनसार भी। जहां तक हो सासू मां नौकरी-पेशा बहू नहीं चाहती थीं। मुझे अपने आप पर तब गर्व हुआ जब एक बार सासू मां ने कहा, “मैं जैसी बहू चाहती थी, वैसी ही है तू।” आज अगर कोई मुझसे पूछे तो मैं यही कहूंगी, “मैं भी सासू मां जैसी ही सास चाहती थी, जो सास कम और मां अधिक हो।”
शालिनी सूद
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मयूर विहार, फेस-1 विस्तार, दिल्ली-110091
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