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कांची शंकराचार्य पर हुआ यह प्रहार<p style=font-weig

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May 12, 2004, 12:00 am IST
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दिंनाक: 12 May 2004 00:00:00

कांची शंकराचार्य पर हुआ यह प्रहार

हिन्दू धर्म के मूल पर कुठाराघात

पूज्य शंकराचार्य स्वामी जयेन्द्र सरस्वती जी

पूज्य किशोर जी व्यास विख्यात प्रबोधनकार एवं श्रीमद्भागवद् के लोकमान्य व्याख्याता हैं। उनका केन्द्र पुणे में है तथा वे निरन्तर धर्म जागरण और धर्म प्रतिष्ठा के कार्य हेतु देश-विदेश में प्रवास करते रहते हैं। 26 नवम्बर को कांचीपुरम अदालत ने शंकराचार्य जी की न्यायिक हिरासत की अवधि 10 दिसम्बर तक बढ़ा दी। इससे संत समाज में रोष बढ़ गया है। पूज्य शंकराचार्य जी की गिरफ्तारी के सम्बंध में आचार्य व्यास का यह लेख एक भारतीय आत्मा की वेदना को व्यक्त करता है, जो उन्होंने विशेष रूप से पाञ्चजन्य के लिए लिखा है। सं.

संपूर्ण भारतवर्ष के इतिहास में पहली बार एक ऐसा दुर्भाग्यपूर्ण अवसर आया है जिसके कारण भारत का सनातन हिन्दू धर्म अपने मूलाधार की रक्षा के प्रति चिंतित हो गया है। लगभग सभी धर्माचार्यों ने कांची कामकोटि पीठाधिपति पूज्य शंकराचार्य स्वामी जयेन्द्र सरस्वती जी को बंदी बनाए जाने की घटना, उसकी प्रक्रिया तथा जेल में उनके साथ किए गए अशोभनीय दुव्र्यवहार आदि की घोर निंदा की। इस प्रकरण से सारा देश हिल गया। स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार एक पूर्व राष्ट्रपति तथा दो पूर्व प्रधानमंत्री उपवास एवं धरने में सहभागी होने सड़क पर आए। पूज्य शंकराचार्य जी के साथ जो कुछ हुआ, हो रहा है, उसे सब जानते हैं। लेकिन यह क्यों हुआ, इसके मूल में जाने की भी आवश्यकता है।

प्रदीर्घ पवित्र परंपरा

-आचार्य किशोर व्यास

भगवान आदि शंकराचार्य महाराज का अवतार लगभग 2,500 वर्ष पहले केरल के कालड़ी ग्राम में हुआ। इस संसार में सनातन वैदिक धर्म की पुन:स्थापना करने का सर्वाधिक श्रेय उन्हीं को जाता है। आदि शंकराचार्य महाराज हमारी राष्ट्रीय एकता के अत्यन्त श्रेष्ठ सम्पोषक और प्रतीक रूप में उभर कर आए। केवल 32 वर्ष की आयु में सर्वत्र भ्रमण करके भारतवर्ष की चारों दिशाओं में अपने मठों की स्थापना की और सम्पूर्ण वैदिक भारतीय समाज को एकता के सूत्र में बांधा। वेदों के ज्ञान पर जो बादल छाए थे, उन्हें अपनी अकाट्य तर्क-शक्ति और मेधा से दूर किया। बद्रीनाथ आदि क्षेत्रों में विस्थापित देव मूर्तियों की पुन:स्थापना करके सनातन धर्म को इस प्रकार परिपुष्ट किया कि यह धारा अनवरत रूप से आगे चलती रहे। उन्होंने देश के चारों कोनों में चार आश्रम स्थापित किए और अपने चार प्रमुख शिष्यों को उनका दायित्व सौंपा। किन्तु शंकराचार्य जी महाराज स्वयं कांची में रहे। इसलिए आचार्य जी के द्वारा स्थापित चार शिष्य पीठ हैं, किन्तु कांची का पीठ स्वयं आचार्यजी का गुरु- पीठ है। इसलिए उस पीठ का महत्व हमारी परंपरा में सबसे अधिक है।

अन्ये तु गरव:प्रोक्ता: जगद्गुरुरयं स्मृत:।

ऐसा स्वयं आदि शंकराचार्य जी ने कहा है। उस समय से कांची पीठ की परम्परा अनवरत रूप से चलती आयी और उस परंपरा में शंकराचार्य श्री चंद्रशेखरेंद्र सरस्वती जी महाराज, जिनको महास्वामी या परमाचार्य कहा जाता है, का अवतरण एक विलक्षण घटना थी। पूज्य परमाचार्य जी तपस्या के साकार विग्रह थे। उन्होंने स्वयं 13 वर्ष की अल्प अवस्था में पीठ पर आरोहण किया। वे पीठ के 68वें शंकराचार्य रहे। 13 वर्ष की आयु में पीठ पर आसीन होने के बाद उन्होंने अपना अध्ययन, तप, देवताओं का आराधन और राष्ट्रीयता का पोषण- इन सबका इस प्रकार आचरण करके दिखाया कि वे स्वयं चलते-फिरते देवता के रूप में माने जाने लगे। पाल ब्रांटन से लेकर के अनेकानेक विदेशी लोगों ने, पत्रकारों व अत्यन्त श्रेष्ठ विद्वानों ने इस महात्मा के चरणों में बैठकर उनकी महत्ता का आकलन करने का प्रयास करके अपने जीवन को धन्य किया। पू. परमाचार्य जी महाराज का जीवन अत्यन्त तपोनिष्ठ और सादगीपूर्ण था। वे आजीवन स्वयं किसी भी वाहन में नहीं बैठे। विदेशी बहिष्कार के अंतर्गत 1918 में विदेशी वस्त्रों को स्वयं जल में प्रवाहित करके उन्होंने आजीवन खादी का व्रत लिया। दलितों की बस्तियों में जाकर उनके सुख-दु:ख को देखा, समझा। वे स्वयं निरंतर तपस्या में रत रहे। उनकी तपस्या के कारण पीठ का गौरव अत्यधिक बढ़ गया। पूज्य करपात्री जी महाराज ने एक बार कहा था कि “भगवान आदि शंकराचार्य जी के पश्चात् परमाचार्यजी ही ऐसे हैं जिनका तेज, तप और सारा जीवन आदि शंकराचार्य की याद दिलाता है।” पूज्य परमाचार्यजी ने अपने उत्तराधिकारी के रूप में वर्तमान शंकराचार्य पूज्य श्री जयेन्द्र सरस्वती जी महाराज का चयन किया। 19 वर्ष की आयु में संन्यास ग्रहण करके पूज्य स्वामीजी महाराज ने पीठारोहण किया। इसी वर्ष उनके पीठारोहण के 50 वर्ष पूरे हुए हैं।

श्री रामकृष्ण-विवेकानंद के समान पूरक

पूज्य स्वामी जयेन्द्र सरस्वती जी महाराज और पूज्य परमाचार्यजी- दोनों की भूमिकाओं में कुछ अंतर है। वह अंतर परस्पर पूरक है, परस्पर विरोधी नहीं। स्वामी रामकृष्ण परमहंस अत्यंत श्रेष्ठ संत रहे। साक्षात्कार संपन्न एक महान महात्मा के रूप में सारा संसार उनको जानता है। उनके शिष्य स्वामी विवेकानंद जी तपस्वी और उत्तम साधन सम्पन्न होने पर भी प्रवृत्ति से कुछ भिन्न थे। रामकृष्ण परमहंस देव भक्तिनिष्ठ तपस्यारत संत थे। किन्तु विवेकानन्द जी ने समाज को एक नई दिशा देनी चाही। उन्होंने भारतवर्ष में हिन्दू धर्म में एक नया विचार प्रस्तुत किया और वह विचार था-सेवा का विचार। वे स्वामी विवेकानंद ही थे जिन्होंने कहा था कि मेरे देश के युवकों को आने वाले कुछ वर्षों तक देवी-देवताओं की पूजा से खुद को दूर रखकर भारत माता की सेवा करनी चाहिए। और भारत माता की सेवा का अर्थ झुग्गी-झोपड़ियों में जाकर, वनवासियों में, गिरिजनों में जाकर शिक्षा का प्रचार करना, चिकित्सकीय सहायता देना, उन्हें जीवन की शैली सिखाना, उनके जीवन को ऊपर उठाना ही है। यह अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य एक चुनौती के रूप में देश के युवकों के सामने है। और इसीलिए पश्चिम में योग और वेदांत का उपदेश देने वाले स्वामी विवेकानंद ने भारतवासियों के लिए सेवा का उपदेश दिया।

जिस प्रकार का अंतर स्वामी रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद जी की प्रवृत्तियों में दिखता है और दोनों के मिलने से एक पूर्णता होती है, उसी प्रकार का अंतर पूज्य परमाचार्यजी महाराज और स्वामी जयेन्द्र सरस्वती जी महाराज में दिखता है। पूज्य जयेन्द्र सरस्वती जी महाराज को अंत:करण में यह बात सालती थी कि हमारा देश अभी भी अनेक प्रकार से पिछड़ा हुआ है। इस देश की उन्नति के लिए जिस प्रकार अन्य लोगों को अपने कार्य करने चाहिए, उसी प्रकार पीठाधीशों को भी आगे आना चाहिए। धर्म के पीठ और मठ केवल पूजा-पाठ तक सीमित न रहें। वे शिक्षा, सेवा और समाज के उत्थान की अनेक प्रक्रियाओं में सहभागी बनकर उभरें। यह व्यावहारिक धर्म, यह क्रियाशील सेवामय धर्म उनको पुकार रहा था। इसीलिए उन्होंने 1987 में सोचा कि पीठ पर विराजमान रहकर यदि यह काम नहीं किया जा सकता तो पीठ का ही त्याग कर दिया जाए। देश की सामान्य जनता की सेवा की यह इतनी विलक्षण थी कि उन्होंने उसके लिए पीठ का त्याग भी करना चाहा। वे कुछ दिनों के लिए वहां से चले भी गए। किन्तु पूज्य परमाचार्य जी महाराज ने उन्हें बुलाकर कहा कि सेवा का यह कार्य आप पीठ पर विराजमान रहकर भी कर सकते हैं, और करना चाहिए भी। इसलिए पूज्य स्वामीजी महाराज ने पुन: अपने पद को स्वीकार किया और वे सेवा कार्यों में जुट गए।

आसेतु हिमाचल एकात्मता

इस धर्म की, इस संस्कृति, इस समाज की कितनी सेवा उन्होंने की, यह आज यहां बताना चाहता हूं। जब उनके द्वारा निर्मित संस्थाओं की सूची पर एक दृष्टि डालते हैं तो मन आश्चर्य से भर जाता है। दो-चार संस्थाओं का संचालन करना लोगों को कठिन लगने लगता है। पर आश्चर्य और आनंद की बात है कि भारत माता और भारतीय समाज की सेवा के लिए समर्पित इस पीठ के द्वारा सेवा के जो प्रकल्प चलाए जाते हैं, जो संस्थाएं चलाई जाती हैं, आज उनकी संख्या 403 है। संपूर्ण देश में घूम-घूमकर पूज्य स्वामीजी ने जन-जागरण किया। प्रारंभ में लम्बे समय तक तो वे पदयात्रा ही करते रहे। इधर कुछ वर्षों से, मुख्यत: सुरक्षा कारणों से, श्रद्धालुजन एवं सरकार की प्रार्थना पर उन्हें विभिन्न वाहनों का प्रयोग आरंभ करना पड़ा। देशभर में उन्होंने अब तक 10 लाख कि.मी. अधिक पदयात्रा की है।

स्वामी जयेन्द्र सरस्वती महाराज आदि शंकराचार्य के पश्चात् पहले ऐसे शंकराचार्य हैं जिन्होंने स्वयं कैलास मानसरोवर की यात्रा की। उनसे पूर्व कोई भी शंकराचार्य वहां पर नहीं गए थे। उनकी नेपाल की यात्रा में मैं स्वयं उनके साथ था और मैंने देखा कि छोटे-छोटे गांवों में, वहां की बिल्कुल छोटी बस्तियों में जाने का उनका आग्रह रहता था। समाज के लोगों से मिलना, उन लोगों के भीतर श्रद्धा का संचार करना, अपना कोई आचार्य है, यह विश्वास उनको दिलाना और सामान्य जनता को श्रद्धा के सूत्र में बांधना ही उनका कार्य रहा है।

मुझे एक प्रसंग याद आता है। वे पैठण से मेरे जन्मग्राम बेलापुर में पधारने वाले थे तो मैंने स्वामी जी से पूछा कि कुछ लोग आपकी पधरावनी करना चाहेंगे, उसकी व्यवस्था कैसे की जाए? तो उन्होंने मुझसे कहा, “उपलब्ध समय कितना है, यह देखकर आप जैसी व्यवस्था करना चाहें वैसी कर लीजिए। लेकिन एक बात ध्यान में रखना, मुझे हरिजनों की बस्ती में भी लेकर जाना। मैं उनसे भी मिलना चाहता हूं।” जगद्गुरु के पद पर आसीन एक महात्मा का यह कहना कि मैं हरिजनों की बस्ती में जाकर उनके सुख-दु:खों में सहभागी होना चाहता हूं, उनके साथ प्रेम से बातचीत करना चाहता हूं, अद्भुत है। दरअसल यही तो हमारे धर्म की पीढ़ियों से नहीं, बल्कि सदियों से मांग रही थी।

दो वर्ष पहले पूज्य आचार्यजी ने मुझे सिक्किम में प्रवचन करने के लिए गंगतोक बुलाया था। वहां उन्होंने एक मंदिर बनाया था, जिसका उद्घाटन कार्यक्रम था, प्राण प्रतिष्ठा थी। मैंने स्वामी जी से पूछा कि इतनी दूर इस ठंड में आकर आपने इस मंदिर का उद्घाटन करना किसलिए स्वीकार किया और यहां मंदिर किसलिए बनाया? पूज्य स्वामी जी ने कहा कि “व्यास जी, सिक्किम के पास ही अपनी चीन की सीमा है। देश की प्रत्येक सीमा के निकट मंदिर होने चाहिए, ताकि हम अपने राष्ट्र की रक्षा करने में कुछ योगदान दे सकें।” कैसी है यह दृष्टि! कैसा है यह चिंतन! मैंने जब उनसे कहा कि मैं श्रीनगर में एक वेद पाठशाला स्थापित करना चाहता हूं तो उन्होंने कहा “अभी नहीं, बाद में करेंगे। पहले जम्मू में कीजिए। अपने पग जम्मू में रखिए और नजर श्रीनगर के ऊपर रखिए।”

“सारा देश मेरा है। उसकी रक्षा करना मेरा कर्तव्य है।” यह भाव जब एक धर्माचार्य हमारे भीतर भरता है तो उसकी एक विशेष महत्ता होती है। पूज्य स्वामीजी महाराज एकमात्र ऐसे पीठाधीश शंकराचार्य हैं जो स्वयं पिछले वर्ष बंगलादेश की राजधानी ढाका गए, वहां जाकर एक मंदिर की सहायता की और वहां शंकराचार्य महाराज के नाम से एक अत्यन्त विशाल द्वार बनवाकर आए। उस मार्ग को स्वामीजी का नाम दिया गया है। एक वे ही ऐसे आचार्य हैं जिनको नेपाल और चीन सरकार स्वयं बुलाने के लिए उत्सुक रहती हैं। अपने निरंतर सेवा कार्यों से, सुलझी हुई दृष्टि से, लोगों से मिलते हुए और प्राचीन परंपराओं का पालन करते हुए उन्होंने जो कार्य किया है, उसकी हमारे सांस्कृतिक इतिहास में कोई उपमा नहीं, कोई उदाहरण नहीं।

सेवा कार्यों का नया कीर्तिमान

मेरे सामने उनके द्वारा चलाए गए कार्यों की सूची है। आप भी देखिए-

1. आदि शंकराचार्य, कामाक्षी देवी आदि कांची में अधिष्ठान मंदिर 14

2. भारत के विभिन्न प्रदेशों में मठ, मंदिरों की संख्या 101

3. वेद रक्षा निधि, आदि न्यास 48

4. स्थापित एवं संचालित वेद पाठशालाएं 70

5. संस्कृत भाषा एवं शास्त्र विद्यालय 14

6. बड़े चिकित्सालय एवं चिकित्सा शिक्षा संस्थान 18

7. छोटे चिकित्सा केन्द्र 30

8. समाजसेवा केन्द्र (अन्नक्षेत्र, अनाथालय आदि 10

9. वृद्धाश्रम एवं विकलांग आश्रम 7

10. माध्यमिक विद्यालय (हाईस्कूल) 73

11. गोशाला 2

12. ग्रामीण विकास आदि सेवा केन्द्र 7

13. विदेशों में सेवा केन्द्र 5

14. श्री चंद्रशेखरेन्द्र सरस्वती विश्वविद्यालय 1

विज्ञान की दिशा में कार्यरत भारतीय युवकों को भारत से बाहर जाने का मोह न हो, प्रतिभा का भारत से पलायन न हो, वह रुक जाए इसलिए सूचना प्रोद्यौगिकी (इन्फार्मेशन टेक्नालाजी) के कितने ही केन्द्र उन्होंने स्थापित किए।

इस प्रकार 400 से अधिक संस्थाओं से पूरे देश में और विशेष रूप से तामिलनाडु में लोक कल्याणकारी कार्यों की श्रृंखला निर्माण करते समय पू. महाराजश्री ने वेदविद्या, बाल संस्कार, वनवासी सेवा, विपन्न सेवा, कृषि, पशु-संवर्धन, चित्रकला, संगीत इत्यादि कला, स्वास्थ्य एवं शिक्षा संस्थान जैसे सेवा कार्यों को आरंभ किया। उनके अधिकांश शिक्षा संस्थानों में सूचना प्रोद्यौगिकी को विशेष महत्व दिया गया। पू. स्वामीजी के द्वारा निर्मित विश्वविद्यालय सेवा संस्थाओं का मुकुटमणि है।

अपने स्वयं के जीवन को अत्यन्त सादगीपूर्ण रखते हुए दिन में केवल एक बार अन्नग्रहण करना और एक ही वस्त्र पूरे शरीर को ढंकने के लिए प्रयोग करना। ऐसा सादा जीवन जीते हुए एक त्यागी सत्पुरुष ऐसी संस्थाओं का निर्माण कर उनका संचालन करता है, यह अपने आप में हम सबके लिए एक अत्यंत आदर एवं श्रद्धा का विषय बन ही जाता है। लेकिन वही हमारे देश में काम करने वाले ईसाई मिशनरियों के लिए द्वेष का विषय बन गया।

कुटिल षड्यंत्र

दक्षिण भारत में एक दीपस्तंभ के रूप में खड़ा हुआ कांची पीठ इन सारी सेवाओं का संचालन करता रहा, जिसके कारण जिन ईसाई मिशनरियों को लगता था कि सेवा पर उनका एकाधिकार है, उनको धक्का लगा। उनके मतान्तरण के वेग में कमी आई और उसके साथ-साथ और भी एक कार्य में स्वामी जी का योगदान रहा। तमिलनाडु में मतान्तरण विरोधी कानून पारित हुआ, उसके कारण भी ईसाई मिशनरियों को धक्का लगा। दुर्भाग्य की बात यह है कि हमारे देश में, विशेषकर तमिलनाडु में शायद बहुत बड़ा अधिकारी वर्ग अमरीकी ईसाई मिशनरियों के चंगुल में फंसा हुआ है। इतना धन उसके लिए व्यय किया जाता है कि लगभग कोई भी अधिकारी ईसाइयत के अतिरिक्त चलने वाले अन्य मत-पंथ के कार्य के साथ सहानुभूति रख ही नहीं सकता। यह केवल आज की बात नहीं है। तमिलनाडु में आज भी कोडनूर जेल में स्वामी प्रेमानंद नाम के एक संन्यासी बिना किसी अपराध के 10 वर्ष से बंद हैं। सुनवाई करे कौन? हमारी यंत्रणा जब ईसाइयों के द्वारा खरीद ली गई है और अमरीकी डालर जिसमें काम करता है, ऐसे भ्रष्ट शासन से और उसकी नौकरशाही से किसी प्रकार के न्याय की आशा नहीं रखी जा सकती।

पिछले काफी समय से यह अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र किसी भी प्रकार पूज्य स्वामीजी को फंसाने के लिए कार्यरत था। मुझे एक बात ध्यान आती है, क्योंकि मैं इनकी योजना के तरीकों को जानता हूं। “लांग टर्म प्लानिंग” और “शार्ट टर्म प्लानिंग” करके किस प्रकार, किसे-किसे, कहां-कहां फंसाया जा सकता है और उसके लिए किस प्रकार विभिन्न पदाधिकारियों को अपने हाथ में रखा जाना चाहिए, इन बातों में माहिर ये मिशनरी किसी प्रकार इस महान व्यक्तित्व को अपने जाल में फंसाना चाहते थे। क्या हुआ होगा? मेरा अनुमान है कि वहां जो शंकररमन की हत्या की गई, वह हत्या ही वास्तव में इस बात का लाभ देखकर की गई होगी कि शंकररमन और स्वामी जी में विवाद है। उसने कुछ पत्र स्वामी जी को लिखे, इसलिए इसे समाप्त करके इसका सारा का सारा दोष इस पीठ पर डाला जा सकता है। इस प्रकार की योजना बनाकर धर्म के विरोध में खड़े हुए और भगवान श्रीराम के पुतले जलाने की जिनकी परंपरा रही, ऐसे धर्मविरोधी द्रमुक के लोगों के बलवान बनते ही, उनके शासन में आते ही और उनको कम्युनिस्टों का सहयोग मिलते ही, इस षड्यंत्र को कार्यान्वित किया गया। आज केन्द्र में कम्युनिस्टों का समर्थन लिए बिना शासन चल ही नहीं सकता। एक ओर मिशनरियों का षड्यंत्र, दूसरी ओर भगवान श्रीराम के पुतले जलाने की परम्परावाला द्रमुक का धर्मविरोधी गुट। एक और महत्वपूर्ण बात, हमारे देश का नियंत्रण भी इस समय काफी हद तक विदेशियों के हाथ में है। प्रधानमंत्री कोई भी हो, लेकिन इन सबके लिए सत्ता पर अंकुश रखने वाले लोग विदेशी हैं। इन सबका साझा षड्यंत्र सध गया और यह सोचा गया कि शंकररमन को समाप्त करके उसका दोष इस पीठ के मत्थे मढ़ा जा सकता है और उसमें स्वामीजी को फंसाया जा सकता है। पोप और चर्च को प्रसन्न करने के लिए इससे बढ़िया क्या उपहार हो सकता था?

स्वयं ही हत्या करवाना और स्वयं ही हत्या करते समय उससे पहले अथवा बाद में स्वामाजी के सचल दूरभाष पर फोन करना। उसका रिकार्ड तो हो गया। बोला क्या गया, यह कौन जानता है। मेरे सचल दूरभाष पर किसी का फोन आ गया तो रिकार्ड तो हो गया न। अपनी ही ओर से अपराधियों को नियुक्त करके इस प्रकार का षड्यंत्र रचकर स्वामी जी को फंसाया गया। उसका एकमात्र कारण है कि तमिलनाडु में पूज्य स्वामी जी महाराज मतान्तरण में एक अड़चन लगते हैं। चाहे कम्युनिस्ट हों, चाहे द्रमुक के लोग, चाहे ईसाई मिशनरियां हों- इन सबकी धर्मविरोधी और राष्ट्रविरोधी कार्रवाइयों के लिए दक्षिण भारत में यदि सबसे बड़ा कोई अवरोध है तो वह है कांची पीठ। इसी को बदनाम कर दिया जाए तो हिन्दू धर्म के मूल पर ही कुठाराघात करने का एक बहुत बड़ा मौका मिल जाता है, ऐसा सोचकर यह षड्यंत्र रचा गया।

वेटिकन के पोप जब तीन वर्ष पूर्व भारत आए थे तो उन्होंने खुलेआम कहा था कि पहली सहस्राब्दि में हमने यूरोप को ईसाई बनाया, दूसरी सहस्त्राब्दि में अफ्रीका को ईसाई बनाया। अब तीसरी सहस्राब्दि में एशिया को ईसाई बनाना है। बात साफ है कि एशिया में भारत सबसे बड़ा देश है। भारत में सर्वाधिक जनता हिन्दू है और हिन्दुओं का सर्वोच्च पीठ कांची पीठ है। तो अगर इस मूल पर प्रहार करने का सुनहरा अवसर मिल जाए तो इससे बढ़िया क्या हो सकता था? और ऐसा अवसर पैदा करने के लिए अपने हस्तकों के माध्यम से पूरे तंत्र को भी विशाल धनराशि से खरीदना चर्च के लिए महंगा सौदा नहीं था।

मुझे एक हृदयस्पर्शी प्रसंग याद आता है। 1984 में श्रीस्वामीजी महाराज का चातुर्मास पैठण (जि. औरंगाबाद) में था। वे उस निमित्त तीन माह वहां रहे। उनकी और पैठण के सभी भक्तों की इच्छा थी कि इस अवसर पर आदि शंकराचार्य जी की प्रतिमा की स्थापना संत एकनाथ समाधि मंदिर में की जाए। किन्तु वहां एक डाक्टर ने इसका विरोध किया। पूरा गांव स्थापना के अनुकूल था। केवल एक व्यक्ति का विरोध था। एक भी व्यक्ति का विरोध न हो, यह स्वामी जी की इच्छा थी। अत: लोगों के चाहने पर भी स्थापना नहीं हो पाई। पू. स्वामीजी की विदाई के विशाल जुलूस में उन डाक्टर महोदय ने स्वामीजी से प्रणाम करके कहा-महाराज, मैंने आपको बहुत कष्ट दिया। कृपया आप मुझे शाप मत देना। महाराजश्री हंसकर बोले, “डाक्टर, मुझे कुछ कष्ट नहीं हुआ। शाप की बात ही गलत है। आप इस शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर देंगे तो भी हर टुकड़ा आपको आशीर्वाद ही देगा। ये काषाय वस्त्र किसी को शाप देने के लिए नहीं धारण किया है, सबमें नारायण देखने के लिए किया है।” इस क्षमा और करुणा का परिणाम यह हुआ कि उन्हीं डाक्टर ने अगुवाई करके फिर से स्वामी जी को पैठण निमंत्रित किया और शंकराचार्य जी की मूर्ति स्थापना की। प्रेम से इस प्रकार सभी को जीतने वाला महात्मा किसी की हत्या करवा सकता है, यह कल्पना भी नहीं की जा सकती।

हिन्दू संस्कृति पर संकट

घटनाएं आपके समाने हैं। एक सामान्य अपराधी को भी जो न्याय मिलता है, उस न्याय से भी स्वामी जी को इस समय वंचित रखा गया है। दूसरे किसी भी मत-पंथ का नेता यदि इस प्रकार के आरोपों से लांछित भी होता तो उसके साथ इस प्रकार का व्यवहार करने का साहस देश के किसी प्रदेश की सरकार नहीं कर सकती थी। ठीक दीपावली के अवसर पर, जब सब लोग अपने त्योहार में व्यस्त थे और तीन-चार दिन लगातार अवकाश था उन्हें गिरफ्तार करने की वास्तव में क्या आवश्यकता थी? कहां जा रहे थे स्वामी जी? उसके पश्चात् भी न्यायालय में उनकी जमानत का विचार क्यों नहीं किया गया? बिना किसी प्रकार का आरोप-पत्र दाखिल किए इतने प्रतिष्ठित संत को यदि जेल में इस प्रकार से ठूंसा जा सकता है तो तय है कि हमारे देश के सारे धर्माचार्य संकट में हैं।

हिन्दू समाज के धर्मस्थानों को येन केन प्रकारेण सरकार के कब्जे में लाने का भीषण षड्यंत्र अधिकाधिक व्यापक होता जा रहा है। कुछ वर्ष पहले बंगाल की कम्युनिस्ट सरकार ने रामकृष्ण मिशन के लगभग 200 विद्यालय हड़पने का प्रयास किया। तिरुपति और मुम्बई के सिद्धि विनायक जैसे देवस्थान तो सरकारी अंकुश के नीचे हैं- अन्य देवस्थानों की संपत्ति पर भी सरकार की बुरी नजर है। स्वामीजी की गिरफ्तारी के दो दिन पूर्व ही माकपा की पालित ब्यूरो के सदस्य डी. राजा ने मंदिरों को मिलने वाले धन पर कर लगाने की मांग की थी। यह मनोवृत्ति क्रमश: हिन्दू देवालयों एवं मठ, आश्रम तथा संस्थानों को सरकार के गुलाम बनाने की ओर ले जाएगी।

परम पावन दलाई लामा को चीन ने जिस प्रकार शस्त्रों के बल पर अपने देश से खदेड़ दिया और समाप्त करने का प्रयास किया, हमारे देश के धर्माचार्यों की उस प्रकार की अवस्था करने की यह साजिश है। दलाई लामा कम से कम भारत में तो शरण ले सके। इस देश के धर्माचार्य कहां जाकर शरण लेंगे? हमारी इस प्राचीन संस्कृति, परम्परा को उसके मूल पर कुठाराघात करके नष्ट करने की साजिश को समझना होगा। हम इस स्थिति का तीव्र विरोध करने के लिए कटिबद्ध हों। यदि इसी प्रकार धर्माचार्यों का मानभंग करने का और हिन्दू समाज को अपमानित करने का दुष्चक्र चलता रहा, तो धीरे-धीरे सारी राष्ट्रीयता व धार्मिकता का क्षरण होकर 100 वर्षों के पश्चात् कदाचित् इस देश में कोई भागवत सप्ताह होने की संभावना भी नहीं रहेगी। फिर कोई रामकथा नहीं सुनेगा।

मैं स्वयं तिब्बत की अवस्था देखआया हूं। पिछले वर्ष मैं कैलास मानसरोवर की यात्रा पर इसलिए गया था कि मुझे तिब्बत देखने का अवसर मिले। मैंने वहां के छह में से शेष बचे दो मठों के प्रमुखों के साथ चुपचाप थोड़ी बातचीत की। उन्होंने कहा, “महाराज 200 से अधिक मठ थे यहां, पर वे सारे के सारे नष्ट कर दिए गए हैं। भिक्षुओं को काट डाला गया, रौंदा गया। नमूने को यह छह मठ रखे गए हैं और इन मठों के हर कमरे में भी वीडियो कैमरा लगाया गया है। हम किसी के साथ किसी प्रकार बातचीत भी नहीं कर सकते। पता नहीं क्या-क्या रिकार्ड होता है। आपको लगता है कि हम अपने धर्म का पालन कर रहे हैं, लेकिन हम गुलाम बनकर जी रहे हैं।” तिब्बत के उन बौद्ध मठों की अवस्था को देखकर मेरा मन खिन्न हो गया। लेकिन अब लगता है कि यदि हमने इस प्रकार के षड्यंत्र में सावधानी नहीं बरती और इसका योजनापूवर्क विरोध नहीं किया तो धीरे-धीरे इस देश के सभी मठाधीशों को दलाई लामा से भी बुरी अवस्था में लाकर रख दिया जाएगा।

छत्रपति शिवाजी ही आदर्श

हमारा क्या कर्तव्य है? इस प्रकार का प्रश्न जब सामने आता है तो हमें छत्रपति शिवाजी महाराज के जीवन से प्रेरणा लेनी चाहिए। सर्वत्र अंधकार फैल गया था उस समय। अपूर्व धैर्य के साथ शिवाजी महाराज खड़े हुए और व्यक्तिगत आकांक्षाओं को तिलाञ्जलि देकर उन्होंने हिन्दुओं में एकता करने का प्रयास किया। बहुत ज्यादा लोग उनके साथ उस समय भी नहीं थे, लेकिन मुठ्ठीभर लोगों के साथ मिलकर धैर्य और बुद्धिमानी से उन्होंने ही प्रतिकार आरंभ किया। यह प्रतिकार वे न करें इसलिए छत्रपति शिवाजी महाराज के पिताजी को भी जेल में रखा गया। छत्रपति शिवाजी महाराज के पिताजी भी जेल में इसलिए रखे गए थे कि हिन्दुत्व के इस बढ़ते रथ को रोका जाए। पूज्य स्वामी जी आज जेल में हैं। हमें सावधान रहकर ऐसी घटनाओं का हर प्रकार से, हर स्तर पर विरोध करना चाहिए। इसका रोष अंत:करण में आग के समान धारण करना चाहिए। इस घटना का अर्थ केवल एक व्यक्ति को जेल भेजना नहीं है बल्कि यह सारे हिन्दू समाज को अपमानित करने की साजिश है। इस स्थिति में ऐसे अपमान को सहना एक मृतक का-सा जीवन जीना है। भगवान की आराधना, भारत माता की सेवा, यह सब कुछ हमारे धर्म-कर्म पर टिका है। और हमारे धर्म-कर्म का मूल केन्द्र कांची पीठ है। और इसलिए आसेतु हिमाचल सारे हिन्दू समाज को जागृत होकर, मैं किस राजनीतिक पार्टी का सदस्य हूं, इसका विचार न करते हुए, यह मेरे धर्म के ऊपर आक्रमण है, इस बात को ध्यान में रखकर अपना योगदान देने के लिए सिद्ध होना चाहिए।

इस धर्मपीठ का और धर्मपीठ के माध्यम से हमारे धर्म का ऐसा अपमान पहले कभी नहीं हुआ है। कानून के अंतर्गत रहकर शांतिपूर्ण उपायों से किन्तु एकजुट होकर और न थमते हुए आसेतु हिमाचल एक आंदोलन-अभियान जागृत करने की आवश्यकता है कि हमारे पूज्यपाद आचार्यजी को मुक्त किया ही जाए। लेकिन केवल इतना ही नहीं, इस प्रकार का बल और प्रभाव दिखाने की आवश्यकता है कि दोबारा ऐसा साहस करने का विचार भी कोई न कर सके। हम लोगों के अंत:करण में यह आग निरंतर जलनी चाहिए। हम लोग जल्दी भूलते हैं। अपने-अपने घरों में बैठकर आनंद मनाते समय हम उस महात्मा को नहीं भूले जिसका अपराध यही था कि उसने इस समाज की, इस राष्ट्र की, इस धर्म की सेवा में कोई कसर नहीं छोड़ी। नि:स्वार्थ भाव से किया हुआ यह त्याग, यह सेवा कार्य, उसके कारण बढ़ती हुई लोकप्रियता ही उनको शिकंजे में फंसाने का एक कारण बन गई। औरंगजेब ने चैत्र शुद्ध प्रतिपदा के पूर्व दिन फाल्गुन की अमावस्या को छत्रपति संभाजी महाराज का वध किया। यह इसलिए किया क्योंकि दूसरे दिन हिन्दुओं का त्योहार था। उसी प्रकार एक धर्माचार्य को दीपावली के एक दिन पूर्व गिरफ्तार किया गया। यह साहस केवल इसलिए हुआ कि हिन्दू समाज अपनी शक्ति का प्रदर्शन नहीं करता है।

केवल शक्ति होना ही पर्याप्त नहीं होता, वह दिखनी भी चाहिए। और उसके लिए जो त्याग और संघर्ष करना पड़ेगा उसे करने की सिद्धता भी चाहिए। सारे भारतवर्ष में जहां-जहां पर जो-जो उपक्रम कांची पीठ के सम्मान की पुन:स्थापना के लिए किया जा रहा है, उन सभी में सहभागी होकर सभी को अपने-अपने स्थान पर रहते हुए इस कर्तव्य को पूर्ण करना चाहिए। नहीं तो विदेशी शक्तियां अपने देश को छिन्न-विच्छिन्न कर देंगी। आज हमारे ऊपर पैसे और कुटिलता के बूते आक्रमण हो रहे हैं। हम इस कुटिलता को समझें और अंत:करण में संकल्प करें कि इस कार्य के लिए तब तक संघर्षरत रहेंगे जब तक कांची पीठ और हिन्दू धर्म की प्रतिष्ठा पुन: स्थापित नहीं होती। हमारे अंत:करण में यह संकल्प होना चाहिए कि हम अब रुकेंगे नहीं। भारत माता आज सभी को पुकार रही है। हम सब अपने-अपने स्थानों पर अपना कर्तव्य निभाएं, यही आज समय की मांग है। परमात्मा से प्रार्थना है कि हमारा पौरुष जागृत हो और संगठित शक्ति के रूप में हम अपने अभियान में अवश्य विजयी हों।

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