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मुशर्रफ के प्रति
नरम क्यों है राष्ट्रमंडल?
-कर्नल (से.नि.) प्रेमनाथ खेड़ा
जनरल परवेज मुशर्रफ
राष्ट्रमंडल के महासचिव राइट डान मैकनन, जिन्होंने हाल ही में पाकिस्तान का दौरा किया है, लगता है कि मुशर्रफ के जाल में फंस गए हैं। ब्रिटेन में पाकिस्तान के उच्चायुक्त रहे वाजिद शमसुल हसन ने साउथ एशिया ट्रिब्यून में लिखा है कि राष्ट्रमंडल के महासचिव को अब एक दावपेंच का सामना करना पड़ रहा है।
राष्ट्रमंडल के महासचिव से तो आशा थी कि वह जनरल मुशर्रफ को यह समझाने में अपनी राजनीतिक क्षमता का इस्तेमाल करेंगे कि स्वयं पाकिस्तान और विश्व समुदाय के हित के लिए उन्हें नेपोलियन बोनापार्ट जैसी महत्वाकांक्षाओं को छोड़ना होगा, इससे वह लोकतंत्र को मजबूत बनाने में भी मददगार सिद्ध होंगे।
सूचना मिली थी कि डान मैकनन ने परवेज मुशर्रफ के सैनिक वर्दी से चिपके रहने की जिद के बारे में यह नीति अपनाई थी, क्योंकि इसकी पुष्टि पाकिस्तान की राष्ट्रीय असेम्बली ने कर दी थी, जो एक निर्वाचित संस्था है। मगर यह बात गले से नीचे नहीं उतरती, क्योंकि यह राष्ट्रमंडल की अपनी ही नीति के विरुद्ध है। एक अंग्रेजी समाचार पत्र ने तो यहां तक कह दिया है कि डान मैकनन के नजरिये और रवैये में जमीन-आसमान का अन्तर आ गया है, विशेष रूप से जब से जनरल परवेज मुशर्रफ ने पाकिस्तान की सत्ता सम्भाली है। यह अन्तर पाकिस्तान में लोकतंत्र के सवाल पर विशेष तौर पर नजर आता है।
मैकनन मंझे हुए राजनीतिज्ञ हैं। यह बात तय है कि उन्हें पाकिस्तान भर में फैली हुई सेना के खिलाफ नाराजगी हुई होगी। उन्होंने इस बात का अनुमान तब स्वयं लगाया होगा जब लोकतंत्र बहाली तहरीक के प्रतिनिधिमंडल ने उनसे भेंट की थी। इन लोगों ने मीडिया में प्रकाशित उनके वक्तव्य पर आपत्ति जताई थी। मैकनन ने भेंटवार्ता के दौरान स्वयं को शर्मिंदगी से बचाने की पूरी कोशिश की। उन्होंने स्पष्ट किया कि “मुशर्रफ को दोनों पदों पर बरकरार रखने के लिए कानून की स्वीकृति दिया जाना संभव नहीं था। 31 दिसम्बर, 2004 के बाद भी उनके सैन्य वर्दी में रहने के मामले में मैं उन्हें शक का फायदा दे रहा हूं।” उन्होंने विपक्ष के प्रतिनिधिमंडल को विश्वास दिलाया कि “मैंने यह बात स्पष्ट कर दी है कि राष्ट्रमंडल पाकिस्तान के साथ सम्बन्ध रखना चाहता है। मैं यहां सरकार के फैसलों पर मुहर लगाने नहीं आया। हम राजनीतिक संस्थाओं को मजबूत बनाने की वकालत करते रहेंगे।”
मैकनन ने ठीक ही कहा है कि अपनी सैन्य वर्दी के विवाद में मुशर्रफ राष्ट्रमंडल की आशाओं पर खरे नहीं उतरे मगर राष्ट्रमंडल के दूसरे वक्तव्य दिन-दहाड़े हत्या के अपराध में फंासी की सजा से बचा लेने की तरह हैं। राष्ट्रमंडल के अनुसार “मुशर्रफ को केवल एक सैनिक शासक मानना ठीक नहीं होगा, क्योंकि पाकिस्तान को “एक सम्पूर्ण लोकतंत्र” बनाने के उद्देश्य से उनके द्वारा उठाये गए कदम सराहनीय हैं। उन्होंने चुनाव करवाए, प्रेस तथा संसद को आजादी दी और सेना के सर्वेसर्वा के तौर पर बने रहने के लिए संसद की स्वीकृति ली।”
इससे ठीक उलट यूरोपीय संघ ने तो घोषणा कर दी थी कि पाकिस्तान में हुए चुनावों में कई खामियां थीं। यूरोपीय संघ के पर्यवेक्षक जान कैरानाहन ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि पाकिस्तानी अधिकारियों ने ऐसा रास्ता अपनाया जिससे चुनावी प्रक्रिया में भारी कमियां सामने आ गईं। अपनी रपट में यूरोपीय संघ के चुनाव पर्यवेक्षण दल ने आरोप लगाया कि पाकिस्तानी अधिकारियों ने सरकार के संसाधनों का कुछ राजनीतिक दलों, विशेषकर पाकिस्तान मुस्लिम लीग को फायदा पहुंचाने के लिए गलत इस्तेमाल किया।
केवल चुनाव करवा देना इस बात की गारंटी नहीं कि पाकिस्तान में लोकतंत्र आ गया। उन्होंने कहा कि कैरानाहन ने ढेरों शिकायतों का हवाला दिया कि मतदाताओं को पहचान-पत्र उपलब्ध नहीं कराए गए थे और बहुत से मतदाताओं को वापस भेज दिया गया था क्योंकि उनके नाम मतदाता सूची से गायब थे। उस दल ने कहा था कि पाकिस्तानी सैनिक अधिकारियों ने चुनावी कार्यों में मनमाना हस्तक्षेप किया था। मुशर्रफ पर जुलूसों पर पाबंदी लगाकर चुनावी अभियान में आगे रहने का भी आरोप लगाया गया था।
अच्छे प्रशासन के नाम पर मुशर्रफ ने जो वादा किया था उसके बजाय पाकिस्तान आज एक ऐसी धरती बन गया है, जहां अराजकता और साम्प्रदायिक हिंसा रोजमर्रा की बात बनकर रह गई है। मस्जिदें और इमामबाड़े हत्याओं के अड्डे बन चुके हैं। देश में होने वाले अपराधों ने सभी पुराने कीर्तिमान ध्वस्त कर दिए हैं, जबकि कानून और सुरक्षा के नाम पर खर्चों में जबरदस्त बढ़ोतरी हुई है। लेकिन इस सबके बावजूद मैकनन की पाकिस्तान, विशेषकर मुशर्रफ के प्रति नरमी किसी के गले नहीं उतर रही।
(अडनी)
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